मुस्तफा अक्योल
31 मई 2014
जब आप ये लेख पढ़ रहे होंगे तब मरियम यह्या इब्राहीम नाम की एक 27 वर्षीय महिला सूडान में मौत का इंतेज़ार कर रही होगी। 15 मई को सूडान की एक अदालत ने इस महिला को 'स्वधर्म त्याग' का दोषी पाया और अदालत ने मौत की सज़ा सुनाई है। दूसरे शब्दों में इस महिला का "अपराध" केवल ये है कि इसने इस्लाम धर्म छोड़कर ईसाई धर्म को अपना लिया है।
हालांकि अदालत ने उसे सिर्फ तीन दिन की मोहलत दी है ताकि वो "प्रायश्चित" कर सके, लेकिन वो अभी भी जीवित हैं क्योंकि वो गर्भवती थी और हाल ही में उसने अपने बच्चे को जन्म दिया है। इसलिए अदालत ने दो साल और उसे जेल में जीवित रखने की इजाज़त देने का फैसला किया है ताकि वो अपने बच्चे को दूध पिला सके। 20 महीने का उसका दूसरा बच्चा पहले से ही उसके साथ जेल में है। वो दो साल बाद अपनी मां की मौत की सज़ा के वक्त इस सदमें को बर्दाश्त करने के लिए काफी बड़ा हो चुका होगा। इस बीच उसका पति गहरी निराशा और और दुख में कोर्ट और जेल के चक्कर काट रहा है।
संक्षेप में मरियम इब्राहीम और उनके परिवार के साथ जो भी हो रहा है वो मानवाधिकारों का क्रूर, अपमानजनक और ज़बरदस्त उल्लंघन है। दुर्भाग्य से सूडानी अधिकारी और कुछ समान विचार वाले मुसलमान दोनों उसे न्याय समझ रहे हैं इसलिए कि उनका इस बात पर दृढ़ विश्वास है कि सभी "मुर्तदों (स्वधर्म त्याग करने वालो)" को बिना संदेह के मौत की सज़ा दी जानी चाहिए।
हालांकि एक मुसलमान होने के नाते मैं खुद अपने ऐसे दूसरे मुसलमान भाइयों के साथ हूँ जो स्वधर्म त्याग पर प्रतिबंध का विरोध करते हैं और इसे धार्मिक स्वतंत्रता पर हमला और खुद इस्लाम की तौहीन समझते हैं।
इसकी पहली वजह सामान्य सूझबूझ हैः कोई भी धर्म अपने बारे में कैसे महान और उचित होने का दावा कर सकता है जो अपने मानने वालों को मौत की धमकी के साथ मानने वालों को अपने साथ रखने की कोशिश करता है? हम कैसे ये उम्मीद कर सकते हैं कि ये धमकी मुर्तद बनने जा रहे इंसान को अच्छा मुसलमान बना सकती है? इसके बजाय उनके लिए मुनाफिक (कपटी) हो जाना बेहतर नहीं होगा जो केवल भय के कारण अपना कुफ्र छिपाते हैं?
दूसरा कारण ये है कि इस्लामी कानून (शरीयत) में वास्तव में स्वधर्म त्याग पर प्रतिबंध है लेकिन कुरान (जो एकमात्र ऐसा स्रोत है जिस पर कोई विवाद नहीं है) में इसका कोई आधार नहीं है। क़ुरान की किसी भी आयत में ये नहीं कहा गया है कि जो लोग मुर्तद हो जाएं उन्हें मौत के घाट उतार दिया जाए। इसके विपरीत कुरानी आयतों में पूरी तरह से धार्मिक स्वतंत्रता दी गई है, जैसे ये आयतः "धर्म में ज़बरदस्ती की कोई गुंजाइश नहीं है।" (2: 256)
लेकिन बाद में इस्लामी कानून ने धीरे धीरे "कोई मजबूरी नही" के सिद्धांत के दायरे को सीमित कर दिया। (यही वजह है कि आज कुरान के कुछ अनुवादक उपरोक्त आयत के अनुवाद को कोष्ठक के माध्यम से 'संपादित' कर देते हैं, "धर्म [स्वीकार] करने में कोई ज़बरदस्ती नहीं है।" इसका मतलब ये है कि आप इस्लाम स्वीकार करने या अस्वीकार करने में स्वतंत्र हैं। लेकिन एक बार जब आप मुसलमान हो गए यद्यपि जन्मजात ही सही लेकिन आपको इस्लाम छोड़ने की इजाज़त नहीं है)
जैसा कि मैंने अपनी किताब ''Islam without Extremes: A Muslim Case for Liberty'' में ''Freedom from Islam'' शीर्षक के तहत इस बात का खुलासा किया है कि इस्लाम में स्वधर्म त्याग पर प्रतिबंध का मामला राजनीतिक ज़रूरतों को पूरा करने के लिए सामने आया। मध्ययुगीन विद्वानों के अनुसार मुर्तद एक गद्दार था जो संभवतः दुश्मन की सेना में शामिल हो सकता था। इस्लामी साम्राज्यों के लिए ऐसा व्यक्ति मुर्तद था जिसके विचार सार्वजनिक व्यवस्था और राज्य के शासक के लिए हानिकारक लगें।
लेकिन अब हम एक ऐसी दुनिया में रहते हैं जहां धार्मिक स्वतंत्रता एक मानदण्ड बन गया है। आज जो अपना धर्म परिवर्तन करता है वो देशद्रोह नहीं करता है बल्कि वो अपने बुनियादी मानवाधिकार का उपयोग करता है।
जो लोग सूडान, सऊदी अरब और ईरान या कहीं और शरीयत लागू करने का दावा करते हैं उन्हें इस वास्विकता की समीक्षा करनी चाहिए और क़ानून की पुनर्व्याख्या करनी चाहिए और मासूम लोगों की हत्या बंद करनी चाहिए। वो इस एहसास के साथ शुरुआत कर सकते हैं कि इस्लाम को जो नुकसान उनसे हो रहा है, वो उसकी तुलना में कहीं अधिक है जो एक मुर्तद संभवतः इस्लाम को पहुंचा सकता है।
स्रोत: http://www.hurriyetdailynews.com/islams-apostasy-problem.aspx?pageID=449&nID=67209&NewsCatID=411
URL for English article: https://newageislam.com/islamic-society/islam’s-apostasy-problem/d/87281
URL for Urdu article: https://newageislam.com/urdu-section/islam’s-apostasy-problem-/d/98088
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