मोहम्मद यूनुस, न्यु एज इस्लाम
मोहम्मद यूनुस, सह लेखक (अशफाक अल्लाह सैयद के साथ), इस्लाम का असल पैग़ाम, आमना पब्लिकेशन, यूएसए 2009
7 मई, 2012
(अंग्रेजी से अनुवाद - समीउर रहमान, न्यु एज इस्लाम)
कुरान में किसी यौन में असमानता नहीं है, और शरीयत में मर्दों को औरतों के सरपरस्त बनाने का हुक्म इसके लैंगिक गतिशीलता के खिलाफ है।
· इस विषय पर ढेर सारे कुरानी आदेशों की झलक इस विषय का सामूहिक रूप से समर्थन करते हैं।
ऐतिहासिक रूप से फुकहा ने ये आग्रह किया है कि आम मुसलमानों में कुरान की व्याख्या करने की योग्यता की कमी है, और इसलिए उन्हें धार्मिक मामलों में उचित मार्गदर्शन के लिए किसी शरई मकतबे फिक्र (विचारधारा) से संबंध रखना चाहिए जो कानूनी प्रणाली के मुताबिक हो। जो शरई कानूनों को इस्लामी संस्कृति के मूल के रूप में संस्थानीकरण करने और इसके शब्दों को खुदा के अल्फाज़ के तौर पर सम्मान करने में मदद करे और जिसके आदेशों का उल्लंघन या उसे चुनौती नहीं दी जा सकती हो। लेकिन वास्तविकता ये है कि इस्लामी शरई कानून, सामूहिक फ़िक़्ही परंपरा हैं जिसमें जीवन के विभिन्न पहलुओं जैसे मर्दों और औरतों के संबंध के बारे में कुरानी आदेश पर इस्लामी फुकहा, कानून के विशेषज्ञों के खयालात, राय और व्याख्या हो। जब भी ये कुरान के आदेशों से टकराव पैदा करता हैं [1]- तो चूंकि ये उल्मा और फुकहा की राय को कुरान पर विशेषाधिकार देते हैं। खुदा के बेखता लफ्ज़ होने का इसका दावा एक साफ और स्पष्ट तौर से स्वीकार करने योग्य नहीं है और जो गलत है [2]- इसके अलावा, इस्लामी सभ्यता मध्यकाल के ज़माने (8वीं से 18वीं सदी) तक फैली, उल्मा और फुकहा के कथन और विचार, कुरानी फरमान के बजाय आवश्यक रूप से मध्यकाल के ज़माने की सांस्कृतिक मिसालों से प्रभावित थीं। इस तरह, इस्लामी शरीयत के तसव्वुर में ऐसे कई विचार शामिल हैं जो कुरानी पैग़ाम के साथ पूरी तरह विपरीत हैं और विशुद्ध रूप से मर्द प्रधान सोच के ऐसे विचार हैं जिसे आज मुसलमान हुक्मे खुदा मानते हैं और अपने अकीदे को एक ऐसा सिद्धांत मानते हैं जिस पर सवाल नहीं किया जा सकता और जिसे बदला नहीं जा सकता है।
इस कोशिश का मकसद कुरान पर शोध करना है जो इस्लामी कानून का अकाट्य स्रोत है। इस्लाम में कोई गैर बराबरी नहीं है और मर्द को औरतों के सरपरस्त (अभिभावक) होने की कल्पना गैर कुरानी है।
1. वैवाहिक रिशते में मर्द और औरत के अधिकार और दायित्व
जैविक संविधान और एक औरत की प्रजनन की भूमिका गर्भावस्था के अंतिम महीनों के दौरान उसे शारीरिक रूप से कमज़ोर कर देती। अपने नवजात बच्चे को वो लगभग दो साल तक दूध पिलाती हैं। और आदमी जो इस बच्चे का बाप होता है वो सिर्फ आंशिक रूप से उसकी देखभाल में मदद करता है। वैश्विक न्याय के सिद्धांत मर्द पर इस औरत के लिए कुछ मानक वित्तीय जिम्मेदारी या पाबंदी लगाता है जिसने उसे तकलीफ़ से पेट में रखा और तकलीफ के साथ जना, और उसका पेट में रखना और उसका दूध छुड़ाना (यानी गर्भावस्था और लालन पालन का समय) तीस महीने (शामिल) है (2:233 46:15) [3]- ये सिद्धांत मर्द, औरत के वैवाहिक सम्बंध के अंदर