नसीर अहमद, न्यू एज इस्लाम
11 फरवरी 2019
क्या हक़ है और क्या बातिल और क्या नैतिक है और क्या अनैतिक इनसे संबंधित पूरे ज्ञान और पहचान का स्रोत अल्लाह पाक की ज़ात है। अगर इस ज्ञान पर पूर्ण दक्षता हासिल करना चाहते हैं तो आवश्यक है कि हम इस ज्ञान के प्राप्ति के लिए पुर्णतः आकर्षित हो जाएं। और इसका तरीका अल्लाह की हकीकत व माहियत या उसकी तमाम सिफात की कामिल समझ हासिल करना है। अगर हम इसकी भी सिफत के बारे में गलत फहमी का शिकार हो जाते हैं तो इसका परिणाम यह होगा कि न ही हम अल्लाह की किताब की और न ही हक़ व बातिल की सही समझ हासिल कर सकेंगे और इसी तरीके से शैतान हमें गुमराह करता है और कामिल मुसलमान होने से महरूम कर देता है। कुरआनी नस हर तरह के फसाद और तहरीफ़ से पुर्णतः सुरक्षित है लेकिन इसकी समझ और इसके अर्थ व मतलब नहीं।
इसका संबंध अल्लाह के 99 नामों को याद करने से नहीं है बल्कि अल्लाह की 99 गुणों को जानने या अल्लाह की हकीकत या माहियत को पूर्ण रूप से समझने से है। अल्लाह की सिफात वह शख्स बखूबी समझता है जिसने कुरआन को बिना विरोधाभास के किसी भी आयत को मंसूख समझे बिना समझा हो। ऐसे शख्स को अल्लाह की हकीकत व माहियत का इल्म कमाल की वजह से हासिल होता है।
इलाही इरादा
इस्लाम के उलमा को इन विरोधाभासों से कोई अंतर नहीं पड़ता जो उनकी तावीलात व व्याख्या से पैदा होते हैं क्योंकि वह यह समझते हैं कि अल्लाह अपने कलाम में विरोधाभास पैदा करने के लिए आज़ाद है क्योंकि “वह जो चाहता है करता है” और यह उसके कादिरे मुतलक होने की दलील है कि वह किसी सिद्धांत का पाबंद नहीं है। अल्लाह के इरादे और उसकी कुदरत जैसी सिफात के बारे में इस गलतफहमी को पैदा कर के शैतान लोगों से सिफते ‘ना आकबत अंदेशी’ की इबादत करवाने में सफल हो गया जो कि शैतान की सिफत है न कि अल्लाह की।
यकीनन अल्लाह जो चाहता है करता है लेकिन अल्लाह ने ही कानून की बालादस्ती और इल्लते कामिल का भी फैसला किया है और यह भी अल्लाह का ही फैसला है कि वह कभी भी अपनी सुन्नत और किसी भी फैसले को नाफ़िज़ करने के बाद परिवर्तित नहीं करेगा। कुरआन अल्लाह की किताब है इसकी अलामत यह है कि इसमें कोई विरोधाभास नहीं है और अगर आप को कोई किताब यह कह कर दी जाती है कि यह अल्लाह की तरफ से है और आप इस किताब में एक भी विरोधाभास पाएं तो इसे शैतान के चेहरे पर दे मारें क्योंकि ऐसी अल्लाह के किताब की नहीं हो सकती। हालांकि यह अल्लाह की किताब की ही तरफ से है लेकिन हमारे उलमा ने विरोधाभास पैदा करने वाली अपनी गलत व्यख्या के आधार पर इसे शैतान की किताब बना दिया है!
