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Hindi Section ( 16 Apr 2021, NewAgeIslam.Com)

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Can Women Lead Men in Prayers क्या महिलाएं नमाज़ में मर्दों की इमामत कर सकती हैं


मुश्ताक जमील, न्यू एज इस्लाम

उर्दू से अनुवाद न्यू एज इस्लाम

इस्लाम सार्वजनिक स्थानों पर मर्दों और औरतों के इख्तिलात (मेल-जोल) की हिमायत नहीं करता। असल में, इस्लाम में इसकी सख्त मुखालिफत की गई है, इसलिए कि मर्दों और औरतों (गैर महरम) के इख्तिलात को नैतिक और लैंगिक अपराध के कारण के तौर पर देखा जाता है। इस्लाम में मर्द और औरत की अलैह्दगी को, पर्दे (ढांपने) के संबंध में कुरआनी आयत के नुज़ूल के जरिये कानूनी शक्ल दी गई है।

इस्लाम में कुछ ऐसे रहनुमा उसूल बनाए गए हैं, कि किस तरह और किस हद तक, मर्द और औरतें एक दोसरे के साथ मुआमलात कर सकते हैं। हालांकि सार्वजनिक स्थानों में जाने के संबंध में इन पर पुर्णतः पाबंदी नहीं लगाई गई है, इसलिए कि उन्हें कुछ शर्तों के साथ कुरआन के जरिये, गैर महरम मर्दों के साथ कारोबार करने की अनुमती दी गई है, और यहाँ तक कि कुछ महिलाओं को जंग में विभिन्न मोर्चों पर लड़ने की भी अनुमति दी गई थी, इससे महिलाओं को हर चीज की आजादी नहीं मिलती, चाहे आम मुआमलात में, या मज़हबी मुआमलात में।

इसलिए बहस का एक विषय यह रहा है, कि क्या औरतें, मर्द इमामों के पीछे, मस्जिदों में इज्तिमाई नमाज़ में शिरकत कर सकती हैं। जबकि इस्लाम के पैगम्बर (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की जिन्दगी में, जिन्होंने औरतों की नमाज़ की इमामत की, केवल यह मख्लुत जमाअत की नमाज़ की औरतों की इमामत के लिए, एक काबिल ए एतिमाद नज़ीर बन सकती। तथापि, एक या दो हदीसें ऐसी हैं जिसमें है कि महिलाओं को मर्दों और औरतों की मखलूत जमाअत की नमाज़ की इमामत करने की इजाज़त दी गई है।

एक हदीस ऐसी है जो महिला इमामों की नज़ीर पेश करती है, हदीस इस तरह है:

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने उम्मे वर्का को, वह औरत जिन्होंने कुरआन को जमा क्या था, अपने इलाके के लोगों की नमाज़ की इमामत करने का आदेश दिया। उनके पास अपना मोअज्जिन था। १ (الفتح الربانی لترتیب مسند امام امام احمد بن حنبل ۔ شیبانی مع شرح بلوغ الامانی)

इस हदीस के अनुसार, उम्मे वर्का को हुजुर नबी करीम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने अपने इलाके (दार) की नमाज़ की इमामत के लिए हुक्म दिया था। तथापि, अरबी लफ्ज़ दार में उलेमा किराम का इख्तिलाफ है जिसका अर्थ घर और इलाके हैं, जैसे दारुल इस्लाम या दारुल हरब दोनों है। उलेमा की राय है कि, चूँकि उम्मे वर्का एक मज़हबी आलिम और कुरआन को जमा करने वाली और हाफ़िज़े कुरआन थीं, इसी लिए उन्हें अपने गिरोह, कबीले, या संबंधित खानदानों के मजमा की इमामत का हुक्म या इजाजत दी गई थी, जैसा कि अरब मुआशरे में दस्तूर था। उस ज़माने में घर आज की तरह मरकजी खानदान के नहीं थे, बल्कि इसी कबीले या फिरके के खानदानों की एक जमाअत होती थी। उनके मिसाल से यह भी स्पष्ट हो जाता है,कि एक औरत एक मुफ़्ती एक मज़हबी इमाम भी बन सकती है, अगर इसके पास कुरआन, सुन्नत और फिकह का मतलूबा इल्म है।

