मुजाहिद हुसैन, न्यु एज इस्लाम
22 मार्च, 2014
सबसे ज़्यादा चिंता की बात ये है कि राज्य धर्म और पंथ के नाम पर हिंसा की ओर प्रवृत्त लोगों से भरने लगा है जो राज्य के क़ानून व व्यवस्था और सामाजिक रहन सहन से नाराज़ हैं और उन्हें अपनी अपनी हिंसक मान्यताओं के अनुसार ढालने की चिंता में लगे हैं। धर्म और पंथ के नाम पर अस्तित्व में आने वाले संगठन ताकत हासिल करने में व्यस्त हैं और अपने अपने कार्यकर्ताओं को जीवन जीने के नए ढंग सिखाने में जुटे हुए हैं। जो पारंपरिक सामाजिक संदर्भ में खासे अलग और कई बार तो विरोधाभासी दृष्टिकोणों वाले हैं। मिसाल के तौर पर संगठनात्मक रूप से जुड़े लोगों के कपड़ों से लेकर बातचीत में इस्तेमाल होने वाले शब्दों और सम्बोधनों तक में एक बहुत स्पष्ट अंतर देखा जा सकता है।
सामाजिक व्यवहार और पहचान में क्रमिक परिवर्तन को कहीं भी बुरा नहीं माना जाता लेकिन ऐसा परिवर्तन जो अलग और हिंसक पहचान पर अड़ा हो, उनको नज़रअंदाज़ करना भी मुश्किल होता है। अलग और हिंसा की ओर प्रवृत्त पहचान के बारे में पाकिस्तानी समाज का गहरा अध्ययन ये बताता है कि तेज़ी के साथ सामूहिक रूप से एक ऐसा अपरिहार्य परिवर्तन उत्पन्न हुआ है जिसकी अधिकांश रूपरेखा सार्वजनिक स्तर पर परस्पर तनाव की ओर इशारा करता है। जैसे भारत- पाक उपमहाद्वीप में ये कल्पना करना मुश्किल था कि सभी मुस्लिम मसलकों (पंथों) के साझा तौर पर पवित्र करार दिए जाने वाले अल्लाह के आखिरी नबी सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम के जन्म दिवस पर मुसलमान ही दूसरे मुसलमानों पर घातक हमले कर लोगों को मौत के घाट उतार देंगे। आज इस प्रकार के सम्मेलन सुरक्षा व्यवस्था के बिना आयोजित करना सम्भव नहीं रहा। यही कारण है कि उपमहाद्वीप की एक प्राचीन और ज्ञान परंपरा धार्मिक विषयों और विश्वासों पर वाद विवाद, अनुकूल और प्रतिकूल तर्कों व विचारों से आगे बढ़कर एक नियमित लड़ाई का रूप धारण कर चुका है और कई स्थानीय स्तर के दंगे व तनाव की सम्भावना का कारण बनता है।
इस त्वरित और हिंसक परंपरा के बारे में जागरूकता के लिए इतना ही काफी है कि कुछ मसलकों (पंथों) के जोशीले वक्ता धार्मिक सभाओं को सम्बोधित करते हुए मंच पर अपने हाथ में तेज़ धार और चमकदार टोके लेकर आते हैं। एक मशहूर धार्मिक विद्वान को अपने सम्बोधन में टोकाबाज़ी के कारण ''टोके वाली सरकार' या मौलवी टोका कहा जाता है और उनके ज़बरदस्त भाषणों को सीडी और यू- ट्यूब पर ऑनलाइन देखा जा सकता है जिसमें वो टोका लहराते हुए विरोधी पंथों के तर्कों को काटते नज़र आते हैं। उनके तर्क में वास्तविक हिंसा उनके सशस्त्र होने से आती है। और र्कोई सुरक्षा संस्थान उन्हें रोक देने की क्षमता नहीं रखता।
