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Hindi Section ( 15 Jun 2018, NewAgeIslam.Com)

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Is Violence the Only Way Out क्या हिंसा ही अंतिम रास्ता है?

 

 

 

मुश्ताकुल हक़ अहमद सिकंदर, न्यू एज इस्लाम

8 मई 2018

पिछले एक दहाई के दौरान कश्मीर में प्रतिरोध के एक आला कार के तौर पर बन्दुक के इस्तेमाल की परंपरा को एक नया रुझान हासिल हुआ हैl प्रतिरोध के एक सक्रीय काम करने के तरीके के तौर पर बंदूक का इस्तेमाल साम्राज्य विरोधी विभिन्न संघर्ष का हिस्सा रहा हैl हिंसा मानव इतिहास का एक आवश्यक अंग हैl मर्किसिज्म सहित विभिन्न दृष्टिकोणों में हिंसा परिवर्तन का मूल कारण रहा हैl दूसरी तरफ इतिहास ने हिंसक संघर्ष की सीमित सफलताओं का भी मुशाहेदा किया हैl इसके अलावा अब रियासत, फ़ौज और लड़ाकों की प्रकृति भी बदल चुकी है और अब राज्य ने हिंसा के इस्तेमाल का अंतिम औचित्य हासिल कर लिया हैl रियासती और गैर रियासती तत्वों के जरिये हिंसा के इस्तेमाल के बारे में कानूनी बहस में उलझे बिना इस हकीकत को स्वीकार कर लिया जाना चाहिए कि कश्मीर में हिंदुस्तानी उग्रवादियों के खिलाफ प्रतिरोध के तरीके कार के तौर पर हिंसा को काफी लोकप्रियता हासिल हुई हैl

जम्मू व कश्मीर में बंदूक का इस्तेमाल कोई नई बात नहीं हैl राज्य और सरकार सहित विभिन्न जामातें और संगठन अपने उद्देश्य को हासिल करने के लिए इसका इस्तेमाल करती आ रही हैंl 1931 से ही सशस्त्र बागी जमातें कश्मीर की राजनीति का हिस्सा रही हैंl डोगरा सशस्त्र जमातों नें १९४७ में जब की पुरे उपमहाद्वीप भारत में आग लगी हुई थीl लगभग तीन हज़ार मुसलामानों को क़त्ल किया थाl 1947 से ले कर अब तक कई सशस्त्र संगठन हिंसा के इस्तेमाल से हुकूमत को ताखत और ताराज करने और अपने राजनीतिक उद्देश्यों को हासिल करने की कोशिश कर चुकी हैंl 1990 के दश्स्क तक यह गिरोह कुछ नवयुवकों तक ही सीमित थे और वह अपने मतलुबा नतीजे हासिल करने में नाकाम थेl लेकिन 1990 के बाद से यहाँ पाकिस्तान की मौजूदगी की वजह से नौजवानों की एक नस्ल इस सशस्त्र विद्रोह का हिस्सा बन चुकी थीl बड़े पैमाने पर सशस्त्र उग्रवाद का परिणाम क्रूर अत्याचार की सूरत में ज़ाहिर हुआ जिसकी वजह से आज कश्मीर दुनिया की सबसे बड़ी ऐसी रियासत बन चुकी है जहां फौजियों की मौजूदगी सबसे बड़े पैमाने पर हैl

हालांकि पाकिस्तान से सशस्त्र और आर्थिक सहायता प्राप्त यह सशस्त्र विद्रोह केवल अपने पहले चरण में वैचारिक दुविधा का शिकार रही है लेकिन सशस्त्र बागियों के बीच आज़ाद कश्मीर के दृष्टिकोण या इसके इस्लामी पाकिस्तान का हिस्सा बनने के हवाले से वैचारिक दुविधा का परिणाम विद्रोहियों के बीच आपसी जंग व जिदाल की सूरत में ज़ाहिर हुआl यह बगावत एक लम्बे समय तक जारी रही और सशस्त्र रियासती बागी गलत कामों में लिप्त रहेl इसके नतीजे में इंसानी हुकुक की खिलाफवर्जीयों में ज़बरदस्त इजाफा हुआ जिसकी वजह से कश्मीरी बाशिंदों ने रियासत (हिन्दुस्तान) से और दूरियाँ बना लींl

