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Hindi Section ( 28 Oct 2011, NewAgeIslam.Com)

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The Word ‘Mushrikin’ in the Quran is not for the Hindus कुरान में मुशरिकीन लफ्ज़ हिंदुओं के लिए नहीं है


मोहम्मद यूनुस, न्यु एज इस्लाम डाट काम (अंग्रेज़ी से अनुवाद- समीउर रहमान, न्यु एज इस्लाम डाट काम)

सहलेखकः इस्लाम का असल पैग़ाम, आमना पब्लिकेशन, अमेरिका, 2009

वर्तमान समय में इस्लाम का भय फैलाने वाले इस्लाम को हिंसक मज़हब औऱ मुशरिकीन को कत्ल करने की इजाज़त देने वाला मज़हब साबित करने के लिए क़ुरान की उन आयात का हवाला देते हैं, जिनमें सभी मुशरिकीन (तकनीकी तौर पर मुशरिकीन का अनुवाद काफिर, और मूर्ति पूजा करने वाले हैं) को कत्ल कर देने को कहा गया है। हिंदुस्तान में कुछ उग्रवादी समूह सांप्रदायिक नफरत औऱ हिंसा फैलाने के औचित्य के रूप में इन्हीं आयात का हवाला देते हैं और मुशरिकीन लफ्ज़ से ताबीर करते हैं। परिवर्तन के ख्वाहिशमंद लोगों के लेख बताते हैं कि खुदा की रूहानियत हासिल करने के लिए वर्तमान समय के भी कई मुसलमान अपने हिंदू भाईयों को मुशरिक (जो अल्लाह के साथ किसी को शरीक करे) करार देते हैं जबकि कई हिंदू भी इस्लाम के बारे में गलत राय रखते हैं। निम्नलिखित हिस्से बुनियादी हिंदू और इस्लामी धर्म ग्रंथों से हैं जो बताते हैं कि (1) हिंदू धर्म में एक ईश्वर की जड़ें हैं औऱ (2) क़ुरान में जिन मुशरिकीन का ज़िक्र किया गया है वो मक्का के बुतपरस्त थे जिन्होंने पैगम्बरे इलाम मोहम्मद (...) के पैरोकारों के बीच मौजूद मुनाफिकों के साथ मिलकर साज़िश की थी और वो मोमिनों को खत्म कर देना चाहते थे।

उपनिषद और भगवत गीता

ईश्वर एक है वो सब में निहित है और वो सब में शामिल है, बतौर गवाह हर एक कार्य और हरकत पर जिसकी नज़र है, जो सब कुछ जानता है, जो अकेला है, सभी विशेषताओं (जो इंसानों से जोड़ी जाती हैं) से आगे है।श्वेतेश्वर उपनिषद 6:11

(विश्व पुस्तक, अंतर्राष्ट्रीय धार्मिक फाउण्डेशन, न्युयार्क, 1991)

मैं सभी रूहानी और भौतिक विश्व का स्रोत हूँ। हर एक चीज़ मुझसे निकलती है। ऐसे योग्य जो अच्छी तरह से जानते हैं वो पूरी आत्मीयता के साथ मेरी भक्ति में लगे रहते हैं। भगवत गीता 10:8

हे  अर्जुन! ईश्वर के महान व्यक्तित्व की हैसियत से, मैं जानता हूँ जो कुछ भी भूतकाल में हुआ है और जो कुछ भी वर्तमान समय में हो रहा है और जो कुछ भी भविष्य में होगा, वो सब मेरे ज्ञान में है, लेकिन मुझे कोई नहीं जानता.....भगवत गीता 7:26

(http://harekrishnatemple.com/chapter10.html)

विश्लेषणः ये स्पष्ट है कि कुछ प्राचीन हिंदू संत एक ईश्वर की कल्पना से प्रभावित रहे होंगे, दूसरे शब्दों में उन्हें ईश्वर का संदेश प्राप्त होता रहा होगा। क़ुरान स्पष्ट रूप से इस बात का वर्णन करता है कि हर समय में सभी समुदायों के लिए पैगम्बर भेजे हैं। (10:47, 13:38, 15:10, 23:44, 30:47, 35:24, 43:6, 57:25) इनमें से कुछ का वर्णन क़ुरान में है जबकि कई पैगम्बरों (ईशदूतों) का नहीं है। (40:78, 4:164) इसलिए इसमें कोई शक नहीं कि हिंदू जिनकी संस्कृति प्राचीन है, उन तक भी अल्लाह के पैगम्बर और संत आये होंगे, जिन्होंने एक ईश्वर के गीत गाये होंगे और मूर्ति या इसके बगैर अपनी कल्पना में एक ईश्वर की नीयत की होगी। जैसा क़ुरान इस बात को प्रमाणित करता है कि खानकाहो, चर्चों, कलीसाओं और मस्जिदों में अल्लाह का नाम बाकायदगी से हमेशा से लिया जाता रहा है। (22:40)