कुरआन एक आसान सी किताब है जो किसी भी पेचीदगी के बिना आसानी के साथ समझी जा सकती है। इसके लिए बस इतना ही आवश्यक है कि हम इसके बिलकुल स्पष्ट शाब्दिक अर्थ को विकल्प करें। वह उलमा ही हैं जो हर एक आयत में पेचीदगी पैदा करते हैं और इसकी गलत व्याख्या लोगों के सामने पेश करते हैं यही कारण है वह हदीस बिलकुल सहीह मालुम होती है जिसमें यह कहा गया है कि सबसे पहले उलमा ही जहन्नम में डाले जाएंगे। उलमा पेचीदगियां इसलिए पैदा करते हैं क्यों कि वह अल्लाह के गुणों की सहीह पहचान नहीं रखते।
अदल का गुण
उदाहरण के तौर पर न्याय के गुण को ही ले लें। क्या अगर “मुसलमान” खानदान में पैदा होने वालों को मुशरिकों के खानदान में पैदा होने वालों पर बरतरी हासिल हो तो क्या यह खुदा का अदल होगा? अतीत के हमारे कुछ अज़ीम उलमा का यह कहना है कि जन्नत कुछ लोगों के मुकद्दर में ही लिख दी गई है जबकि कुछ लोगों के मुकद्दर में जहन्नम या अल्लाह ने कुछ लोगों को जन्नत के लिए पैदा किया है और कुछ लोगों को जहन्नम के लिए। यह स्पष्ट तौर पर गैर संजीदा और एकतरफा बात मालुम होती है जिससे उलमा यह कह कर पल्ला झाड़ लेते हैं कि “अल्लाह की मर्ज़ी जो वह चाहे”। वह अल्लाह की दोनों सिफात की दुरुस्त समझ से दूर हैं।
अहले फ़िक्र व नज़र इसका जवाब यही देंगे कि इंसाफ का तकाजा है कि किसी भी मज़हब में पैदा होने वाले लोगों को जन्नत/जहन्नम हासिल करने का बराबर मौक़ा मिलना चाहिए, लेकिन मुसलमानों को यह राय स्वीकार नहीं होगी क्योंकि यह बात उनके ज़हनों में बस चुकी है कि गैर मुस्लिम काफिर हैं और वह सब के सब जहन्नम में जाएंगे, और वह यह देखते हैं कि जो जिस धर्म में पैदा होता है वह उसी में रहता है जबकि धर्म बदलने वालों की संख्या बहुत थोड़ी है।
जो लोग इस सवाल पर कुरआन मजीद से कोई अस्पष्ट जवाब तलाश करेंगे उन्हें जवाब मिल जाएगा, लेकिन इसके खिलाफ पर जिन लोगों का पक्का यकीन है वह इसके स्पष्ट जवाब से अंधे और बहरे ही रहेंगे। इसकी वजह यह है कि हम ने अभी तक अल्लाह के कलाम पर भरोसा करना और पेचीदा ख्यालों से ज़हन को खाली कर के कुरआन पढ़ना सीखा ही नहीं है। इसलिए हमें कुरआन पढ़ने का कोई खातिर ख्वाह फायदा नहीं होता।
आम तौर पर मुसलमान अल्लाह के अत्यंत महत्वपूर्ण गुणों को सहीह तौर पर समझने से कासिर हैं। हो सकता है वह केवल एक ही खुदा की इबादत करें लेकिन यह खुदा उनके लिए जानिबदार है जबकि यह उस रब्बुल आलमीन की सिफत नहीं हो सकती जो अल अदल या सरासर इंसाफ ही इंसाफ है बल्कि यह मुशरिकीन के देवताओं की सिफत है। इसलिए क्योंकर एक मुशरिक और इसी तरह एक मुसलमान ऐसे नक्स का हामिल हो सकता है जिसका अपने खुदा के संबंध में अवधारणा इस हद तक ऐब दार है जिसे वह अल्लाह की तरफ मंसूब करता है, अर्थात जानिबदारी, इसी वजह से मुशरिकीन अपने अनगिनत बातिल माबूदों को बेहतर पाते हैं?
अगर मुसलमान इस इलाही सिफत को सहीह तौर पर समझ लेते तो उन्हें यह मालुम हो जाएगा कि वह किसी भी तरह दूसरों से बरतर व फायक नहीं हैं सिवाए अपने नेक आमाल के। ‘दूसरों’ के साथ उनके व्यवहार से हैरत अंगेज़ परिवर्तन होती है। इसलिए उनमें जो कुछ अच्छी बातें हैं उन्हें स्वीकार नहीं कर सकते हैं और उनकी तारीफ़ भी कर सकते हैं।
क्या जहन्नम सिफते रहमत के विपरीत है?