साल 2008 कश्मीर की समकालीन इतिहास में एक नया मोड़ साबित हुआl तथाकथित आबादयाती परिवर्तन और अपने विशेष और अलग पहचान पर हमले के खिलाफ आन्दोलन में हज़ारों नागरिक सदकों पर निकल आए थे इसलिए की यह सरजमीं श्री अमरनाथ श्राइन बोर्ड (SASB) को स्थानांतरित कर दी गई थीl इस शोरिश ने कश्मीर और जम्मुं के बीच एक साम्प्रदायिक और क्षेत्रीय बंटवारे की बुनियाद डाल दीबड़े पैमाने पर इस शोरिश के बाद वादी कश्मीर को जम्मू के हिंदुत्वा तत्वों की जानिब से साम्प्रदायिक झड़प और आर्थिक घेराव का सामना करना पड़ाl 2008 के अमरनाथ ज़मीन हंगामे के दौरान यह मामला काफी ज़ोरों पर था की कश्मीरी प्रतिरोध अब अहिंसक हो चुकी हैl मैंने यह कयास किया, लिखा और कहा कि ऐसा कोई मामला नहीं है क्योंकि उग्रवाद के उरूज के दौर में भी बड़े पैमाने पर अहिंसक अवामी विरोध प्रदर्शन किए गए थे जो कि बगावत नहीं थी, और हिंसक संघर्ष एक अहिंसक संघर्ष में परिवर्तित हो चुकी हैl इसलिए की हिंसक और अहिंसक दृष्टिकोण के लिए ऐसी शिक्षा व प्राशिक्षण की जरूरत होती है जो उसे बनाए रखे और उसके पायदार लक्ष्यों के प्राप्ति के लिए उसे अमली तहरीक में बदल सकेl

2010 की शोरिश के बाद कि जिसमें 130 नवयुवक हालाक हुए थेl बुरहान वाणी के उरूज से मेरा कयास और गुमान सहीह साबित हो गयाl लेकिन इस सशस्त्र बगावत का यह नया सिलसिला जिसमें या तो पाकिस्तान का दखल काफी सीमित है या बिलकुल ही नहीं है और पहले के मुकाबले में यह काफी घातक भी हैl लेकिन इस मंजर नामे में भी वैचारिक दुविधा ग़ालिब और बिलकुल स्पष्ट हैl इसका मुशाहेदा इस हकीकत की रौशनी में किया जा सकता है की उग्रवादियों के दो गिरोह बराबर असंगत लक्ष्यों के प्राप्ति के लिए आपस में ही बरसरे पैकार हैंl इस से पहले के उलट कि जब दुविधा ऐसे दो गिरोहों के बीच थी जिनमें से एक पाकिस्तान के साथ कश्मीर का इल्हाक चाहता था जबकि दुसरा गिरोह आज़ाद कश्मीर के लिए लड़ रहा थाl अब विचारों की लड़ाई उन गिरोहों के बीच है जिनमें एक पाकिस्तान के साथ कश्मीर का इल्हाक चाहता है जबकि दुसरा गिरोह यहाँ इस्लामी रियासत कायम करना चाहता हैl

अब इस्लामी रियासत का विचार कोई नया नहीं रहाl 1990 ई० में अक्सर पाकिस्तान नवाज़ उग्रवादी संगठनों ने पाकिस्तान के साथ कश्मीर के इलहाक के बाद अपना उद्देश्य इस्लामी रियासत कायम करना ज़ाहिर कर दिया हैl लेकिन 11/9 के घटनाओं ने उन संगठनों के विचार परिवर्तित कर दिया है और इस अचानक परिवर्तन के लिए पाकिस्तान की सरकारी नीति भी जिम्मेदार हैl आइएस आइएस और अलकायदा जैसी इस्लाम परस्त उग्रवादी तहरीकों के उरूज के बाद कश्मीर में इस्लामी रियासत कायम करने की बात एक बार फिर मरकजी हैसियत इख्तियार कर चुकी हैl और उसका नेतृत्व अंसार गजवतुल हिन्द नामी तहरीक कर रही है जिसकी कयादत ज़ाकिर मुसा कर रहा हैl जब दारुल कुफ्र करार देने की बात आती है तो यह भारत और पाकिस्तान दोनों को एक ही पल्ले में रखते हैंl वह हुकूमत हिन्द और उन दुसरे बागी गिरोहों के खिलाफ हिंसा का प्रदर्शन करते हैं जो पाकिस्तान के इशारे पर लड़ रहे हैं, हालांकि एक दुसरे की निंदा में प्रेस रिलीज़ जारी करने के अलावा उनके दरमियान दाखली तौर पर परस्पर मुठभेड़ की ऐसी कोई रिपोर्ट नहीं हैl