और इससे बाहर के संबंधों पर कुरानी फरमान के विभिन्न पहलुओं की ओर इशारा करता है। ये पूरे कुरानी पाठ में मौजूद हैं और मोहम्मद असद के व्यापक रूप से शोध और बहुत मान्यता प्राप्त काम से इसका खुलासा किया जा सकता है, जो हाल ही में केंद्रित काम से निकाला गया है [4], जो यूसीएलए के ख़ालिद अबुल फज़ल के लफ्ज़ों में, " ये नौजवान मुसलमानों या उन मुसलमानों को जिनके पास कुरान या अपने मज़हब के बुनियादी सिद्धांतों के अध्ययन के लिए वक्त नहीं है, उनके लिए प्रामाणिक तौर पर विश्वसनीय पाठ है। "[4; p.xx]
• मर्दों को अपनी बीवियों को मुनासिब महेर देना ज़रूरी है (4:4) यहां तक कि अगर उन्हें छूने से पहले ही उन्होंने शादी तोड़ दी हो (2:236/ 237), हालांकि औरतें महेर का एक हिस्सा खुद अपनी मर्ज़ी से छोड़ सकती हैं (4: 4) ।
• शादी में यौन स्वतंत्रता को खुदा का लिहाज़ रखने वाले एक आदमी के साथ जोड़ कर कुरान ने लैंगिकता के साथ आध्यात्मिकता के पहूल को जोड़ा है और लैंगिक मामले में किसी ज़बरदस्ती की इजाज़त नहीं है (2:223)।
• मर्दों को अपनी बीवियों का समर्थन करना चाहिए और अपनी आमदनी से उनकी देखभाल का खर्च करना चाहिए (4:34) हालांकि औरतें भी अपने स्रोतों से अपने शौहर की मदद कर सकती हैं (4:32) जैसा कि खुदा ने मर्द और औरतों को विभिन्न मामलों में फज़ीलत दी है।
• अपनी बीवियों पर अवैध यौन संबंध का शक करने वाले मर्द उनका सुधार करें, उन्हें इनके बिस्तरों पर अकेला छोड़ दें और आखीर में अनुशासनात्मक कार्रवाई करें, इसमें भी नाकाम रहने पर अपने तब्के के लोगों को इस मामले में मध्यस्थता के लिए शामिल करना चाहिए (4:34/35)।
• अगर एक शौहर अपनी बीवी पर बदकारी की तोहमत लगाए और इस सूरत में वो खुद ही अकेला गवाह हो, तो बीवी की बेगुनाही की शपथ शौहर के आरोप के खिलाफ स्वीकार होगी (24:6-9) इस तरह शौहर के मुकाबले में बीवी को विशेषाधिकार दिया गया है, इस्लाम से पहले इस तरह के मामलों में शौहर अपनी बीवी को मौके पर ही कत्ल कर मामले को खत्म कर सकता था और ये कानूनी अमल होता था।
• अगर कोई औरत अपने शौहर पर अवैध सेक्स का शक करती है तो उसे इस मामले को आपसी रूप से हल करना चाहिए (4:128), इसमें असफल रहने पर शादी को खत्म कर देनी चाहिए (4:130) और कुछ विशेष परिस्थितियों में मुआवजा की अदायगी के बाद उन्हें एकतरफा तौर पर तलाक दे सकती हैं (2:229)।
• मर्दों को अपनी बीवी पर किसी भी कानूनी या उच्च स्तर का अधिकार नहीं दिया गया है और न ही उनकी गैरज़रूरी एताअत की ज़रूरत है, और न ही एक नाफरमान बीवी की पिटाई का अधिकार है या कैदी औरतों, लोंडियों के साथ अंतरंग सम्बंध बनाने का अधिकार नहीं है, जैसा कि परंपरागत मातृ सत्तात्मक रचनाएं इशारा करती हैं (2:228 4:34, 23:6/ 7, 70:29/ 30)।
• एक व्यक्ति जो शादी को खत्म करना चाहता है, तलाक पर अंतिम निर्णय तक पहुंचने से पहले दो मौक़ों पर अपनी बीवी को तीन क़मरी महीने की अवधि के भीतर तलाक का नोटिस देना ज़रूरी है (2:229, 2:231 65: 2)।
