वर्षा शर्मा, न्यु एज इस्लाम
4 दिसम्बर, 2013
इस्लाम के आगमन से पूर्व दुनिया भर के कई समाजों में महिलाओं को महत्वहीन समझा जाता था। दरसल महिलाओ को पुरुषो के समान अधिकार पाने में सादिया लग गयीं। किन्तु पूर्ण लैंगिग समानता के लिए संघर्ष अभी खत्म नहीं हुआ।
इस संघर्ष में वयस्त कई लोग महिला अधिकार की राह में इस्लाम को सबसे बड़ी बाधा मानते हैं। लेकिन जब हम कुरान से संपर्क करते हैं तो यह स्थिति प्रतीत नहीं होती। पारंपरिक सामाजिक व्यवस्था में गुथे हुए रूढ़िवादी रीतिरिवाज़ महिलाओं की गरिमा के कुरानी अवधारणा से मेल नहीं रखतें।
क़ुरान कहता है: 'ऐ लोगों! अपने ईश्वर से डरो , जिसने तुमको एक जीव से पैदा किया और उसी जाति का उसके लिए जोड़ा पैदा किया और उन दोनों से बहुत-से पुरुष और स्त्रियाँ फैला दी। ईश्वर का डर रखो, जिसका वास्ता देकर तुम एक-दूसरे के सामने माँगें रखते हो। और नाते-रिश्तों का भी तुम्हें ख़याल रखना हैं। निश्चय ही ईश्वर तुम्हारी निगरानी कर रहा हैं' ( कुरान 4: 1 ) .
यह आयत स्पष्ट रूप से सिद्ध करती है कि इस्लाम में पुरुष और महिला एक दूसरे के बराबर हैं और महिला अपने निर्माण, संबंध और परमेश्वर संबंधी दायित्वों में आंतरिक तथा बाहरी दोनों दृष्टि से बराबर हैं।
इस्लाम से पूर्व अरब में माता पिता अक्सर अपनी बच्चियों को ज़मीन में ज़िंदा दफन कर देते थे क्योंकि वह बेटी के जन्म को परिवार के लिए बुरा शगुन मानते थे। कुरान बेटी के जन्म पर शर्मिंदगी की भावना की निंदा करते हुए ऐसा करने वालों के बारे में कहता है:
"और जब उनमें से किसी को बेटी की शुभ सूचना मिलती है तो उसके चहरे पर कलौंस छा जाती है और वह घुटा-घुटा रहता है जो शुभ सूचना उसे दी गई वह (उसकी दृष्टि में) ऐसी बुराई की बात हुई जिसके कारण वह लोगों से छिपता फिरता है कि अपमान सहन करके उसे रहने दे या उसे मिट्टी में दबा दे। देखो, कितना बुरा फ़ैसला है जो वे करते है!"( कुरान 16: 58-59) .
इस्लाम की शुरुआत के चौदह सौ साल बाद समृद्धि, विकास, शिक्षा और आत्मज्ञान के बावजूद अक्सर दुनिया में विशेष रूप से दक्षिण एशिया के कुछ हिस्सों में बेटी के जन्म के साथ कलंक शब्द हमें अभी भी जुड़ा दिखता है। एक ऐसे समाज में जहां घर की लगभग सभी आर्थिक जिम्मेदारी पुरुष उठाता है वहाँ आम तौर पर बेटे का जन्म अधिक उत्सव का कारण होता है।
हालांकि बेहतर शिक्षा और रोजगार के परिणामस्वरूप महिला सशक्तिकरण के सामाजिक ढांचे को बदलने की कोशिश जारी है लेकिन अभी हमें कुरान में बताई गई लैंगिक समानता के स्तर तक पहुँचने के लिए बहुत कुछ करने की ज़रुरत है। जबरन शादी, सम्मान के नाम पर हत्या और संस्कृति, परंपरा या सामाजिक रूढ़ियों के नाम पर महिला को घर की चारदीवारी तक सीमित रखने का इस्लाम से कोई सम्बन्ध नहीं।
राजनैतिक तथा धार्मिक नेताओं को पारंपरिक रूप से कुछ अधिक रूढ़िवादी मुस्लिम समाज जैसे पाकिस्तान के आदिवासी इलाकों में महिलाओं की स्थिति और अधिकारों के बारे में कुरान के दृष्टिकोण और आदेश के अनुसार काम करना चाहिए।
यूरोप में महिलाओं को विरासत का अधिकार मिलने से बारह सौ साल से भी पहले इस्लाम ने महिलाओं को अधिकार प्रदान कर दिए थे . "पुरुषों का उस माल में एक हिस्सा है जो माँ-बाप और नातेदारों ने छोड़ा हो; और स्त्रियों का भी उस माल में एक हिस्सा है जो माल माँ-बाप और नातेदारों ने छोड़ा हो -चाहे वह थोड़ा हो या अधिक हो - यह हिस्सा निश्चित किया हुआ है"( कुरान 4:7 )
महिलाओं के अधिकारों और जिम्मेदारियों का सम्मान करने के लिए और समाज के विकास में अपनी भूमिका को समझने के लिए हमें अपने आप को शिक्षित करना चाहिए। इसीलिए इस्लाम ने शिक्षा और जानकारी प्राप्त करना हर आदमी और औरत पर अनिवार्य बताया। क्योंकि शिक्षा ही इस बदलाव को लाने में कारगर साबित हो सकती है। इसलिए कुरान में अल्लाह ने फरमाया है:
"क्या वे लोग जो जानते है और वे लोग जो नहीं जानते दोनों समान होंगे? शिक्षा तो बुद्धि और समझवाले ही ग्रहण करते है।" (39:9).
इस्लाम की शिक्षाओं को रूढ़िवादी संस्कृतियों और रिवाजों पर प्राथमिकता मिलनी चाहिए जो मुस्लिम समाज में महिला के निर्माण तथा भूमिका के खिलाफ पक्षपात से भरी होती हैं। दुर्भाग्यवश, यह भेदभाव इस धर्म के नाम पर मौजूद है जिसने महिलाओं को इससे कहीं अधिक अधिकार प्रदान किए हैं जितना यह सामाजिक ढांचे स्वीकार करने पर सहमत हैं।
महिलाओं को सशक्त बनाने के लिए कुरान की अवधारणा से मेल खाती हुई हर ऐसी कोशिश जो कानून के सामने महिला के स्थान को सिद्ध करे, का समर्थन किया जाना चाहिए। जो लोग महिलाओं को यह अधिकार देने से इनकार करते हैं उनसे हम पूछते हैं: क्या वे क़ुरआन में सोच-विचार नहीं करते?
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