अगर जहन्नम न होता तो क्या दुनिया के अंदर कहीं कोई भलाई पाई जाती? ज़ाते इलाही नैतिकता का मजहर है। जहन्नम भी उसकी रहमत का एक हिस्सा है वरना इसके बिना इस दुनिया में और भी ज़ुल्म, नाइंसाफी और तबाही व बर्बादी होती। कुरआन मजीद में नारे जहन्नम की तफसील यह है कि यह एक शदीद दायमी अज़ाब है।
“(याद रहे) कि जिन लोगों ने हमारी आयतों से इन्कार किया उन्हें ज़रूर अनक़रीब जहन्नुम की आग में झोंक देंगे (और जब उनकी खालें जल कर) जल जाएंगी तो हम उनके लिए दूसरी खालें बदल कर पैदा करे देंगे ताकि वह अच्छी तरह अज़ाब का मज़ा चखें बेशक ख़ुदा हरचीज़ पर ग़ालिब और हिकमत वाला है।” (4:56)
अगर जहन्नम के अज़ाब की वईदें रहमत न होतीं तो अल्लाह कुरआन में यह न फरमाता:
“फिर जब आसमान फट कर (क़यामत में) तेल की तरह लाल हो जाऐगा (37) तो तुम दोनों अपने परवरदिगार की किस किस नेअमत से मुकरोगे (38) तो उस दिन न तो किसी इन्सान से उसके गुनाह के बारे में पूछा जाएगा न किसी जिन से (39) तो तुम दोनों अपने मालिक की किस किस नेअमत को न मानोगे (40) गुनाहगार लोग तो अपने चेहरों ही से पहचान लिए जाएँगे तो पेशानी के पटटे और पाँव पकड़े (जहन्नुम में डाल दिये जाएँगे) (41) आख़िर तुम दोनों अपने परवरदिगार की किस किस नेअमत से इन्कार करोगे (42) (फिर उनसे कहा जाएगा) यही वह जहन्नुम है जिसे गुनाहगार लोग झुठलाया करते थे (43) ये लोग दोज़ख़ और हद दरजा खौलते हुए पानी के दरमियान (बेक़रार दौड़ते) चक्कर लगाते फिरेंगे (44) तो तुम दोनों अपने परवरदिगार की किस किस नेअमत को न मानोगे।(45)” (55: 37-45)
नेकी और बदी दोनों की हमारी सलाहियत उस इख्तियार पर निर्भर है जो अल्लाह ने हमें अता की है। इख्तियार के बिना हमारी हैसियत नेकी और बदी के इख्तियार से महरूम जानवरों जैसी होती और हम अपनी जिबिल्लत के अनुसार जीवन व्यतीत करते। ऐसी स्थिति में जन्नत और जहन्नम की कोई आवश्यकता ही नहीं होती। इसलिए सवाल यह है कि:
क्या अल्लाह आदम की तखलीक करने और अपनी तमाम मख्लुकात पर बनी आदम को फजीलत देने में ना हक़ पर था?
अगर जहन्नम कम तकलीफ देने वाला होता तो जन्नत भी कम नेमतों और राहतों वाली होती और नेकी और बदी की हमारी सलाहियत को कम करने के लिए हमारे इख्तियारात सुल्ब कर लिए गए होते। अल्लाह ने कायनात में एक बेमिसाल संतुलन कायम किया है। जहन्नम की तखलीक में हिकमत और रहमते इलाहिया दोनों कारफरमा हैं कि जिसके बिना न तो जन्नत होती और न ही अपना रास्ता चुनने की हमारी आज़ादी। तो तुम अपने परवरदिगार की कौन कौन सी नेमत झुटलाओगे?
---------------
English
Article: The Importance of Understanding Correctly, the
Attributes of Allah – Divine Will, Justice and Mercy – Part One
New Age Islam, Islam Online, Islamic Website, African Muslim News, Arab World News, South Asia News, Indian Muslim News, World Muslim News, Women in Islam, Islamic Feminism, Arab Women, Women In Arab, Islamophobia in America, Muslim Women in West, Islam Women and Feminism