सोशल मीडिया ने जवानों की नई नस्ल को प्रभावित करने और उन्हें अतिवादी बनाने में एक मजबूत किरदार अदा किया हैl बागी और उनके हमदर्द हिंसा, मौत और शहादत को कदर की निगाह से देख रहे हैं और इससे लुत्फ़ अन्दोज़ हो रहे हैं, बावजूद इस हकीकत के की मुठभेड़ के एक आला कार के तौर पर हिंसा से काफी सीमित सफलता हासिल हुई हैl उन्हें खुश होने के बजाए हकीकत और अमली परिणाम की रौशनी में अपना विश्लेषण करना चाहिएl अधिकतर नौजवान तथ्यों को समझने से कासिर हैं क्योंकि वह जज्बाती बन चुके हैंl हिंसक मुठभेड़ के प्रति ज़बरदस्त हमदर्दी की अपनी वजूहात हैं जिनमें अवामी जगहों पर जरूरत से अधिक फ़ौज की मौजूदगी, इख्तिलाफ राय के प्रति असहिष्णुता और हर बात पर सशस्त्र प्रतिक्रिया भी शामिल हैl

मौत और हिंसा का बदतरीन सिलसिला टूटना जरुरी हैl इसकी शुरुआत हुकूमत से ही होती है जिसे अपनी सशस्त्र सेना पर लगाम कसने की जरुरत है इसलिए की कई बार नौजवान को बगावत पर भड़काने के लिए सशस्त्र सेना ही जिम्मेदार होती हैंl इसके बाद प्रतिरोध करने वाले नेताओं और सिविल सोसाइटी के ऊपर भी युवाओं को या समझाने की जिम्मेदारी आयद होती है की हिंसा के अलावा भी ऐसे सैंकड़ों तरीके और अभियान हैं जिनके जरिये वह दुनिया भर में अपनी आवाज़ पहुंचा सकते हैंl यह अहिंसक तरीके सभ्य प्रतिरोध का एक हिस्सा हैं जो विभिन्न मामलों और समाजी से लेकर सियासी तक विभिन्न संघर्षों में सफल साबित हो चुके हैंl लेकिन इन तरीकों के साथ युवाओं तक पहुच हासिल करना एक ऐसा काम है जिसके लिए काफी पसीना बहाने और सब्र व तहम्मुल को दुगना करने की जरूरत हैl

सभ्य प्रतिरोध एक सुस्त रफ़्तार अमल है लेकिन इससे इंसानी सरमाया बचता है और लम्बे समय के लिए सफल साबित होता हैl इसकी शुरुआत व्यक्तिगत परिवर्तन, और लगातार नज्म व ज़ब्त और तरबियत के जरिये अहिंसक जज्बे के फरोग से होती हैl इस नज्म व जब्त का आगाज़ चीजों को पढने और मामलों को समझने से होता है, फिर उन उसूलों को अपने ज़ेहन व दिमाग में जज़्ब करने और इसके बाद उन्हें ज़मीन पर लागू करने की जरूरत होती हैl अगर हम एक समाज की हैसियत से सब्र की कीमत अदा करने के लिए तैयार नहीं है, और अगर हम इसके लिए कड़ी मेहनत नहीं करते हैं तो इसमें कोई दो राय नहीं है की हमारे युवाओं ने जिस रस्ते को चुना है उससे सामूहिक आत्मघाती औ तबाही हमारा मुकद्दर बनने वाली हैl

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