मुजाहिद हुसैन, न्यु एज इस्लाम
24 अप्रैल, 2014
तहरीके तालिबान के प्रवक्ता ये संदेश देना चाहते हैं कि संघर्ष विराम का खत्मा सरकारी उदासीनता और उनके प्रस्तुत की गई मांगों को पूरी तरह स्वीकार न किए जाने का तार्किक परिणाम है। जवाब में संघीय गृहमंत्री भी अपने तर्कों को पेश करने में व्यस्त हैं और बहुत हद तक इस समय वो अपने रूख में सही हैं। दूसरे राजनीतिक और धार्मिक दल इस सम्बंध में लगभग खामोश हैं क्योंकि स्थिति नाज़ुक होती जा रही है और राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद की बैठक ने जहां तालिबान और दूसरे आतंकवादी समूहों को एक साफ संदेश दिया है वहाँ सरकार और सेना के बीच तनाव के इच्छुक लोगों को भी इस तरह का संदेश मिला है। सशस्त्र लड़ाकों की तरफ से संभावित हमलों के मद्देनज़र सरकार और सुरक्षा एजेंसियाँ किस तरह के जवाब की तैयारी करती हैं, इसके बारे में अभी से कुछ कहना जल्दबाज़ी होगी, क्योंकि सरकार और सुरक्षा एजेंसियों को वार्ता शुरू होने से कुछ समय पहले किए गए हवाई हमलों की सफलता और उनके प्रभाव के बारे में मालूमात है। सारांश ये है कि दो तीन महीने की यातना के बाद एक बार फिर हालात वहीं से शुरू होने जा रहे हैं जहां इनमें कुछ परिवर्तन का मौका आया था।
इस अनिर्णीत बातचीत से निकलने वाले कुछ तथ्यों की यदि समीक्षा की जाए तो हमें पता चलता है कि जहां बहुत सी तकनीकी गलतिया हैं वहाँ विशिष्ट प्रकार के लक्ष्यों को फौरन हासिल करना भी राह की एक रुकावट साबित हुआ है। मिसाल के तौर पर सरकार का तत्काल ध्यान एक व्यापक प्रकार के युद्ध विराम की घोषणा की प्राप्ति थी और इसकी शायद बड़ी वजह सत्तारूढ़ पार्टी का चुनाव अभियान भी था जिसमें इस दल का नेतृत्व पाकिस्तान की जनता से ये वादा करता रहा कि वो देश में शांति व्यवस्था को हर कीमत पर कायम करेंगे। इसलिए तत्काल युद्ध विराम के तालिबानी ऐलान को ही सफलता की अंतिम दलील समझ लिया गया। ज़ाहिर है तालिबान के द्वारा इस प्रकार के युद्ध विराम की घोषणा सशर्त थी जिसमें ये एक बड़ी शर्त ये थी कि उनके चयनित लोगों को पाकिस्तानी जेलों से रिहा किया जाए। लेकिन इस दौरान जनता को ये नहीं बताया गया कि हम इस अस्थायी संघर्ष विराम के बदले तालिबान को क्या पेश कर रहे हैं। ऐसी सूचनाएं भी मौजूद हैं कि सुरक्षा एजेंसियों को भी संघर्ष विराम की घोषणा के बदले तालिबान के कैदियों की रिहाई की सूरत में पेश किए जाने वाले तोहफे का पूरी तरह पता नहीं था, जो बाद में एक विवाद के रूप में सामने आया। विवाद ने तब गंभीर रूप धारण कर लिया जब एक तरफ तालिबान ने एफसी के अपहृत हुए लोगों को बेदर्दी के साथ क़त्ल कर दिया और उनको लाशों के अपमान की फिल्में जारी कर दीं। लेकिन सरकार की तरफ से इस मौके पर एक अजीब किस्म की नाकामी और लाचारी की प्रतिक्रिया सामने आई जिसने न सिर्फ सुरक्षा एजेंसियों को उत्तेजित कर दिया बल्कि दूसरी तरफ तालिबान लड़ाकों के हौसले भी और ज्यादा बुलंद कर दिए, जो ये समझ रहे थे कि शायद सरकार एक बार फिर सुरक्षा एजेंसियों को सख्त कदम का हुक्म जारी कर देगी।
दूसरा कारक जिसकी ओर अभी बहुत अधिक ध्यान नहीं दिया गया वो इस बातचीत के दौरान तालिबान और उनके अनगिनत सहयोगी समूहों की तरफ से देश के शहरी क्षेत्रों में अपनी ताकत को मज़बूत करने का है क्योंकि अविवादित सूत्र इस बात की पुष्टि करते हैं कि जब बातचीत पूरे ज़ोर शोर के साथ जारी थी उस दौरान पंजाब, सिंध और खैबर पख्तूनख्वाह की सरकारों को सुरक्षा एजेंसियों की तरफ से ऐसी रिपोर्ट जारी की गई जिसमें ये बताया गया था कि किस तरह तालिबान और उनके साथी लड़ाके तीनों राज्यों के शहरी क्षेत्रों मैं अपने आप को संगठित कर रहे हैं और अगर इनको इस मौक़े पर न रोका गया तो ये राज्य के लिए खतरनाक होगा। हैरानी की बात ये है कि सिवाय सिंध की प्रांतीय सरकार के किसी अन्य राज्य ने इस सम्बंध में हरकत तक न की, जबकि सिंध की सरकार भी बस ऐसे कदम ही उठा सकी जो इस बारे में बिल्कुल अपर्याप्त थे। इसकी वजह सिंध सरकार की अपनी राजनीतिक मजबूरियाँ और बहुत हद तक असमर्थता थी।