• एक व्यक्ति ने तलाक का नोटिस बीवी को दिया है और नोटिस देने के तीन महीने की अवधि के भीतर अगर वो अपनी बीवी को गर्भवती पाता है तो उसे अपनी बीवी को वापस अपने निकाह में लेना ज़रूरी है (2:228)।
• यदि उपरोक्त नहीं हो पाता है तो शौहर पर अपनी तलाक दी हुई बीवी के रहने, उससे पैदा बच्चे, उसके पैदा होने के वक्त होने वाले खर्चों सहित दो साल तक देखभाल के खर्च को बर्दाशत करने की जिम्मेदारी होती है (2: 233, 65:6-7)।
• एक व्यक्ति पर अनिवार्य है कि वो अपना तलाखशुदा बीवी से पैदा बच्चे को दूध पिलाने वाली माओं के खाने और पहनने का ध्यान रखें (2:233)।
• नोटिस की अवधि में शौहर अपनी तलाखशुदा बीवियों को इद्दत के दैरान अपनी क्षमता के अनुसार खिलाए और रखे और उन्हें तकलीफ न पहुंचाए और उन्हें भयभीत न करे और न ही उनके जीवन को मुश्किल बनाए (65:6)।
• मर्द जब औरतों को तलाक दें और अपनी इद्दत पूरी होने को आ पहुँचें तो उन्हें अच्छी तरह से छोड़ दो, और उन्हें सिर्फ़ तकलीफ़ देने के लिए न रोके रखो और हद पार न करो (2:231) और न ही उन्हें उनके पसंद के शौहर या बीवी से शादी करने की राह में रुकावट पैदा करो (2:232)।
• मर्दों को अपनी बीवियों से किसी भी तरह की संपत्ति वापस लेने से बचना चाहिए जैसे तलाक के दौरान या तलाक़शुदा औरत के रिश्तेदारों से ((2:229 4:19-20)
• मर्दों को अपनी तलाक़शुदा औरतों को भी ठीक से खर्च देना चाहिए (जब तक कि उनकी दूसरी शादी न हो जाये/ या मामले की प्रकृति को देखते हुए मध्यस्थ जैसा फैसला करें) (2:241)।
• कुरान की व्यापक संदेश के आधार पर एक शादी सामाजिक मानक है [5] लेकिन एक व्यक्ति असाधारण परिस्थितियों में एक से अधिक शादी कर सकता है (4:3)।
• एक औरत अपने शौहर की मौत के बाद बिना अपने शौहर का घर छोड़े हुए एक साल तक का खर्च लेने का हक़ रखती है (2:240) और खुद ही मामले को तय करने का अधिकार है चार महीने और दस दिन की इद्दत के बाद दूसरी शादी के प्रस्तावों पर भी विचार कर सकती है (2:234/235)।
• ये मर्दों और औरतों पर फ़र्ज़ है कि वो मरने से पहले गवाहों की मौजूदगी में वसीयत करें (2:180-182, 5:106-108)।
• माँ बाप में से हर एक (माँ और बाप) अपने गुज़र गए बच्चों के बराबर के वारिस होते हैं (4:12)।
• हालांकि एक बेटी, एक बेटे के बराबर ही आधे हिस्से की हकदार होती है (4:12) एक व्यक्ति को गवाह की उपस्थिति में वसीयत कर तर्के को अपने वारिसों के बीच बांटना चाहिए। ये एक आवश्यक आदेश है जो विरासत कानून को विशेषाधिकार प्रदान करता है।
2. कुरान परिवार/ कानूनी मामलों में संरक्षक का अधिकार मर्द को नहीं प्रदान करता है
इस्लामी संस्कृति औरतों से घृणा करने वाले की बजाय मातृ परम्परा की थीं और इसने औरतों को उन दूसरी संस्कृतियों की तुलना में बेहतर स्थान प्रदान किया जो कि दमनकारी और पुरुष प्रधान थीं। लेकिन हाल के समय में मानव अधिकार और लैंगिक समानता की समझ के बारे में बढ़ती जागरूकता ने हालात को बदल दिया है। इस्लामी संस्कृतियों में औरतें पुरुष प्रधान प्रणाली के दबाने वाले व्यवहार, दमनकरी और हिंसक रूप का निशाना बन रही हैं। जबकि इसकी प्रतिद्वंदी संस्कृतियों में उनके समकक्षों को कहीं बेहतर छूट और लैंगिक समानता हासिल हो चुकी