एक ऐसी हदीस है जिससे साबित होता है कि, औरतों ने हुजूर नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की इमामत में मस्जिदों में सामूहिक नमाज़ में शिरकत की हैं।

अबू हुरैरा ने रिवायत की है कि रसूलुल्लाह (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फरमाया: (अगर नमाज़ में कुछ होता है) तो अल्लाह की तकबीर मर्दों के लिए है, और हाथों की ताली औरतों के लिए है। हर्मला ने उनकी रिवायत में यह इज़ाफा किया है कि इब्ने शहाब ने उनसे कहा: मैंने कुछ उलेमा ए किराम को अल्लाह की तकबीर, और इशारा करते हुए देखा है। (सहीह मुस्लिम: ८५०)

अगर नमाज के दौरान कुछ गलती होती है, तो इस हदीस में मर्दों को अल्लाहु अकबर और औरतों को ताली बजाने का हुक्म दिया गया।

एक और ऐसी हदीस है जिस से ज़ाहिर होता है कि औरतों को भी मस्जिदों में नमाज़ में शिरकत करनी चाहिए:

अबू हुरैरा ने कहा कि: मर्दों के लिए सबसे आला दर्जे की सफ पहली है, और सबसे कमतर दर्जे की सफ आखरी सफ है, और औरतों के लिए सबसे बेहतरीन साफ आखरी सफ है और उनके लिए सबसे कमतर दर्जे की सफ पहली सफ है। (सहीह मुस्लिम ८८१)

इस सिलसिले में एक और हदीस है:

सहल बिन साद ने रिवायत की: मैंने देखा कि एक मर्द, बच्चों की तरह, अपने कम कपड़ों को, कपड़े की कमी की वजह से, अपनी गर्दनों के गिर्द बांधे हुए अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के पीछे, नमाज़ अदा कर रहा था। मुनादी लगाने वालों में से एक ने कहा: ऐ मस्तुरात अपने सर नहीं उठाएं जब तक मर्द (उन्हें) अपना सर ना उठा लें। (सहीह मुस्लिम: 883)

एक दूसरी हदीस, जिससे औरतों को मस्जिदों में जाने की इजाज़त साबित होती है:

सलीम ने इसकी रिवायत अपने बाप (अब्दुल्लाह बिन उमर) से की है, कि अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फरमाया कि: जब औरतें मस्जिद में जाने के लिए इजाज़त तलब करें, तो उन्हें मना मत करो। (सहीह मुस्लिम:884)

एक और हदीस से इस मसले का तस्फिया होता है:

इब्ने उमर ने रिवायत की: औरतों को रात में मस्जिद में जाने की इजाज़त दो। उनके बेटे ने जिनका नाम वाकिद है कहा कि:  तो वह फसाद पैदा करेंगी। (रावी) ने कहा: उन्होंने उन (बेटे) के शाने पर थपकी मारी और कहा कि: मैं तुम से अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की हदीस ब्यान कर रहा हूँ, और तुम कहते हो: नहीं! (सहीह मुस्लिम: 890)

अब्दुल्लाह (बिन उमर) की बीवी जैनब ने रिवायत की: अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने हम से कहा: जब तुममें से कोई मस्जिद आए तो, उसे खुशबु नहीं लगानी चाहिए। (सहीह मुस्लिम: 893)