मुसलमानों की दलील है कि हिंदू अल्लाह के साथ दूसरों को शरीक करते हैं, लेकिन ये उनकी चिंता का विषय नहीं है कि एक हिंदू किस तरह खुदा को अपने मन में या चित्रों के ज़रिए समझता है। मुग़लों ने हिंदुस्तान पर लगभग 300 बरसों तक शासन किया, लेकिन हिंदुओं के साथ मुशरिक या काफिर होने के जैसा व्यवहार नहीं किय। अगर उन्होंने ऐसा किया होता तो इस तरह के नैतिक पतन (मुसलमानों के दृष्टिकोण से) का वर्णन इस समय की प्रसिद्ध रचनाओं में ज़रूर होता या अक्सर सांप्रदायिक दंगे होते। इसमें शक है कि शायद ही इस समय के किसी मुस्लिम कवि या सामाजिक इतिहासकार ने हिंदुओं का शायद ही इस तरह के शब्दों में वर्णन किया हो, और अगर सांप्रदायिक दंगे होते थे तो बँटवारे से पहले की हिंदुस्तान की आबादी धर्म के नाम पर बँटी होती और ब्रिटिश शासन के समय के इतिहासकारों ने इसका वर्णन ज़रूर किया होता। इस तरह ये खुद से साबित होता है कि मुगलों के दौर में हिंदू और मुसलमान एक अच्छे पड़ोसी की तरह रहते थे और सभी अपने अपने धर्म के लिए वक्फ रहते थे।

क़ुरान

क़ुरान में जिन मुशरिकीन का वर्णन है, जाहिर है वो वही नाज़िल होने के समय मौजूद थे, और ये लोग अरब के मूर्ति पूजा करने वाले थे। अगर कोई दलील देता है कि क़ुरान हमेशा रहने वाली किताब है, और इसके सभी फैसले हर एक समय के लिए सही हैं, तो निम्नलिखित आयतें बतायेंगी कि आज के मुनाफिक मुसलमान अल्लाह की लानत और प्रकोप के मामले में वर्तमान समय के मुशरिकीन (कथित रूप से हिंदू) के बराबर होंगे।

मुनाफिक मर्द और मुनाफिक औरतें एक दूसरे के हमजिंस (यानि एक तरह के) हैं, बुरे काम करने को कहते हैं और अच्छे कामों से मना करते हैं, और (खर्च करने से) हाथ बंद किये रहते हैं। उन्होंने खुदा को भुला दिया तो तो खुदा ने उनको भुला दिया। बेशक मुनाफिक नाफरमान हैं। (9:76)अल्लाह ने मुनाफिक मर्द और मुनाफिक औरतों और काफिरों से जहन्नम की आग का वादा किया है। जिसमें हमेशा (जलते) रहेंगे। वही उनके लायक़ है। और खुदा ने उन पर लानत कर दी है। और उनके लिए हमेशा का अज़ाब (तैय्यार) है। (9:68)

तुम उनके लिए बख्शिश माँगो या माँगो (बात एक है) अगर उनके लिए सत्तर बार भी बख्शिश माँगोगे तो भी खुदा उनको नहीं बख्शेगा। ये इसलिए कि उन्होंने खुदा और उसके रसूल से कुफ्र किया। और खुदा नाफरमान लोगों को हिदायत नहीं देता। (9:80)

देहाती लोग सख्त काफिर और सख्त मुनाफिक हैं और इस काबिल हैं जो आदेश (शरीअत) खुदा ने अपने रसूल पर नाज़िल फरमाये हैं उनसे वाक़िफ़ (ही) हों। और खुदा जानने वाला (और) हिकमत वाला है।(9:97)

ताकि खुदा मुनाफिक मर्द और मुनाफिक औरतों और मुशरिक मर्द और मुशरिक औरतों पर मेहरबानी करे और खुदा तो बख्शने वाला मेहरबान है। (33:73)

और (इसलिए कि) मुनाफिक मर्द और मुनाफिक औरतों और मुशरिक मर्द और मुशरिक औरतों को जो खुदा के हक में बुरे खयाल रखते हैं अज़ाब दे। उन पर बुरे हादसे वाके हों, और खुदा उन पर गुस्सा हुआ और उन पर लानत की और उनके लिए दोज़ख तैय्यार की। और वो बुरी जगह है। (48:6)

उन्होंने अपनी क़स्मों को अपनी ढाल बना लिया, और (लोगों को) खुदा के रास्ते से रोक दिया है, सिवा उनके लिए ज़िल्लत का अज़ाब है। (58:16)

