मोहम्मद एख़लाक़, न्यु एज इस्लाम
16 अप्रैल, 2013
(उर्दू से अनुवाद- समीउर रहमान, न्यु एज इस्लाम)
''सूफ़ी'' शब्द ''सुफ'' से बनता है और अरबी भाषा में इसका मतलब ''सुफ्फा'' है, यानी ''दिल की सफाई।'' कुछ लोग इसे फ़ारसी शब्द ''सूफ'' से जोड़ कर 'पश्मीना पोश'' या ''कम्बल जैसा मोटा गरम कपड़ा पहनने वाले' से लेते हैं। तो कुछ इसे 'सफ़' से जोड़कर बताया कि क़यामत के दिन पहली सफ़ (पंक्ति) में जो नेक जन्नती लोग होंगे, ''सूफ़ी हैं।''
''सूफ़ी'' शब्द को ''सूफ़ा'','' सुफाना' और 'सूफ़' के अर्थ में प्रयोग किया गया है। शेख अवुल नस्र सिराज ने लिखा कि ''सूफ़ी अपने ज़ाहिरी लिबास की वजह से सूफ़ी कहलाए। यानी भेड़ों के ऊन के कपड़े पहनना अम्बिया (नबियों), औलिया और सूफियों की ख़ास पहचान रही है। मौलाना अब्दुर्रहमान जामी रहमतुल्लाह ने ''सबसे पहले सूफ़ी के रूप में अबू हाशिम कोफ़ी को बताया। ''यानी पहली हिजरी में भी 'सूफ़ी' शब्द था। उसी को शेखुल इस्लाम ताहिरुल क़ादरी ने किताबे सुन्नत की रौशनी में यूँ बयान किया है कि ''सूफियाए इस्लाम'' ने जो सूफ़ीवाद अपनाया वो आख़री पैगम्बर सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम के पवित्र जीवन का नैतिक पहलू है। इसको सभी सिलसिलों के सूफियों ने और सिलसिलए चिश्तिया के बुजुर्गों ने खास तौर से अपने सूफ़ीवाद के सिद्धांत की बुनियाद करार दिया है।''
दाता गंज बख्श अली हजवेरी लाहौरी रज़ियल्लाहू अन्हू ने अरबी के 'सुफ्फा' और हिंदुस्तानी शब्द ''सफाई'' से जोड़ उसका बयान यूँ किया है। सूफ़ी वो है जो अपने नश्वर अस्तित्व को परम सत्य की खोज में डूबा दे और दुनियावी ख्वाहिशों से मुक्त होकर आध्यात्मिकता और सत्यता से अपना रिश्ता जोड़ ले। सादगी, उच्च नैतिकता, न्यायप्रियता और दूसरों की इज़्ज़त करना सूफ़ी चरित्र की बुनियाद है। दुनियावी व शारीरिक इच्छाओं से बचना, आत्मा और अपनी ज़रूरतों पर क़ाबू रखना सूफ़ी की आदत में होता है। और सूफ़ी अपने को तपा कर मैं और तुम की बंदिशों से पाक हो जाता है।''
दाता गंज बख्श अली हजवेरी रज़ियल्लाहू अन्हू फ़रमाते हैं, 'हया के फूल, सब्र व शुक्र के फल, अज़ व नियाज़ की जड़, ग़म की कोंपल, सच्चाई के दरख्त के पत्ते, अदब की छाल, हुस्ने एख़लाक़ के बीज, ये सब लेकर रियाज़त के हावन दस्ते में कूटते रहो और इसमें इश्क़े पशमानी का अर्क़ रोज़ मिलाते रहो। इन सब दवाओं को दिल की डेकची में भरकर शौक के चूल्हे पर पकाओ। जब पक कर तैयार हो जाए तो सफ़ाए क़ल्ब की साफी में छान लेना और मीठी ज़बान की शक्कर मिलाकर मोहब्बत की तेज़ आंच देना, जिस वक्त तैयार हो कर उतरे तो उसे ख़ौफे ख़ुदा के हवाले से ठंडा कर इस्तेमाल करना।'' ये ही वो महान नुस्खा है जो इंसान को इश्के ख़ुदा की भट्टी में तपा कर आज