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Hindi Section ( 3 Oct 2012, NewAgeIslam.Com)

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Muslim Responses to Interreligious Dialogue अंतरधार्मिक संवाद पर मुसलमानों की प्रतिक्रिया

 

डॉक्टर अदिस दुदरीजा, न्यु एज इस्लाम

1 अक्टूबर, 2012

(अंग्रेजी से अनुवाद- समीउर रहमान, न्यु एज इस्लाम)

1- संवाद (अंतरधार्मिक) की प्रकृति

शब्दों की व्युपत्ति शास्त्र के अनुसार शब्द डायलाग या संवाद, यूनानी भाषा से आया है जिसका अर्थ बातचीत या संवाद के द्वारा एक दूसरे को समझने से है। जैसा कि शब्द की व्युत्पत्ति इसके अर्थ की ओर संकेत करती है कि "संवाद" अर्थपूर्ण चर्चा द्वारा दूसरे के बारे में गहरी समझ को प्राप्त करने की प्रक्रिया को कहा जाता है। संवाद की प्रकृति कई सिद्धांतों पर आधारित होती है जो उसे अद्वितीय बनाती है और इस तरह संवाद के अन्य प्रकार जैसे बहस, वार्ता या खंडन इसको अलग बनाते हैं। जब दो लोग संवाद में व्यस्त होते हैं वो आपसी जांच प्रक्रिया द्वारा एक आम अर्थ की तलाश की शुरुआत करते हैं और सहयोग की इस प्रक्रिया में दूसरे के बारे में किसी भी पहले से स्थापित मान्यता को निलंबित करते हैं। संवाद अपनी प्रकृति के अनुसार हमेशा विकासात्मक, रचनात्मक और सतत जारी रहने वाली प्रक्रिया है और प्रतिभागियों के इस विचार के साथ कि ये कल्पना अस्थायी होती है और इसमें कभी भी संशोधन किया जा सकता है। संवाद के माध्यम से इसके प्रतिभागी मानवता, निजी प्रतिष्ठा और दूसरे के अंतर के लिए सहानुभूति और बढ़ती संवेदनशीलता के उद्देश्य और अन्य लोगों की गहरी समझ (और इस तरह खुद की समझ) के लिए बौद्धिक रूप से अतिसंवेदनशील  हो जाते हैं। ये संवाद की प्रक्रिया में व्यस्त होने वालों के दिल (और जरूरी नहीं कि दिमाग) को करीब लाने का एक अमल है। जैसा कि मार्टिन ब्युबर इसको इस तरह से पेश करते हैं, "वास्तविक संवाद मानव स्वभाव के एक महत्वपूर्ण पहलू को व्यक्त करते हैं, जब हम सच्चाई के साथ एक दूसरे को सुनते और उत्तर देते हैं, तो ये आपस में एक संबंध बनाता है"। जो लोग संवाद में शामिल होते हैं, आत्मनिरीक्षण और आत्म-आलोचना की इच्छा ऐसे लोगों की आवश्यक घटकों में शामिल होती है। अर्थपूर्ण वार्तालाप के लिए इसके प्रतिभागियों में आपसी विश्वास पैदा करना आवश्यक है, निष्ठा और ईमानदारी के साथ संवाद की प्रक्रिया स्थापित करनी चाहिए। संवाद का यह प्रकार भी अंतरधार्मिक संवाद पर भी लागू होता है। अंतरधार्मिक संवाद में ख़ास बात ये है कि ये वैचारिक सहमति या परिवर्तन की तलाश नहीं करता है लेकिन दूसरे के बारे में बेहतर समझ प्राप्त करने और उन लोगों के लिए जो विभिन्न धार्मिक परंपराओं से संबंधित हैं उनके लिए सम्मान स्थापित करने और अपने विश्वास को और बेहतर बनाने की प्रक्रिया है। अर्थपूर्ण अंतरधार्मिक संवाद भी 'प्रतिभागियों की अपनी धार्मिक परंपरा में से प्रत्येक के बहुमुखी, जटिल और मतभेद वाली प्रकृति को सामने लाता है और बेसुरेपन और अक्सर हाशिए पर पहुंच चुकी आवाज़ों की भी अनदेखी नहीं करता है, जो किसी धार्मिक परंपरा की अपनी पहचान होती हैं।