उपरोक्त सभी हदीसें इस बात की तस्दीक करती हैं कि रसूलुल्लाह (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने महिलाओं को मस्जिदों में जाने की इजाज़त दी है। तथापि मस्जिदों में जाना उनके लिए आवश्यक नहीं किया गया था। नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने केवल इतना कहा कि, अगर कोई औरत मस्जिद में नमाज़ अदा करना चाहती है तो रात में भी उसे ऐसा करने से नहीं रोका जाना चाहिए। महिलाओं को यह कहा गया था कि जब वह मस्जिद में जा रही हों तो, खुशबु ना लगाएं।

ऐसा नहीं था कि रसूलुल्लाह (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की ज़िन्दगी के दौरान, मुकद्दस सहाबा और आम मुसलमानों के तह्फ्फुजात नहीं थे, लेकिन उन्हें इस मामले में रसूलुल्लाह (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के मौकफ़ को कुबूल करना पड़ा। ऊपर बयान की गई हदीस से ज़ाहिर होता है कि कुछ मुकद्दस सहाबा अपनी औरतों को मस्जिदों में भेजने के ख़याल पर मुत्तफिक नहीं थे। उनके तहफ्फुजात, आजादी के उन समाजी और अखलाकी प्रभाव पर आधारित थे जो औरतों को दी गई थी। उन्होंने सोचा कि रात की नमाज़ के लिए और सहीह में नमाज़ ए फज्र के लिए औरतों को मस्जिद में जाने की इजाज़त देना, खतरों से भरा हुआ हैऔर नैतिक और लैंगिक अपराध के लिए रास्ता पैदा कर सकता है। इसके उलट, मज़हबी अकीदों के मामले में, नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का दृष्टिकोण, अत्यंत फलदायक और खुले विचारों वाला था। उनका नजरिया, यह था कि, किसी औरत को, फर्ज़ नमाज़ों की अदायगी के लिए, मस्जिद में जाने से कोई भी शख्स, केवल इस शक या अंदाज़े के बिना पर नहीं रोक सकता, कि मस्जिद जाने की आड़ में, वह अनैतिक या लैंगिक अपराध का खूगर हो सकती है। ऐसा करने का मतलब सभी औरतों को खराब और असुरक्षित समझना होगा। एक दुसरा दृष्टिकोण है, कि कुछ समाज दुश्मन तत्व को, रात या सुबह के समय में, औरतों को हरासां करने का मौक़ा मिल सकता है, जिसकी तरदीद इस बुनियाद पर की जा सकती है कि, औरतों की हिफाज़त को यकीनी बनाना हुकूमत की जिम्मेदारी है, इसलिए, कानून नाफ़िज़ करने वाले इदारों की नाकामी की वजह से, महिलाओं को महरूम नहीं होना चाहिए।

हज़रत आयशा ने एक हदीस में, इस वर्ग के डर को बयान कर दिया था:

उमरहअब्दुर्रहमान की बेटी ने रिवायत की कि: मैंने सुना है, आयशा, अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की अहलियत, फरमाती हैं: अगर अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने इन नई बातों को देखा होता, जो औरतों ने करना शुरू कर दिया है (अपनी ज़िन्दगी के रास्ते में) तो उन्होंने अवश्य मस्जिद में जाने से रोक दिया होता, जैसा कि बनी इस्राइल की औरतों को रोक दिया गया था। (सहीह मुस्लिम: 895)

तथापि, पिछले कुछ सालों से, भारत और पश्चिम में कुछ औरतों की संगठने, मस्जिद में, मर्दों के साथ नमाज़ अदा करने के, अपने अधिकारों के लिए लड़ रही हैं। तथापि, उनके मुतालबात को स्वीकार नहीं किया, और मस्जिदों में महिलाओं की शमूलियत के इंतज़ाम नहीं किये गए। यह उनके, भारत में खुली जगहों पर, ईद अल फ़ित्र और ईद अल अजहा की तरह कुछ अहम् तेह्वारी नमाज़ों के आयोजन का कारण बना।