भी कुंदन कर सकता है। सूफियों की इबादत, नेक अमल और उच्च नैतिक मूल्यों का व्यावहारिक जीवन होता है। ये लोग रसूलुल्लाह सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम की शिक्षाओं और सहाबा के नक्शे कदम पर अमल करते हुए, कुरानी की शिक्षाओं को अपना कर इबादत को अपने जीवन का उद्देश्य बना लेते हैं। सूफियों का हर अमल सिर्फ़ अल्लाह की रज़ा की खातिर होता है। दुनिया के ज़ायके और हवस की खातिर नहीं।
इस्लाम में सूफ़ीवाद दुनिया को छोड़ने का नाम नहीं। इस बारे में महबूबे इलाही निज़ामुद्दीन औलिया रहमतुल्लाह अलैहि ने फ़रमाया, दुनिया तर्क (छोड़ने) का ये अर्थ नहीं कि, कोई अपने आपको तंग करे और लंगोट बाँध कर बैठ जाए, बल्कि तर्के दुनिया ये है कि लिबास भी पहने, खाना भी खाए और हलाल की जो चीज़े उन्हें पहुँचे उसे इस्तेमाल करे लेकिन उन्हें इकट्ठा करने की ओर प्रेरित न हो और दिल को उससे न लगाए। (फ़ौदुल फ़वाइद अज़- निज़ामुद्दीन औलिया रहमतुल्लाह अलैहि), तर्के दुनिया है।''
ख्वाजा गरीब नवाज़ मोइनुद्दीन चिश्ती रहमतुल्लाह अलैहि फ़रमाते हैं, अल्लाह का वली बनने के लिए पहला क़ौल ये है कि मज़लूमों की फरियाद सुनना, बेचारों की आवश्यकता को पूरी करना और भूखों को खाना खिलाना'' ख्वाजा ग़रीब नवाज़ मोइनुद्दीन चिश्ती रहमतुल्लाह अलैहि ने फ़रमाया कि अल्लाह के वली में तीन विशेषता होनी चाहिए:- 1- दरिया के जैसी सखावत (उदारता), 2- आफ़ताब की सी मोहब्बत, 3- ज़मीन के जैसी खाकसारी''। आगे फ़रमाते हैं कि सूफ़ी का बहुलता में वहदतुल वजूद का जलवा दिखाई देता है। आपने मारफत के मक़ाम और आरिफ के कमालात यूँ लिखे हैं। ''आरिफ'' ज्ञान के सभी क्षेत्रों से परिचित होता है, इसरारे इलाही के हक़ाएक़ और नूरे इलाही की अनुभूति करता है। आरिफ 'इश्के इलाही में खो जाता है और उठते- बैठते, सोते- जागते उसकी प्रकृति में खोया और उससे परिचित रहता है।
हर फक़ीर सूफ़ी नहीं हो सकता है। हज़रत जलालुद्दीन बुखारी रहमतुल्लाह अलैहि के नज़दीक फ़क़ीर के लिए ये चीजें अनिवार्य हैं। ''पश्चाताप, ज्ञान, हलम, मारफत (अनुभूति), बुद्धि, फियत (भलाई), दया, प्रेम, गरीबी, नैतिकता, बेचारगी, ख़ौफ़, विश्वास, ग़रीबी, शौक, तजदीक, आनंद, रियाज़त, सौभाग्य, हसर, मस्ती, हिम्मत, मोहब्बत, वस्ल, क़र्ब, अदब, इश्तियाक़ (तीव्र इच्छा), तस्लीम और दीदार (दर्शन)।''
दिल्ली में एक बड़े सूफ़ी बुज़ुर्ग हुए अमीर ख़ुसरो रहमतुल्लाह अलैहि जिनका कलाम सुफ़ियों का तज़किरह और सूफ़ी सोच व अंदाज़ का एक बड़ा ख़ज़ाना है। वो एक साथ सूफ़ी थे और सिपाही भी। वो शायर के साथ इतिहासकार भी थे। आज भारत व पाक में जब भी जहां भी किसी सूफ़ी का उर्स हो उसमें ''रस्मे कुल' के साथ 'रंग' और 'सुफ़ियाना कलाम की क़व्वाली' बिना 'कलामे ख़ुसरो'' के कभी भी पूरी नहीं होती।