अंतरधार्मिक संवाद की चुनौतियों में से एक ये है कि धर्म से प्रभावित हिंसा, विवादों और पीड़ा के इतिहास को स्वीकार करना और उनका प्रभावी रूप से सामना करना और धार्मिक अन्य उनसे जो तकलीफ महसूस किए होंगे, उन्हें भी इसमें शामिल करना है। उतनी ही महत्वपूर्ण बात ये है कि अंतरधार्मिक संवाद भी अतीत से विरासत में मिले सद्भाव के सकारात्मक उदाहरणों पर प्रकाश डालता है। महत्वपूर्ण बात ये है कि अंतरधार्मिक संवाद एक्शन और समुदाय पर आधारित एक चर्चा है जो केवल धार्मिक लोगों या विद्वानों और कुलीन वर्ग तक सीमित नहीं है बल्कि इसमें पूरे धार्मिक वर्ग को शामिल किया जाता है। ये बात आज के एकीकृत, बहुसांस्कृतिक दुनिया के बारे में भी सही है कि जिसमें विभिन्न धार्मिक परंपराओं के मानने वाले विभिन्न स्थितियों में एक बड़ी संख्या में अक्सर सामने आते हैं।

2- अंतरधार्मिक संवाद पर मुसलमानों की प्रतिक्रिया

ये समझने के लिए कि मुसलमान किस तरह अंतरधार्मिक संवाद को लेते (और अब भी लेते हैं) थे, इसके अलावा पवित्र ग्रंथों के स्रोतो की जांच और उन स्थितियों के संदर्भ जिनमें इस्लाम का ज़हूर (आविर्भाव) हुआ, उनके बारे में बहुत कुछ कहे जाने की जरूरत है। जैसा कि कुरान में स्पष्ट रूप से 7वीं शताब्दी के अरब में हज़रत मोहम्मद सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम के संदेश के ज़ाहिर होने के संदर्भ का उल्लेख है वो इस तरह कि इसका ज़हूर पहले से ही अच्छी तरह से स्थापित अन्य धार्मिक वर्गों के साथ हुआ, और इनमें सबसे महत्वपूर्ण कुरान से पूर्व के अरब के विश्वासों के अलावा यहूदी, हनीफिया (हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम की आस्था के आधार पर अरब का तौहीदी धर्म) और ईसाई थे।

इस संदर्भ में इस बात पर विचार करना महत्वपूर्ण है कि वही के नाज़िल होने की अवधि के दौरान मुसलमानों और गैर मुसलमानों के बीच संबंधों की प्रकृति और कई घटनाओं के बारे में कुरान ने स्पष्ट रूप से कहा है। यहां ये उल्लेख करना आवश्यक है कि धार्मिक अन्य के प्रति कुरान व्यवहार (और इस वजह से मोहम्मद सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम का व्यवहार) प्रकृति के आधार पर बहुत प्रासंगिक है और इस तरह अगर उभयभावी नहीं था तो संदर्भ पर निर्भर करने वाला था। अन्य विश्वासों, विशेष रूप से यहूदी और ईसाई धर्म (जिसके मानने वालों को कुरान ने अहले किताब के रूप में उल्लेख किया है) की धार्मिक पहचान की निरंतरता और समानता के पहलू, मुस्लिम पहचान की असलियत और भेदभाव के साथ आपस में गुंथे हुए हैं। और इसके अलावा कुरान में कई आयात (उदाहरण के लिए 22:17;5:69;2:62) हैं जिनमें अहले किताब को सकारात्मक अंदाज में पेश किया गया है जबकि कुछ आयात ऐसी हैं जिनमें अहले किताब को उनके कुछ विश्वासों और ज़ालिम तरीकों जैसे हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम की दिव्य प्रकृति (जिसे मुसलमान शिर्क या शिर्क की एक किस्म मानते हैं),  वही के पिछले पाठ के अर्थ का विरूपण (जिसे एहराफ कहा जाता है) या खुदा के पिछले पैग़म्बरों की हत्या के बारे में कड़ी आलोचना की गई है। जैसा कि हदीस साहित्य में दिया गया है कि नबी करीम सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम के धार्मिक अन्य के प्रति रवैय्या कुरान के संदर्भ और धार्मिक अन्य के बारे में उभयभावों को दर्शाता है। लेकिन, कुरान न्यायपूर्ण और ईमानदार धार्मिक अन्य के साथ बातचीत की सुंदरता और महत्व पर सुस्पष्ट है, जो निम्नलिखित आयतों में स्पष्ट है:

"फिर अगर इससे भी मुंह फेरें तो (कुछ) परवाह (नहीं) ख़ुदा फ़सादी लोगों को खूब जानता है (ऐ रसूल) तुम (उनसे) कहो कि ऐ अहले किताब तुम ऐसी (ठिकाने की) बात पर तो आओ जो हमारे और तुम्हारे दरमियान यकसॉ है कि खुदा के सिवा किसी की इबादत न करें और किसी चीज़ को उसका शरीक न बनाएं और ख़ुदा के सिवा हममें से कोई किसी को अपना परवरदिगार न बनाए अगर इससे भी मुंह मोडें तो तुम गवाह रहना हम (ख़ुदा के) फ़रमाबरदार हैं"(3:64)

"(ऐ रसूल) तुम (लोगों को) अपने परवरदिगार की राह पर हिकमत और अच्छी अच्छी नसीहत के ज़रिए से बुलाओ और बहस व मुबाशा करो भी तो इस तरीक़े से जो लोगों के नज़दीक सबसे अच्छा हो इसमें शक़ नहीं कि जो लोग ख़ुदा की राह से भटक गए उनको तुम्हारा परवरदिगार खूब जानता है "(16:125)

और (ऐ ईमानदारों) अहले किताब से मनाज़िरा न किया करो मगर उमदा और शाएस्ता अलफाज़ व उनवान से लेकिन उनमें से जिन लोगों ने तुम पर ज़ुल्म किया (उनके साथ रिआयत न करो) और साफ साफ कह दो कि जो किताब हम पर नाज़िल हुई और जो किताब तुम पर नाज़िल हुई है हम तो सब पर ईमान ला चुके और हमारा माबूद और तुम्हारा माबूद एक ही है और हम उसी के फरमाबरदार है"(29:46)