पंजाब की तरफ से ये जवाब दिया गया कि राज्य सरकार इस बारे में बहुत संवेदनशील है और तालिबान के साथ जारी वार्ता की पृष्ठभूमि में अभी से ऐसी किसी बड़ी कार्रवाई का खतरा मोल नहीं ले सकती जो राष्ट्रीय स्तर पर हानिकारक साबित हो। इसके अलावा ये भी कहा गया कि रिपोर्ट्स में चिह्नित क्षेत्रों (दक्षिण पंजाब के ज़िले लिया, मुल्तान, खानेवाल, लोधराँ, बहावलपुर, बहावलनगर और रहीमयार खान) में खुफिया एजेंसियों को अलर्ट कर दिया गया है जो उचित कदम प्रस्तावित करें उनकी रौशनी में राज्य सरकार कोई कदम उठाएगी। इससे अधिक वाहियात जवाब ख़ैबर पख्तूनख्वाह की सरकार की तरफ से प्राप्त हुआ, जिसमें सिर्फ ये कहा था कि राज्य सरकार अपने दायित्वों से पूरी तरह अवगत है और हालात के अनुसार कार्रवाई करेगी। पंजाब के मुख्यमंत्री सामाजिक स्तर के अपराध के समाचारों पर प्रतिक्रिया के रूप में खुद महंगे दौरे करके दक्षिणी पंजाब में चक्कर लगाते रहे ताकि मीडिया में उनकी सक्रियता का डंका बजता रहे लेकिन इन ज़िलों के प्रशासनिक अधिकारियों के साथ उन्हें सुरक्षा मामलों को लेकर बातचीत का मौका नहीं मिल सका। इस दौरान सशस्त्र उग्रवादी अपनी पूरी शक्ति के साथ अपने समूहों को उक्त क्षेत्रों में सभी प्रकार की सुविधाएं प्रदान करने में व्यस्त रहे और राज्य सरकार सभी प्रकार की चेतावनी को नज़रअंदाज़ कर के अपने काम में जुटी रही।
सबसे ज़्यादा हतोत्साहित करने वाली बात ये है कि अगर सिविल सरकार पाकिस्तान में पूर्ण शांति चाहती है और हर प्रकार के धार्मिक और सांप्रदायिक उग्रवाद का खात्मा चाहती है तो क्या ये उसके कर्तव्यों में शामिल नहीं है कि सुरक्षा एजेंसियों की शांति व सुरक्षा के बारे में प्रदान की गई रिपोर्ट्स और चेतावनियों का नोटिस लिया जाए? चिह्नित क्षेत्रों में प्रशासनिक तौर पर ऐसे कदम उठाए जाएं कि कट्टरपंथी शहरी क्षेत्रों में अपने ठिकाने मज़बूत न बना सकें? लेकिन दुर्भाग्य से इस ओर ध्यान देने वाला कोई नहीं और इसके दूसरे कारणों में ये भी शामिल है कि कई पार्लियमेंट के सदस्य स्थानीय धार्मिक और सांप्रदायिक आतंकवादियों से जुड़े हैं और उनकी कभी कभार मदद करके राजनीतिक जीवन हासिल करते हैं। चूंकि विशुद्ध रूप से प्रशासनिक मामलों को भी राष्ट्रीय और प्रांतीय विधानसभा के स्थानीय सदस्य की मर्ज़ी के मुताबिक चलाया जाता है और जिला प्रशासन उनके सामने पंगू साबित होता है इसलिए पाकिस्तान के शहरी क्षेत्रों में बढ़ रहे उग्रवाद का मुकाबला मुश्किल से और मुश्किल होता जा रहा है। पाकिस्तान के राजनीतिक दलों के लिए ये एक ऐसी मजबूरी पैदा हो चुकी है जिसके निहितार्थ की तरफ अभी तक किसी का ध्यान नहीं गया। छूट दो और राजनीतिक लाभ हासिल करो, की रणनीति पाकिस्तानी राज्य के अस्तित्व के लिए एक बड़ा सवाल उठा रही है और ऐसा लगता है कि पहाड़ों और गुफाओं में शरण लिये आतंकवादी जो राज्य के खिलाफ लड़ रहे हैं, वो ऐसे भयानक लड़ाकुओं के सामने बौने नज़र आएंगे जो आज हमारे शहरों में हमारी मदद से पल रहे हैं और जो बहुत करीब से वार करेंगे। सांप्रदायिक लड़ाई में हम उनके गंभीर वार का मज़ा चख चुके हैं और अभी तक संभल नहीं पाए हैं।
मुजाहिद हुसैन ब्रसेल्स (Brussels) में न्यु एज इस्लाम के ब्युरो चीफ हैं। वो हाल ही में लिखी "पंजाबी तालिबान" सहित नौ पुस्तकों के लेखक हैं। वो लगभग दो दशकों से इंवेस्टिगेटिव जर्नलिस्ट के तौर पर मशहूर अखबारों में लिख रहे हैं। उनके लेख पाकिस्तान के राजनीतिक और सामाजिक अस्तित्व, और इसके अपने गठन के फौरन बाद से ही मुश्किल दौर से गुजरने से सम्बंधित क्षेत्रों को व्यापक रुप से शामिल करते हैं। हाल के वर्षों में स्थानीय,क्षेत्रीय और वैश्विक आतंकवाद और सुरक्षा से संबंधित मुद्दे इनके अध्ययन के विशेष क्षेत्र रहे है। मुजाहिद हुसैन के पाकिस्तान और विदेशों के संजीदा हल्कों में काफी पाठक हैं। स्वतंत्र और निष्पक्ष ढंग की सोच में विश्वास रखने वाले लेखक मुजाहिद हुसैन, बड़े पैमाने पर तब्कों, देशों और इंसानियत को पेश चुनौतियों का ईमानदाराना तौर पर विश्लेषण पेश करते हैं।
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