प्रोफेसर उन्वान चिश्ती के अनुसार, सूफ़ीवाद व्यक्ति के व्यावहारिक, नैतिक और रूहानी व्यक्तित्व का गठन करता है, तो दूसरी तरफ एक नेक और निःस्वार्थ समाज के निर्माण पर ज़ोर देता है। ये उच्च नैतिकता और चारित्रिक महानता हमें हर एक सूफ़ी में मिलती है। इसी शीर्षक में डॉ. तनवीर चिश्ती के अनुसार, ''सूफ़ीवाद का उद्देश्य मनुष्य में नैतिकता जैसे गुण, खुदा का ख़ौफ़, और प्रेम जैसी स्थिति, दुनिया से बेनियाज़ी, बेरग़बती (अनाकर्षण), खामोशी, अकेले रहना जैसे भौतिक रुझान, फिक्र, रातों को जागना, खुदा का ज़िक्र, इबादत जैसे कामों को बढ़ावा देना ताकी आत्मा में आवश्यक गुण (दादे सुफ़्फा) जाग सके।'' सूफ़ी को एक साथ विलायत और वेलादत दोनों एजाज़ात हासिल होते है। फ़ौदुल फ़वाइद अज़- निज़ामुद्दीन औलिया रहमतुल्लाह अलैहि)। जो रिश्ता सूफ़ी का ख़ुदा से होता है वो 'विलायत'' है। जो मामले खुदा के बन्दों के साथ है वो 'वेलादत' का रिश्ता है।''
इस्लाम में सूफ़ीवाद का रूप यूँ समझ में आ जाता है। हज़रत अनस बिन मालिक रज़ियल्लाहू अन्हू से रवायत है कि ''हज़रत हारिसा रज़ियल्लाहू अन्हू से सरकार सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया ... ऐ हारिसा तेरे ईमान की क्या हक़ीक़त है? हज़रत हारिसा रज़ियल्लाहू अन्हू ने जवाब दिया या रसूलुल्लाह सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम, मेरे ईमान की ये हक़ीक़त है कि मैंने ख़ुदा को दुनिया से अलग कर लिया यानि मैंने दुनिया को दिल से निकाल दिया, और रातों को जागता हूँ यानी यादे इलाही में लगा रहता हूँ। और अब ये आलम हो गया कि मैं अर्शे आज़म को बेनक़ाब देखता हूँ। ये सुनकर पैगम्बर सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया हारिसा तू आरिफ हो गया है, तू राज़ को जान गया है। इस हाल को थामे रहना और इस पर दृढ़ता से लगे रहना।
हज़रत शेख शहाबुद्दीन सोहरावर्दी ने यूँ फ़रमाया कि सूफ़ीवाद के इल्म (ज्ञान) का औसत पालन, इश्क की इंतेहा और अताए इलाही है। इस परिभाषा के अनुसार सूफ़ीवाद के तीन पहलू हुए:- इल्मी (ज्ञान), अमली (व्यावहारिक) और इश्क़े हक़ीक़ी (वास्तविक प्रेम)। और गूढ़ रूप से यहाँ ये समझे कि ''आलिम का सूफ़ी होना ज़रूरी नहीं बल्कि सूफ़ी का आलिम होना ज़रूरी है। 'इसके बारे में कुरान की ये हिदायत कि ''ख़ुदा से डरो जैसा डरना चाहिए। ताकि इंसान गुनाहों से पाक रहे।'' मगर किताबे इलाही ही फ़रमाती है,''औलिया अल्लाह को ना कोई ख़ौफ न ख्रतरा, उनकी हिफ़ाज़त ख़ुद ख़ुदा करता है।' ये बात है सूफ़ी संतों के नेक अमल की।
ख़ुदा हम सभी को उनके नक्शे कदम पर चलकर एक नेक समाज के निर्माण की तौफ़ीक़ अता करे।
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