इसलिये, यह बात स्पष्ट हो जाती है, कि इस हकीकत में कोई इख्तिलाफ नहीं है, कि महिलाओं को मस्जिदों में नमाज़ अदा करने, और महिलाओं की इमामत करने की भी इजाज़त दी गई है। बल्कि बहस का एक विषय यह है कि महिलाओं को मुसलमानों की मख्लूत (मिली-जुली) जमाअत की नमाज़ों की इमामत की इजाज़त दी जानी चाहिए या नहीं।

वह लोग जो औरतों के जरिये मर्दों और औरतों की नमाज़ की इमामत के हक़ में हैं, वह उम्मे वर्का की मिसाल पेश करते हैं, जिन्हें कथित तौर पर अपने दार (बिरादरी, कबीले और खानदानों के मजमा) की इमामत करने की इजाज़त दी गई थी, बल्कि हुक्म दिया गया था। यहाँ दार से एक मख्लूत जमात मुराद लेते हैं। इससे यह भी नतीजा अख्ज़ किया गया है कि, एक औरत अपने घर में नमाज़ की इमामत कर सकती है, जहां उसके खानदान के मर्द और औरत मेम्बर मौजूद हों। लेकिन जदीद दौर पश्चिम में मख्लूत जमात की औरतों के जरिये इमामत की एक रिवायत नहीं रही है बल्कि यह नज़ीर खारजियों के दौर में भी पाई जाती है जो बदकिस्मती से मुस्लिम फिरकों में सबसे अधिक कदामत पसंद हैं।

गज़ाला जो कि, खारजी फिरके के हबीब इब्ने यज़ीद अल हुरुरी की बीवी थी उसने कूफा में 699 ई० में, मर्द सिपाहियों की, एक जमात की हैसियत से, नमाज़ की इमामत की थी, जिससे ख़याल किया जाता है कि एक औरत मर्दों की इमामत कर सकती है अगर उसके पास इस्लाम का मतलूबा इल्म हो। इससे पहले, अबू सुफियान की बेटी, जवेरिया ने जंगे यरमूक में नमाज़ की इमामत की थी।

पश्चिम जो औरतों से संबंधित मामलों में आज़ाद ख्याल है, और औरतों के पास एक जारेहाना ज़हनियत है, जो कि बचपन से ही उनमें पुख्ता हो गया है, उसने औरतों की केवल मुसलमान मर्दों के जरिये कायम किये गए बुनियाद को तोड़ने की हौसला अफजाई की है। इसलिए वह नौमुस्लिम औरतें जिन्होंने इस्लाम कुबूल किया, अपने साथ लीबरल ज़हनियत लाइ हैं, उनके साथ इस्लाम का भी मुताला किया, और यह पाया कि उन्होंने जो नया दीन इख्तियार किया है, उसने उन्हें बड़ा किरदार अता किया है।

सबसे पहली अमीना वदूद, एक इसाई जिसने इस्लाम कुबूल किया है, वह इस्लामी इस्कालर है, जिसने क्लियर माउन्ट में रोड मस्जिद, केपटाउन, दक्षिण अफ्रिका में जुमा का खुतबा दिया था। यह एक रिवायत तोड़ने वाला इकदाम था जिसने दोसरे खातून इस्लामी इस्कालर और तानिसियत के मज़हबी आलम बारदारों को, इस इस्लाही रिवायत को आगे ले जाने की हौसला अफजाई की। और दुसरे मुकर्रेरीन जिन्होंने केपटाउन और जोहांसबर्ग में जुमे का खुतबा दिया वह, आयशा जेनिफर रोबर्ट्स, ज़किया सेगोरो, फरहाना इस्माइल, और मोई फैदा जाफर थीं। अगले दो साल के अंदर अंदर, अफ्रिका में मस्जिदों में औरतों के जरिये नमाज़ की इमामत की यह रिवायत आम हो जाए गी, जहां मर्द और औरतें दोनों इमाम के तौर पर काम करेंगे।