हैं। तो वो सवाल जिनके तुरंत जवाब की जरूरत है, क्या कुरान लैंगिक समानता की वकालत करता है या औरतों के साथ भेदभावपूर्ण व्यवहार करने को कहता है, या कि उच्च लैंगिक प्रकार के रूप में मर्दों को विशेषाधिकार देता है? ये कोई हिसाब का सवाल नहीं है जिसमें एक निश्चित जवाब दिया जा सके जैसे दो और दो चार होता है। लेकिन कुरान वैवाहिक संबंधों पर निम्नलिखित बयान उपरोक्त में दर्ज आपसी भूमिका और जैविक मतभेद (उपरोक्त में पैराग्राफ की शुरुआत में) के रूप में देखा गया है जो चौथी सूरे अलनिसा की शुरुआती आयतों के ज़रिए लैंगिक समानता की तरफ इशारा करता है, जिसे औरतों के नाम से जोड़ा जाता है और विशेषाधिकार के पैमाने को औरतों की ओर झुकाता है।
• ये बताता है कि अहले ईमान मर्द अहले ईमान औरतें एक दूसरे के रफीक़ (संगी) और मददगार (सहायक) हैं (9:71) इस तरह जस्टीनियन कानून [6] को खत्म करता है जिसके अनुसार अन्य बातों के अलावा एक औरत पर मालिकाना हक उसके पिता या शौहर या फरज़न्दाना नेज़ाम (प्रणाली) में सबसे उपयुक्त आदमी (जैसे खून के रिश्ते का भाई) का है।
• इसकी आयात की एक बड़ी संख्या में मानवता (यानी मर्दों और औरतों दोनों) को संबोधित किया गया है जबकि कुछ में स्पष्ट रूप से मर्दों और औरतों (4:124 33:25) को संबोधित किया गया है, जो इशारा करता है मर्दों और औरतों के लिए एक ही जैसे आदेश, नैतिकता और व्यवहार की मिसालें हैं। कुरान की आयतें जो विशेष रूप से मर्दों को संबोधित करती हैं, उनमें सातवीं शताब्दी के अरब के सामाजिक वातावरण में जिन मामलों में मर्द ग़ालिब थे, उन पर संबोधित किया है न कि उनके लैंगिक आधार पर बरतरी को संबोधित किया है।
• शारीरिक सम्बंध के बारे में इसकी आयतें (30:21, 7:189) प्यार (muwadda), रहमत (rahma) और सुकून (sukun), हमल (haml) के विचारों के साथ आम सिंफ (zauja) की ओर आकर्षित करती है न कि सिर्फ औरतों की तरफ। अन्य जगहों पर भी कुरान (2:233, 17:24, 31:14, 46:15) ने बच्चे की परवरिश के मामले में माँ बाप पर संयुक्त जिम्मेदारी का हवाला दिया है, हालांकि बच्चे पैदा करने में माँ के शारीरिक परिश्रम और तकलीफों पर जोर दिया गया है।
• ये रचना की स्थापना या दर्ज़ाबंदी का विशेषाधिकार मर्दों को नहीं देता है और मर्दों और औरतों को बराबरी का दर्जा देता है जो एक ही लिंग से पैदा हुए हैं (6:98, 16:72, 30:21, 49: 13, 53:44) और मर्द अधिक लाभ प्राप्त वर्ग की स्थिति का कोई कारण नहीं पेश करता है।
• जन्नत से आदम अलैहिस्सलाम के बाहर निकलने का मामला (2:30-38) इसी तरह उनकी पसली से माई हव्वा के बाहर आने और शजरे ममनूआ (प्रतिबंधित पेड़) का फल खाने के लिए प्रोत्साहित या जैसा बाइबल में विश्वासघाती भूमिका के इलाही लानत, वगैरह का ज़िक्र इसमें नहीं है। और आखिर में खुदा ने हुक्म दिया कि तुम नीचे उतर जाओ, तुम एक दूसरे के दुश्मन रहोगे ... (2:36) और बादोकुम लेबादिन के पद में आदम अलैहिस्सलाम को इंसानी नस्ल की एक अलामत (प्रतीक) के तौर पर, न कि एक व्यक्ति, या व्यक्तिगत मर्द के रूप में पेश करता है।