प्रतिबिम्बः उपरोक्त क़ुरानी आयतों की रौशनी में अगर आज के हिंदुओं को मुशरिकीन के तौर पर जाना जाता है तो ऊपर वर्णित और अन्य आयतों में आज के मुसलमानों में बड़ी तादाद में मौजूद मुनाफिक गुमराही के मामले में और अल्लाह की लानत और प्रकोप के मामले में मुशरिकीन से अलग बिल्कुल नहीं होंगे। क्या मुस्लिम उलमा इस तरह के प्रस्ताव को स्वीकार करने केलिए तैय्यार हैं? अगर जवाब नहीं हैं , तो आज के हिंदुओं और क़ुरान में वर्णित मुशरिकीन में फर्क होना ज़रूरी है।

क़ुरान के और उदाहरणः जिहालत (सामाजिक, नैतिक और बौद्धिक पतन) के खिलाफ अपनी दलीलों के हिस्से के रूप में क़ुरान मुशरिकीन (मूर्ति पूजा करने वाली जनता) की कुछ सामाजिक बुराईयों को सामने लाता है। वो लोग बच्चियों के पैदा होने को सख्त नापसंद करते थे और उसकी परवरिश के कारण होने वाली शर्मिंदगी और बदनामी से बचने के लिए उसे जिंदा दफ्न कर दिया करते थे।(16:58-59, 43:17, 81:8) ये लोग अपने ही बच्चों की क़ुरबानी (6:137, 6:140, 60:12) अपने बुतों को पेश किया करते थे, या ग़रीबी के कारण (6:151, 17:31) करते थे। शादीशुदा औरतें ज़िना (अपने पति की गैरमौजूदगी में अजनबियों के साथ रहती थीं) में शामिल थीं और चोरी समाजिक पैमाने का एक हिस्सा था।(60:12) मर्दों ने अपनी बीवियों को छोड़ रखा था और सिर्फ नाम के लिए शपथ लेकर उनसे वैवाहिक सम्बंध रखते थे, ताकि उनका शोषण कर सकें। विधवाएं खानदान में विरासत को तौर पर मिलती थीं।(4:19) ये उनके समाज की कुछ बुराईयाँ थीं। इस तरह आज के हिंदुओं को क़ुरान में वर्णित मुशरिकीन मानना गुमराही होगी और ये ऐसा ही है जैसे आज के मुनाफिक मुसलमानों को पैगम्बर मोहम्मद (...) के समय के मुनाफिकीन से ताबीर किया जाये। अल्लाह बेहतर जानने वाला है।

स्पष्ट बयान ये है कि मुसलमानों को क़ुरान में वर्णित किये गये सामाजिक, नैतिक और वैश्विक मिसाल बनने की कोशिश करनी चाहिए न कि दूसरों को यो बताने की कोशिश कि वो मोमिन नहीं हैं।(4:94) या उनकी तौहीन करने की जो खुदा के अलावा किसी और को मदद के लिए आवाज़ देते हैं।

मोमिनों जब तुम खुदा की राह में बाहर निकला करों तो तहकीक (जाँच) से काम लिया करो और जो शख्स तुमसे सलाम अलैक करे उससे ये मत कहो कि तुम मोमिन नहीं उससे तुम्हारी गर्ज़ ये हो कि दुनिया की ज़िंदगी का फायदा हासिल करो, सो खुदा के नज़दीक बहुत सी अलामतें हैं, तुम भी तो पहले ऐसे ही थे, फिर खुदा ने तुम पर एहसान किया, तो (आइंदा) तहकीक कर लिया करो और जो अमल तुम करते हो खुदा को सबकी खबर है। (4:94)

और जिन लोगों को ये मुशरिक खुदा के सिवा पुकारते हैं उनको बुरा कहना कि ये भी कहीं खुदा को बेअदबी से बेसमझे बुरा () कह बैठें। इस तरह हमने हर एक समुदाय के आमाल (उनकी नज़रों में) अच्छे कर दिखाये हैं। फिर उनको अपने परवरदिगार की तरफ लौटकर जाना है, तब वो उनको बतायेगा कि वो क्या किया करते थे।(6:108)

मोहम्मद यूनुस ने आईआईटी दिल्ली से केमिकल इंजीनियरिंग की शिक्षा हासिल की है और कार्पोरेट इक्ज़ीक्युटिव के पद से रिटायर हो चुके हैं और 90 के दशक से क़ुरान का गहराई से अध्ययन और उसके वास्तविक संदेश को समझने की कोशिश कर रहे हैं। इनकी किताब इस्लाम का असल पैग़ाम को साल 2000 में अलअज़हर अलशरीफ, काहिरा की मंज़ूरी प्राप्त हो गया थी और यूसीएलए के डॉ. खालिद अबुल फ़ज़ल का समर्थन भी हासिल है। मोहम्मद यूनुस की किताब इस्लाम का असल पैग़ाम को आमना पब्लिकेशन मेरीलैण्ड, अमेरिका ने साल 2009 में प्रकाशित किया।

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