अंतरधार्मिक संवाद पर इस्लामी दृष्टिकोण का इतिहास, विशेष रूप से ईसाई धर्म के साथ उल्लेखनीय रूप से उपरोक्त में चर्चा किए गए पवित्र ग्रंथ के संदर्भ वाली प्रकृति और पवित्र ग्रंथ के बाहर के तत्व दोनों पर आधारित है। जिसका उल्लेख बाद में किया गया, उसके बारे में इस बात को ध्यान में रखना ज़रूरी है कि मध्यकाल की पूरी अवधि में इस्लामी और लातिनी (और बैज़न्तिनी) ईसाई संस्कृतियों के बीच सम्बंध दो राजनीतिक और सैन्य शक्ति के संदर्भ में था जो स्थायी रूप से राजनीतिक विवादों और युद्ध में लगे हुए थे। वार्डेन बर्ग (2003) ने कहा है कि दोनों सभ्यताएं अपने ज्ञान की रोशनी में अंधी थी, और अपने सबसे बड़े दुश्मन के तौर पर इन लोगों ने धार्मिक अन्य के बारे में विरूपित विचारों की स्थापना की। मुसलमानों के पवित्र ग्रंथ के कम अनुकूल और अधिक प्रतिक्रियावादी तत्वों का उल्लेख इन लोगों ने किया जबकि इसके नरम और सौहार्दपूर्ण हिस्से को हाशिए पर डाल दिया, विशेष रूप से इस अवधि में ईसाईयों और बाइबल पर इस्लामी साहित्य में विवादात्मक समझौतों का बहुल था जो कभी कभी ईसाइयों और उनके विश्वासों में से कुछ जैसे तहरीफ और शिर्क के आरोप (Erdmann, 1930, Waardenburg, 1999) को कड़े खंडन के अंदाज में लिखा गया था। मामले की ये हालत लगभग पिछले इतिहास (20 वीं सदी के दूसरे आधे हिस्से) तक बरक़रार रही, लेकिन जब संवाद पर कुरान के जोर देने को गंभीरता से एम. अय्यूब, इब्राहीम कालेन और फरीद इस्हाक़ जैसे मुस्लिम विद्वानों ने लिया, तो स्थिति में परिवर्तन की शुरुआत हुई। इस संबंध में एक महत्वपूर्ण मामला, ए कामन वर्ड (A Common Word) '(Volf, bin Ghazi and Yerington 2010) के  नाम से मुस्लिम विद्वानों की एक प्रगति थी। जिनका आधार मुसलमानों और ईसाइयों के बीच पवित्र ग्रंथ के अनुसार खुदा से प्यार और शांतिपूर्ण सहअस्तित्व के लिए अपने पड़ोसी से प्रेम और इसके जैसे समान विश्वासों पर जोर देने का था। इस प्रयास को महत्वपूर्ण स्वीकृति मिली और उसके बाद से कई अंतरधार्मिक संवाद की गतिविधियों के लिए इसने एक संदर्भ के रूप में सेवा दी।

संदर्भ ग्रंथ सूचिः

Ayoub, Mahmoud A Muslim View of Christianity: Essays on Dialogue. Edited by Irfan A. Omar Faith Meets Faith Series. (Maryknoll, NY: Orbis Books, 2007).

Accad, Martin, “The Gospels in the Muslim Discourse from the Ninth to the Fourteenth Centuries: An Exegetical Inventorial Table “, Islam and Christian-Muslim Relations, 14, (2003): 67-91.

  El-Ansary, Waleed and David K.Linnan (ed.), Muslim and Christian understanding: theory and application of "A Common Word”, (Palgrave Macmillan, 2010).

Erdmann, Fritsch Islam und Christentum im Mittelalter :Beitraege zur Geschichte der muslimischen Polemik gegan das Christentum in der arabischen Sprache, ( Berslau: Mueller und Seiffert, 1930)

Esack, Farid. Qur’an, Liberation and Pluralism: An Islamic perspective of interreligious Solidarity Against Oppression, (Oneworld: Oxford, 1997).

Lazarus-Yafeh, Hava “Some Neglected Aspects of Medieval Muslim Polemics against Christianity”, The Harvard Theological Review, 89 (1996): 61-84.

Thomas, David, “The Bible in Early Muslim Anti-Christian Polemic”, Islam and Christian Muslim Relations, 7 (1996): 29-38.

Volf, Miroslav, Ghazi bin Muhammad, and Melissa Yerington, eds., A Common Word: Muslims and Christians on Loving God and Neighbor, 2010.

Waardenburg , Jaque (ed.) ,Muslim Perceptions of Other Religions: A Historical Survey, (Oxford: Oxford  University Press,1999), Muslims and Others – Relations in Context ,( Berlin: Walter de Gruyter, 2003).

डॉक्टर अदिस दुदरीजा मेलबर्न विश्वविद्यालय के इस्लामिक साइंसेज़ विभाग में रिसर्च एसोसिएट हैं और वो न्यु एज इस्लाम के लिए नियमित रूप से कॉलम लिखते हैं।

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