आम तौर पर बोद्धिक दावे इस शैली के तर्क के साथ सामने आते हैं कि पाकिस्तान में आतंकवाद और सांप्रदायिक तनाव की घटनाएं बाहरी ताकतों से जुड़ी हैं इसलिए जब तक बाहरी दुनिया पाकिस्तान के बारे में अपने विचारों को बदल नहीं लेती या पाकिस्तानी सरकारें ऐसे बाहरी हस्तक्षेप के खत्म नहीं कर पातीं, ये सिलसिला यूँ ही चलता रहेगा। हम बहुत ज़्यादा ताक़त बाहरी काल्पनिक हस्तक्षेप की रूपरेखा बनाने में खर्च कर देते हैं और फिर इतना उन्माद का शिकार हो जाते हैं कि आंतरिक रूप से उबलने वाले उग्रवाद को देख नहीं पाते। हम यहाँ तक दृश्टि विकार से ग्रसित हैं कि देश के हर बड़े शहर में खुम्बियों की तरह उग आने वाले सशस्त्र संगठनों की ताक़त और धौंस को भी नहीं देख पाते और न ही हम खामोशी से आगे बढ़ने वाली इस प्रवृत्ति को देख पाते हैं, जो आज हमारे दरो दीवारों फ़ांद कर हमारे लहजों तक में शामिल हो गयी ।
हमारे प्रकाशन संस्थान ऐसी सामग्री के धड़ा धड़ प्रकाशन में व्यस्त हैं जिसकी मदद से अल्पसंख्यक पंथों को बिल्कुल अकेला कर के निशाना साधा जा सकता है लेकिन इसके बारे में कहीं कोई चिंतित नहीं है और न ही इस सम्बंध में किसी मौजूदा कानून का पालन होता है। मिसाल के तौर पर लाहौर के उर्दू बाज़ार में डेढ़ सौ से अधिक छोटे छोटे पब्लिशिंग हाउस हर साल हज़ारों ऐसी पुस्तकें और पत्रिकाएं प्रकाशित करते हैं जो अल्पसंख्यक समूहों की तकफ़ीर (दूसरों को काफिर कहना) पर आधारित होती हैं। हमारी ताक़तवर खुफिया एजेंसियां हजारों ऐसे समूहों को देखने में असमर्थ हैं जो रोज़ाना बड़े शहरों के बाज़ारों और व्यापारिक केन्द्रों का दौरा करते हैं जहां से वो अपनी अपनी साम्प्रदायिक पार्टियों के लिए हथियार और दूसरे आवश्यक उपकरण खरीदने के लिए धन इकट्ठा करते हैं। आज तक किसी ऐसे समूह के बारे में किसी प्रकार की जानकारी मीडिया के माध्यम से सामने नही आ सकें और न ही किसी सांप्रदायिक दल को दूसरे लोगों को क़त्ल करने के लिए आवश्यक धन जुटाने से रोका जा सका है।
देश में मौजूद धार्मिक मदरसों का ऑडिट या कानूनी तौर पर किसी प्रकार का आतमविश्लेषण तो दूर की बात सरकारें मदरसों की संख्या के बारे में कुछ कहने से डरती है कि धार्मिक दल इस बारे में इतनी अधिक संवेदनशीलता से ग्रस्त हैं कि इसकी कोई मिसाल नहीं मिलती। सिवाय लाल मस्जिद की घटना के हमारे पास कोई उदाहरण नहीं कि पाकिस्तान के हज़ोरों मदरसों की स्थिति क्या है। चूंकि लाल मस्जिद की घटना एक दूसरा रूप धारण कर गया और इसलिए इसके बारे में सामान्य रुचि बढ़ गई और इससे जुड़ी जानकारी आम हो गईं लेकिन पाकिस्तान के छोटे बड़े शहरों में सक्रिय हज़ारों मदरसों के बारे में अस्पष्टता पूरी तरह मौजूद है। पिछले दिनों कराची के सबसे पुराने और बड़े मदरसे बनूरिया में कुछ संवेदनशील संस्थानों कू तरफ से हस्तक्षेप की एक छोटी सी घटना हुई तो तूफान खड़ा कर दिया गया और बड़े अधिकारियों को माफी मांगनी पड़ी कि सरकारी अधिकारियों ने मदरसे की सीमा में दाखिल होकर गलती की है। संघीय और प्रांतीय सरकारें और उनके गृह विभाग इस बारे में अक्षम हैं और उनके पास कोई जानकारी या उदाहरण नहीं कि मदरसों में किस प्रकार के विचारों वाले लोग तैयार किए जा रहे हैं, न ही सरकारें इस बात को जानती हैं कि इन मदरसों वित्तीय सम्बंध कहाँ कहाँ स्थापित हैं।