• ये मोमिन मर्दों और मोमिन औरतों को बुत परस्त लोगों में से अपना जोड़ा चुनने और बरकरार रखने से मना करने (2:221) और यौन नैतिकता पर (, 24:31, आयत 24:30 के शुरुआती शब्द) के जैसे वाक्य का उपयोग करता है।
• इसने मक्की औरतों को उनके शौहर की गवाही में खड़े हुए बिना ही शपथ लेने और नबी करीम सल्लल्लाहू अलैहे वसल्लम से बैत करने के मामले में सक्षम बनाया (60:12)।
• ये कुंवारेपन को कोई महत्व नहीं देता, बेवा के साथ कोई कलंक नहीं जोड़ता है। यहां तक कि इसके शब्दकोश में बाअख़लाक़ शब्दों का विकल्प शब्द भी नहीं है।
• मुस्लिम औरतों, बड़े हो गए बच्चों (बेटियों सहित) उनको अपने ईसाई समकक्षों के साथ हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम के जन्म के बहुत महत्वपूर्ण मामले पर शपथ लेने का आदेश दिया है (3:59-61)।
• औरतों, मर्दों की तरह और उनके बराबर एक गवाह हो सकती हैं सिवाय व्यापारिक समझौतों के, ये उस वक्त के कड़े व्यापारिक तथ्यों के मद्देनजर था (2:282) जिसे निम्नलिखित में और स्पष्ट किया गया है।
• मर्दों की तरह औरतें स्वतंत्र रूप से आय और संपत्ति की मालिक हो सकती हैं (4:32)।
• मर्दों की तरह औरतें, वैश्विक ज्ञान प्राप्त कर सकती हैं और ख़ुदा की ज़मीन पर उनके खलीफा (khalifah) के रूप में अपनी क्षमता को बना सकती हैं (2:30, 6:165, 27:62, 35:39), खुदा ने इंसान को सर्वश्रेष्ठ संतुलन वाली संरचना में पैदा फरमाया है और इस तरह खुदा ने उन्हें बनाने में हिमायत (समर्थन) की है (95:4, 17:70)।
• कुरान ने एक औरत के (बिना नाम के) ज़मीन के एक (शैबा) क्षेत्र पर शासन करने का ज़िक्र है जो अपने सालारों से सलाह करती है और बाद में वास्तविक ईमान को स्वीकार करती है (27:32-33, 27:44) ।
• कुरान ने हैज़ के खिलाफ सभी मोमानिअत (2:222) को खत्म कर दिया। इस तरह एक औरत नमाज़ और रोज़ा समेत अपने सभी मजहबी फराएज़ को हैज़ के दौरान कर सकती है, जब तक इससे उस पर गैरज़रूरी मेहनत न पड़ती हो। अपनी शारीरिक और मानसिक स्थिति को ध्यान में रखते हुए फैसला उसका होगा।
संक्षेप में ये कि इसमें कोई दो राय नहीं कि महिलाओं के अधिकारों के लिए काम करने वाली किसी महिला को क़ुरान में मातृ सत्तात्मक दृष्टिकोण की झलक दिखाई दे जो सूरे अलनिसा के शुरुआती शब्द में नज़र आता है:
'ऐ लोगो! अपने रब से डरो जिसने तुम्हारी पैदाइश (की इब्तेदा) एक जान से फिर उसी से उसका जोड़ पैदा फ़रमाया फिर इन दोनों में से बकसरत मर्दों और औरतों ( की तख्लीक़) को फैला दिया और डरो उस अल्लाह से जिसके वास्ते से तुम एक दूसरे से सवाल करते हो और कराबतों (में भी तक़वा अख्तियार करो), बेशक अल्लाह तुम पर निगेहबान है (4:1)।
3. समाज में औरतों की भूमिका पर कुरानी दृष्टिकोण बनाम ऐतिहासिक साजिश
