मुस्तफा अक्योल
12 जुलाई 2014
उपरोक्त शीर्षक कुछ पाठकों को मूर्खतापूर्ण लग सकता है। इसलिए कि अगर हम इसका मतलब चौदह सदियों के मुस्लिम अनुभव को लें तो खिलाफत (या मोहम्मद सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम के "उत्तराधिकारी") निश्चित रूप से एक "इस्लामी" प्रणाली है। पहले खलीफा अबु बकर के बाद से मुसलमानों के बहुमत ने 1924 में तुर्की गणराज्य के द्वारा इसके उन्मूलन तक खिलाफत को अपने धर्म का एक अभिन्न अंग माना है।
जबकि अब मुसलमानों का वही भारी बहुमत आज कुख्यात ISIS ('इस्लामिक स्टेट ऑफ इराक और सीरिया' या केवल IS) द्वारा स्वयंभू "खिलाफत" को तिरस्कार की नज़रों से देखता है। ISIS अलक़ायदा के लिए भी खतरनाक और हिंसक है और जो कि खुद ज़्यादातर मुसलमानों के लिए बहुत क्रूर और हिंसक है।
इसके बावजूद मैं एक कदम और आगे बढ़ते हुए मुसलमानों से ये पूछना चाहता हूं कि क्या मुसलमानों का कोई खलीफा होना चाहिए या उनका धर्म वास्तव में उनसे ये अपेक्षा करता है?
जब हम इस दृष्टिकोण से इस मुद्दे पर सवाल करते हैं तो हमें बड़ी दिलचस्प बातें मालूम होंती है: इस्लाम के आधार कुरान में किसी भी 'खलीफा' का कोई संदर्भ नहीं है। कुरान में ये शब्द एक बिल्कुल ही अलग अर्थ में मौजूद हैः कुरान की दूसरी सूरे और आयत 30 में आदम को पैदा करने से ठीक पहले अल्लाह अपने फरिश्तों से कहता है मैं धरती पर अपना "खलीफा" पैदा करुँगा। इस शब्द का अनुवाद अक्सर लोगों ने "नायब" किया है और इसकी व्याख्या मनुष्यों को दी गयी स्वतंत्र इच्छा की नेमत के रूप में किया गया है। इस अर्थ में सभी इंसान "खलीफा" हैं, वो अपनी मर्ज़ी के मुताबिक़ अमल करने की खुदा की दी हुई क्षमता के मालिक हैं।
जब हम नबी सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम की परम्परा या "सुन्नतों" पर नज़र डालते हैं तो हमें खिलाफत के राजनीतिक संस्था के रूप में कोई स्पष्ट आधार नहीं मिलते। अपनी जीवनकाल में पैग़म्बर सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम खुद समुदाय के प्रमुख थे लेकिन उन्होंने अपने बाद के लिए किसी स्पष्ट मार्ग को परिभाषित नहीं किया। आप सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम के प्रसिद्ध "आखरी धर्मोपदेश" में तीन बातों का उल्लेख है जिसमें उन्होंने कहा कि मैं अपने पीछे तीन चीज़े छोड़ रहा हूँ: कुरान, सुन्नत और पैगम्बर के अहले बैत ।
एक व्यवस्था के रूप में खिलाफत की स्थापना उस समय हुई जब कुरान पूरा हो गया और नबी सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम इस नश्वर दुनिया से पर्दा कर गये। नई वही और इसके सबसे ज़्यादा प्रामाणिक विवेचक की अनुपस्थिति में मुस्लिम समुदाय के बुजुर्गों ने सलाह की, कि अब क्या किया जाए और उन्होंने अपने बीच में से ही किसी एक को नबी सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम का "उत्तराधिकारी" नामित करने का फैसला किया। जब उनकी मृत्यु हो गई तो एक नया खलीफा चुना गया।
सुन्नी मुसलमानों का मानना है कि पहले चार ख़लीफ़ा अबु बकर, उमर, उस्मान और अली रज़ियल्लाहू अन्हा ''राशिदीन'' थे, इसके बाद पारिवार हुकूमत का दौर आया जिसने खिलाफत की व्यवस्था को बर्बाद कर दिया और और ये ताकत का केन्द्र बन गया। और ये काफी हद तक सच भी है। लेकिन लोगों को ये भी समझना चाहिए था कि पहले चार ख़लीफ़ाओं के दौर भी इस्लाम के एक धर्म के रूप में नहीं बल्कि "ऐतिहासिक इस्लाम" का एक हिस्सा थे।
दूसरे शब्दों में जैसा कि एक सदी पहले मशहूर विद्वान तुर्की के सैयद बे और मिस्र के अली अब्दुल अलरज़ाक़ ने समझाने के अंदाज़ में दलील दी कि खिलाफत की व्यवस्था इस्लाम का अभिन्न हिस्सा नहीं है जिस तरह पापाईत की व्यवस्था ईसाई कैथोलिक धर्म में है। ये एक राजनीतिक संस्था रही है कोई धार्मिक संस्था नहीं और हमेशी इसकी तारीफ नहीं की गयी है और जैसा कि कई भ्रष्ट, अत्याचारी और पापी ख़लीफ़ा ने सिद्ध किया है। "धरती पर खुदा का नायब होने का" उनका महत्वकांक्षी दावा निरर्थक होने के अलावा कुछ भी नहीं है।
बेशक दुनिया के लगभग 1.2 अरब मुसलमान किसी दिन प्रतिनिधित्व और जवाबदेही की लोकतांत्रिक प्रक्रिया पर आधारित खिलाफत के पुनर्गठन का फैसला कर सकते हैं। लेकिन ये भी खिलाफत की स्थापना के निर्णय की ही तरह एक ऐतिहासिक फैसला होगा। जबकि अगर कोई मुसलमान किसी खलीफा या किसी अन्य नेता के बिना कदम आगे बढ़ाए तो ये ठीक होगा।
स्रोत: http://www.hurriyetdailynews.com/how-islamic-is-the-caliphate-.aspx?pageID=449&nID=69014&NewsCatID=411
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