यह ज़िक्र किया जाना चाहिए कि, औरतों के जरिये नमाज़ की इमामत की रिवायत की तरवीज, इसाई नौमुस्लिम औरतों के जरिये की गई है, हालांकि पैदाइशी मुस्लिम महिलाओं ने भी इस सिम्त में इमामत करना शुरू कर दिया है। यह रिवायत कैनेडा में जड़ पकड़ गई है, जहां औरतें मस्जिदों में नमाज़ की इमामत कर रही हैं। यूनाइटेड मुस्लिम एसोसिएशन और मुस्लिम कैनेडियन कांग्रेस, औरतों को मस्जिदों में मर्दों और औरतों के मजमे की नमाज़ की इमामत करने का मौक़ा देने की तहरीक के पहले सफ में हैं। मरियम मिर्ज़ा, यास्मीन शदीर, राहील रज़ा और पामेला जे टेलर, टोरंटो की मस्जिदों में ईद और जुमे की नमाज़ की इमामत में मुमताज़ हैं।

मराकिश में एक मस्जिद के बारे में कहा जाता है कि वह औरतों को तरबियत दे रही है ताकि वह मस्जिदों में इमामों के तौर पर काम करें। तुर्की में हुकूमत मस्जिदों में, वाइज़ (मुबल्लेगीन) के तौर पर औरतों की नियुक्ती के काम में व्यस्त है। हुकूमत, मक्का हज के लिए जाने वाली जमात की इमामत करने जैसे, विभिन्न मज़हबी मकासिद के लिए, और मस्जिदों के इमामों के काम की निगरानी के लिए, नायब मुफ़्ती मुकर्रर करती है।

2008 ई० के बाद से अमीना वदूद और राहील रज़ा ने, बरतानिया और अमेरिका में भी जुमे की इमामत करने की रिवायत शुरू की है। और भी, दोसरे मुस्लिम और गैर मुस्लिम अक्सरियत वाले देश हैं जहां इसी तरह रिवायत पर अमल किया जा रहा है।

तथापि ऐसा नहीं है कि महिला मुबल्लेगीन और इमामों की इस नई रिवायत को, विरोध का सामना नहीं हुआ है। अमीना वदूद को कत्ल की धमकियां दी गई हैं और मख्लूत मजमे को बरतानिया में रुढ़िवादियों की तरफ से मस्जिदों के बाहर, हरासां किया गया है। लेकिन पश्चिम में अफ़्रीकी देशों में मख्लूत जमात की, महिलाओं के जरिये इमामत का नज़रिया मुसलमानों के बीच आम हो गया है।

जहां तक इस्लामी इतिहास में इसकी नज़ीर की बात है, यह एक अत्यंत संतोषजनक तस्वीर पेश नहीं करता। खारजियों के ख्यालात वसीअ सुन्नत वल जमात के लिए काबिले कुबूल नहीं हैं। मैदान ए जंग में, अबू सुफियान की बेटी और हरुरिया की बीवी के जरिये नमाज़ में मर्दों की इमामत की नज़ीर, आज अमन के दौर में, उस पर अमल करने के लिए मिसाल नहीं बन सकती है। उन्हें जंग के वक्त की आशद जरूरत समझा जा सकता है। और वह कि जिसमें हुजुर (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने उम्मे वर्का को उनके कबीले की सूरत ए हाल के अनुसार एक मखसूस सूरते हाल हो सकती है। ऐसी कोई आम हदीस नहीं है जिसमें मस्जिदों में मख्लूत इज्तिमाआत की इमामत करने के लिए सभी महिलाओं को इजाज़त हो। और वह खुली हकीकत भी, कि इस्लाम आज़ादाना तौर पर अवामी मुकामात में अजनबी मर्दों और औरतों के इख्तिलात को मंज़ूर नहीं करता, मस्जिदों में महिला इमामों की हिमायत करने वालों के खिलाफ जाती है।

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