औरतों से नफरत करने वाले एक गहरे विरासत, और कुछ साफ तौर पर कमजोर कथन की तहरीरों (लेखन) ने [7] औरतों पर विभिन्न पाबंदियों को लागू करने के लिए 'मुस्लिम विद्वानों को प्रोत्साहित किया। ऐसी पाबंदिययों की किसी भी सूची से कोई मकसद हल होने वाला नहीं है, लेकिन ये कहना सही है कि वर्तमान समय में मुस्लिम औरतों को उच्च शिक्षा प्राप्त करने की कोशिश, कॉर्पोरेट कार्यालयों में मर्दों के साथ कांधे से कांधा मिलाकर काम करने, अकेले सफर करने, या अपनी पसंद के किसी हलाल पेशे को अपनाने की हौसला शिकनी की जाती थी। ये कुछ मिसालें हैं जिनका हवाला दिया जा सकता है। लेकिन, जैसा कि उपरोक्त समीक्षा में कहा गया है, कुरान, औरतों पर इस तरह की कोई पाबंदी नहीं लगाता है। वास्तव में कुरानी दृष्टिकोण से, अगर मर्द खुद यात्रा कर सकते हैं या तालीम हासिल कर सकते हैं, रोज़गार के लिए हलाल पेशा अपना या काम कर सकते हैं, तो इसी तरह औरतें भी कर सकती हैं। लेकिन क़ुरान कहता है कि किसी भी गतिविधि में भाग लेने के लिए मर्दों और औरतों दोनों का चयन उनके बाहरी वातावरण में उपलब्ध सुविधाओं के पाबंद होती हैं। इस तरह आज एक औरत पूरी दुनिया में बिना अपने सरपरस्त के यात्रा कर सकती है जबकि एक सदी पहले उसे पड़ोस के गांव तक जाने और अपनी सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए किसी मर्द रक्षक या साथी की जरूरत होती थी। सारांश ये कि कुरान ने मर्दों को औरतों का अभिवावक नहीं बनाया बल्कि उनसे अपेक्षा की जाती है वो उनके संगी और मददगार बनें (अवलिया, 9:71)। जबकि मर्दों पर परिवार की वित्तीय जरूरतों की जिम्मेदारी दी गई है, औरत भी ये भूमिका अदा कर सकती है, ये मियां बीवी की आय पर निर्भर करता है (4:34)।
ये सभी कुरानी मिसालें स्पष्ट और पूरी तरह से इसके लैंगिक समानता का प्रदर्शन करती हैं। लेकिन कुरान के सामाजिक और नैतिक सिद्धांतों की रौशनी में इस तरह की बराबरी बदले के तौर पर नहीं है, लेकिन आपसी समझऔर देखभाल की बुनियाद पर है। मर्दों के तर्जीह देने वाली कानूनी हैसियत की वकालत करने वाले अब भी औरतों के खिलाफ अपने भेदभावपूर्ण विचारों को बढ़ाने के लिए आयत 2:282 का हवाला देंगे। इसलिए इस आयत को स्पष्ट करने की जरूरत है।
क्या एक मर्द गवाह का विकल्प दो औरतें (2:282) होने का कुरानी निर्देश अनन्त है?
माहिरीने कानून कुरान की आयत 2:282 में एक व्यापारिक समझौते के लिए एक मर्द गवाह के लिए दो औरतें गवाह लेने के आदेश को एक औरत की कम बुद्धि/ कानूनी स्थिति के एक सबूत के तौर पर हवाला देते हैं। किसी एक कुरानी आयत से ऐसे किसी निष्कर्ष पर पहुंचना गुमराह करने वाला है, जैसा कि क़ुरान मजीद दूसरे सभी गवाही के हालात में लैंगिक निष्पक्षता को बनाए रखता है, विशेष रूप से:
• जब यतीमों को उनकी संपत्ति वापस की जाये, जब वो एक समझदार उम्र तक पहुँच जायें (4:6)।
• वसीयत की गवाही (5:106-107)।
• एक कथित व्यभिचार की गवाही (4:15, 24:4)।
• तलाक के पालन में गवाही (65:2)।
ऐतिहासिक रूप से व्यापार एक ऐसा पेशा रहा है जिसे मर्दों का पेशा कहा जाता था क्योंकि इसमें खतरनाक इलाक़ों की यात्रा और घरों से दूर रहना शामिल होता था। इसलिए, आम निर्देश यही है कि दो मर्द गवाहों को लें, अगर दो मर्द गवाह उपलब्ध नहीं हैं, तब सिर्फ एक मर्द और दो औरतें गवाह लेने होंगे। आदेश के अस्तित्व का ये आयाम आयत को सातवीं शताब्दी के अरब में जीवन के भौतिक पहलू के ज़ुमरे में रखती है, जैसे पक्षियों को पकड़ने के लिए शिकारी जानवरों का इस्तेमाल (5:4) और दुबले ऊँटों पर काबा का सफर (22:27), या घुड़सवारी का इस्तेमाल (8:60)। लेकिन कुरान बार बार मुसलमानों को विचार, चेतना और तफहीम के लिए कहता है और तब्काती (वर्ग) मामलों और यहां तक की पारिवारिक मामलों (2:233) में परामर्श के लिए कहता है (3:159 42:38)। इस तरह ये स्पष्ट है कि कुरान मुसलमानों को संस्कृति के रास्ते में सातवीं शताब्दी के अरब पर नहीं रहने देना चाहता है। ये विकास के लिए, समय के साथ भौतिक और व्यापारिक मिसलों को बदलने के लिए गुंजाइश छोड़ता है। इसलिए संभावित रूप से खलीफा हज़रत उमर रज़ियल्लाहु अन्हा ने एक औरत शिफा बिन्ते अब्दुल्ला को मदीना में बाजार की निगरानी का काम सुपुर्द किया था [8] जबकि इस्लामी इतिहास में अनगिनत औरतें प्रोफेसर, माहिरीने कानून हुई हैं जिन्होंने बहुत से मर्दों को शिक्षा और फ़िक़्ही प्रमाणपत्र से नवाज़ा है। इस तरह अगर सभ्यता के विकास में, औरतों के व्यापार में सक्रिय भागीदारी को सीमित करने के पारंपरिक रुकावटों को दूर कर सकता है, तो कुरान की विशेष गवाही की आवश्यकताओं को स्थिति के अनुसार बदला जा सकता है और एक औरत व्यापारिक समझौतों और अन्य कानूनी मामलों में मर्दों के बराबर खड़ी हो सकती है।
निष्कर्ष: उपरोक्त में कुरान की मिसालें सामूहिक रूप से बिना किसी शक के स्पष्ट करते हैं कि ये मर्दों को औरतों पर कोई विशेषाधिकार या प्राथमिकता कानूनी हैसियत नहीं प्रदान करता है। सिर्फ मामलों में, विशेष रूप से एक व्यापारिक समझौता और भाई बहनों के बीच विरासत के बंटवारे की गवाही में करता है, ये कुरान के लिए संभावित रूप से समय से पहले था कि वो औरतों को मर्दों के बराबर का अधिकार दे। लेकिन, शादी में मर्दों और औरतों के अधिकार और दायित्व (ऊपर 1) और लैंगिकता से संबंधित मिसालें जिनको इस बातचीत में संक्षिप्त में बयान किया गया है, वो सभ्यता के विकास के साथ औरतों के सशक्तिकरण करने के लिए संभावना प्रदान करता है। इस तरह पिछले दो सदियों के दौरान प्रतिद्वंद्वी संस्कृतियां जो कि दमनकारी और अमानवीय पुरुष प्रधान प्रणाली जो औरतों से नफरत की हद पर थी इससे लैंगिक समानता तक आई हैं और उनके लैंगिक गतिशीलता में क्रांतिकारी परिवर्तन की रौशनी में, मर्दों की औरतों पर सरपरस्ती और तर्जीही कानूनी हैसियत के इस्लामी शरई आदेश को निलंबित किया जा सकता है। मुस्लिम औरतों को मर्दों के बराबर सक्षम किया जा सकता है, जो समाज में उनके बारे में इलाही कल्पना के अनुसार हो (ऊपर 3)। लेकिन, जिस तरह एक औरत अपने शौहर के साथ जबर्दस्ती यौन समंबंध नहीं कर सकती है और जैसे एक मर्द बच्चे को जन्म नहीं दे सकता है, वैसे ही इस्लाम में बदला या पूरी तरह लैंगिक समानता नहीं है, लेकिन इसमें लैंगिक असमानता भी नहीं है, और अगर कुछ है तो विशेषाधिकार का पैमाना औरतों की तरफ झुका हुआ है।
नोट्स
"1. कोई भी कुरानी आयत जो 'हमारे आक़ा की राय के खिलाफ जाए उन्हें रद्द समझा जाएगा, या प्राथमिकता के नियम को इस पर लागू किया जाएगा। ये बेहतर है कि आयत की व्याख्या इस तरह की कि जाये कि वो उनकी राय के अनुसार हो- इक्सट्रैक्टेड फ़्राम डाक्टरीन ऑफ इजमा इन इस्लाम, अहमद हुसैन, नई दिल्ली, 1992, पृष्ठ 16।