सभी परिस्थितियाँ और मिसालें ये दर्शाती हैं कि राज्य अपने कानूनी और संवैधानिक रूप से मान्यता प्राप्त वर्चस्व की अवधारणा से विचलन कर रहा है और देश में उग्रवाद बढ़ावा पा रहा है। हर साल सैकड़ों लोग सांप्रदायिक हत्या की भेंट चढ़ जाते हैं लेकिन सांप्रदायिक संगठनों के लिए मैदान पूरी तरह साफ है और कहीं भी सुरक्षा एजेंसियों और कानून लागू करने वालों संस्थानों की कार्रवाई नज़र नहीं आती। स्थानीय लश्कर और सशस्त्र गिरोह पूरी ताक़त के साथ क्षमता और शक्ति में इज़ाफा कर रहे हैं जबकि राज्य इनके अस्तित्व को रणनीतिक सम्पत्ति करार देती है। पाकिस्तान की सेना इन खतरनाक गुटों को सामने रखकर राज्य को आंतरिक खतरों से ग्रस्त करार देती है। जबकि अस्पष्ट बुद्धिजीवी और जबरदस्त उलमा इन मुंहज़ोर समूहों को जिहादे इस्लामी की अवधारणा से जोड़कर किसी तरह की जवाबदेही से मुक्त करार देते हैं।
यहां अगर हम एक सवाल बुद्धिजीवी के जवाब के लिए छोड़ दें तो कोई समस्या नहीं। क्या हम लश्करे तैयबा, जैश-ए-मोहम्मद, लश्करे झंगवी, सिपाहे सहाबा, सिपाहे मोहम्मद, मुख्तार फोर्स, सुन्नी फोर्स और इन जैसे कई दूसरे सशस्त्र संगठनों की एक स्वतंत्र राज्य में उपस्थिति राज्य और समाज के लिए फायदेमंद समझते हैं? अगर हम ऐसे गिरोहों के साथ रहने पर सहमत हैं और उनके कार्यों को इस्लाम, पाकिस्तान और बहुपंथीय समाज के लिए खतरनाक मानते हैं तो हमें अपनी सामूहिक सोच में सुधार करना होगा ताकि राज्य को खत्म होने से बचाया जाए। अगर हम सामूहिक रूप से इसके लिए तैयार नहीं तो फिर इसके लिए तैयार रहना चाहिए कि जल्द ही एक व्यापक तनाव हमें घेर लेगा, हम यथासंभव सशस्त्र और एक दूसरे के बारे में तकफ़ीर और तकज़ीब के सभी औज़ारों से लैस हैं। पंथ की बुनियाद पर हमारे यहां सिर्फ रिहाइशी आबादियाँ ही अस्तित्व में नहीं आई बल्कि हर तरह की पृथकता और तनाव को स्पष्ट रीप से देखा जा सकता है।
मुजाहिद हुसैन ब्रसेल्स में न्यु एज इस्लाम के ब्युरो चीफ हैं। वो हाल ही में लिखी "पंजाबी तालिबान" सहित नौ पुस्तकों के लेखक हैं। वो लगभग दो दशकों से इंवेस्टिगेटिव जर्नलिस्ट के तौर पर मशहूर अखबारों में लिख रहे हैं। उनके लेख पाकिस्तान के राजनीतिक और सामाजिक अस्तित्व, और इसके अपने गठन के फौरन बाद से ही मुश्किल दौर से गुजरने से सम्बंधित क्षेत्रों को व्यापक रुप से शामिल करते हैं। हाल के वर्षों में स्थानीय,क्षेत्रीय और वैश्विक आतंकवाद और सुरक्षा से संबंधित मुद्दे इनके अध्ययन के विशेष क्षेत्र रहे है। मुजाहिद हुसैन के पाकिस्तान और विदेशों के संजीदा हल्कों में काफी पाठक हैं। स्वतंत्र और निष्पक्ष ढंग की सोच में विश्वास रखने वाले लेखक मुजाहिद हुसैन, बड़े पैमाने पर तब्कों, देशों और इंसानियत को पेश चुनौतियों का ईमानदाराना तौर पर विश्लेषण पेश करते हैं।
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