2. इस वेबसाइट पर पोस्ट किया गया लेख प्राचीन इस्लामी कानून अल्लाह के अल्फाज़ नहीं हैं (भाग-1)
3. दूध छुड़ाने के लिए आयत 31:14 के दो साल (24 महीने) की तुलना आयत 46: 15 में 30 महीने की मेहनत की अवधि का उल्लेख है वो इसलिए कि छह महीने गर्भावस्था की अवधि शामिल है 46:15। ये समझा जा सकता है क्योंकि दस सप्ताह के अंत में भ्रूण बमुश्किल छह सेंटीमीटर लंबा होता है और गर्भावस्था के तीसरे महीने के बाद ही यह एक बोझ बन जाता है। डब्ल्यू जे हैमिल्टन, इन्ट्रोडक्शन टू बायोलोजी, थर्ड एडिशन, 1976 यू के, पृष्ठ 115।
4. मोहम्मद यूनुस और अशफाक अल्लाह सैयद, इसेन्शियल मेसेज ऑफ इस्लाम, आमना पब्लिकेशन, अमेरिका, 2009 अलअज़हर अलशरीफ, काहिरा (2002) से स्वीकृत और यूएलसीए, अमेरिका के प्रसिद्ध कानून दां और आलिम डॉक्टर खालिद अबुल फज़ल से सत्यापित।
5. इस वेबसाइट पर पोस्ट किया गया लेख। कुरान सामाजिक मानदंड के रूप में एक निकाह का आदेश देता है।
6. जस्टीनियन कोड: बैजेन्टाइन सम्राट जस्टेनियन प्रथम ने (527-565) राज्य के विभिन्न क्षेत्रों में लागू किए गए नियमों को एक जगह जमा करने और स्थापित करने का काम दिलाया (529) जिसमें बाद में उनके अपने नियमों को शामिल करने के लिए विस्तार किया गया (534) और एक बहुत ही व्यापक लिखित बातचीत (कारपस ज्युरस स्वेलस) तैय्यार हुई। ये मध्यकाल के ज़माने तक ईसाईयत में कैनन कानून की बुनियाद था, और आज तक ये फ़िक़्ह पर हवाले का एक व्यापक लेख माना जाता है।
7. सही अहादीसो से इस तरह के मामलों की मिसालें:
सुबह तक फरिश्ते उस औरत पर लानत भेजते हैं जो रात में शौहर के करीब जाने से इन्कार करती है।
सही बुखारी, अंग्रेजी अनुवाद मोहसिन खान, नई दिल्ली, 1984, वाल्यूम 7, एक्सेशन 121, 122
सुबह तक फरिश्ते उस औरत पर लानत भेजते हैं जो रात में शौहर के करीब जाने से इन्कार करती है, और (खुदा) जो आसमान में है नाराज़ रहता है जब तक कि आदमी अपनी औरत से खुश न हो जाए।
औरत जिसका शौहर रात को उससे संतुष्ट है और रात आराम के साथ गुज़ारता है, वो जन्नत में दाखिल होगी।
सही इमाम मुस्लिम, उर्दू अनुवाद- वहीदुज़्ज़माँ, दिल्ली- 19, वाल्यूम 4 ..., किताबुन्निकाह, एक्सेशन 43, 44, पृष्ठ- 55
8. निम्नलिखित वेबसाइट पर: themodernreligion.com / women / recognition.html
खालिद अबुल फज़ल के ऑन रिकगनीशन ऑफ वुमैन इन इस्लाम पर लेख से लिया गया।
मोहम्मद यूनुस ने आईआईटी से केमिकल इंजीनियरिंग की शिक्षा हासिल की है और कार्पोरेट इक्ज़ीक्युटिव के पद से रिटायर हो चुके हैं और 90 के दशक से क़ुरान का गहराई से अध्ययन और उसके वास्तविक संदेश को समझने की कोशिश कर रहे हैं। इनकी किताब ‘इस्लाम का असल पैग़ाम’ को साल 2000 में अलअज़हर अलशरीफ, काहिरा की मंज़ूरी प्राप्त हो गयी थी और इसे यूसीएलए के डॉ. खालिद अबुल फ़ज़ल का समर्थन भी हासिल है। मोहम्मद यूनुस की किताब ‘इस्लाम का असल पैग़ाम’ को आमना पब्लिकेशन मेरीलैण्ड, अमेरिका ने साल 2009 में प्रकाशित किया।
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