मौलाना वहीदुद्दीन खान
१७ अक्टूबर २०१३
बहुत सारे गैर मुस्लिम बहुसंख्यक देशों में, मुस्लिम जमाअतें
उन इलाकों की आज़ादी के लिए लड़ रही हैं जहां मुसलमान अधिक संख्या में हैं। मिसाल के
तौर पर कश्मीर, दक्षिणी फिलीपींस, दक्षिणी
थाईलैंड, चेचन्या और सिंक्यांग आदि में ऐसे ही हालात हैं।
गैर मुस्लिम राज्यों में रहने वाली मुस्लिम जमाअतें यह समझती हैं कि वह गैर कानूनी
तौर पर काबिज़ हुकमरानों के खिलाफ लड़ रही हैं। इन विवादों में बहुत अधिक खून बह
चुका है लेकिन इसका बिलकुल ही कोई मुसबत (सकारात्मक) परिणाम ज़ाहिर नहीं हुआ। इन
विवादों ने उन लोगों के लिए केवल स्थिति को बद से बदतर बना दिया है और ख़ास तौर पर
खुद उन मुस्लिम जमाअतों के लिए।
कभी कभी, अलगाव या आजादी हासिल करने के उद्देश्य के
तहत उन पर हिंसा विवादों का जवाज़ पेश करने के लिए यह बात कही जाती है कि गैर
मुस्लिम अक्सरियत खुले तौर पर उन अल्पसंख्यक मुस्लिम जमाअतों की इस्लामी पहचान या
संस्कृति को तबाह कर रही है। इसलिए यह दावा किया जाता है कि आज़ादी का उनका मुतालबा
उनके अकीदे और इस्लामी पहचान को महफूज़ करने के लिए इस्लामी तौर पर जायज़ है।
तथापि अलगाव की यह राजनीति जिसमें विभिन्न देशों में
मुसलमान मसरूफ हैं मुकम्मल तौर पर गैर इस्लामी है। इसका इस्लामी शिक्षाओं के साथ
कोई संबंध नहीं है। कुरआनी इस्तेलाहात में इसे असंगत (९:३०) कहा जाता है जिसका
अर्थ गैर मोमिनों की पैरवी करना है। ऐसी राजनीति की बुनियाद वह जदीद तसव्वुर है
जिसे ‘खुद इरादियत’ का नाम दिया जाता है। आधुनिक राजनीतिक
सिद्धांत के अनुसार ‘खुद इरादियत’ किसी
देश या कौम का वह हक़ है जिसके जरिये उन्हें खारजी असर व रसूख से प्रभावित हुए बिना
ही खुद अपने तर्ज़े हुकूमत के निर्धारण का इख्तियार हासिल होता है या दुसरे शब्दों
में किसी खित्ते के लोगों का अपनी तर्ज़े सियासत का निर्धारण करने का हक़ है। यह वह
राजनीतिक कल्पना है कि जिसे मुसलमानों ने इस्लाम में शामिल करने की कोशिश की है।
यह दावा करना पूरी तरह से गलत है कि कोई ख़ास देश या कौम
मुस्लिम संस्कृति को तबाह करने की कोशिश कर रही है और इस तरह खुद इरादियत के नाम
पर हिंसक विवादों का जवाज़ प्रदान करने के लिए इसे प्रयोग करना अस्वीकार्य है। इस
आधुनिक दुनिया में हर व्यक्ति अपनी सभ्यता को अपनाने के लिए आज़ाद है। मैंने दुनिया
भर में सफर किया है और मैं यह कह सकता हूँ कि मैंने कभी ऐसा कोई देश नहीं पाया कि
जहां मुसलमानों के व्यक्तित्व को तबाह करने की कोशिश की जा रही हैं। यह मुकम्मल
तौर पर गलत आरोप है।
कभी कभी एक गैर मुस्लिम बहुसंख्यक राज्य से आज़ादी और अलगाव
के लिए मुस्लिम अल्पसंख्यकों के संघर्ष का जवाज़ या दावा करते हुए पेश किया जाता है
कि यह राज्य बहुत अच्छी तरह मंसूबाबंदी के साथ मुस्लिम बहुसंख्यक ‘कब्ज़ा किये हुए’
इलाकों में मुसलमानों को एक अल्पसंख्या में परिवर्तित करने की कोशिश
कर रही हैं। इसलिए यह दलील दी जाती है कि गैर मुस्लिम बहुसंख्यक राज्यों से अलगाव
और उससे आज़ादी हासिल करने का संघर्ष इस्लामी तौर पर जायज़ है।
यह दलील भी मुकम्मल तौर पर गलत है। इस्लाम मुसलमानों को एक
अलग राज्य कायम करने या राजनीतिक आज़ादी के लिए संघर्ष करने का आदेश कभी नहीं देता
है। इस्लाम के मुताबिक़ राजनीतिक निज़ाम सामाजिक हालात का मामला है। सामाजिक हालात
ही राजनीतिक निज़ाम का निर्धारण करते हैं। एक स्वयम्भू स्यासी निज़ाम के कयाम के लिए
किसी तहरीक का आगाज़ करना गैर इस्लामी है। यह भी कहना गलत है कि कोई ख़ास देश
मुस्लिम बहुसंख्यक इलाकों को मुस्लिम अल्पसंख्यक इलाके में परिवर्तित करने का
मंसूबा बना रहा है। मौजूदा राज्यों से अलग होने के लिए हिंसक संघर्ष का आगाज़ करना
तमाम देशों यहाँ तक कि एक मुस्लिम देश के लिए भी नाकाबिले बर्दाश्त है। इसलिए
सिंक्यांग (चीन) या अराकान (म्यांमार) या दुसरे स्थानों पर जो हो रहा है जहां
अलगाव के लिए हिंसक आन्दोलन के नतीजे में बड़ी संख्या में लोग मारे जा रहे हैं वह
केवल मुसलमान अपनी ही गलत नीतियों की कीमत अदा कर रहे हैं। और उन देशों के इकदामात
आक्रामक नहीं बल्कि रक्षात्मक हैं।
मैं हमेशा मुसलमानों के लिए दावत की अहमियत पर ज़ोर देता
हूँ। दुनिया के हर हिस्से में मुसलमानों की सिर्फ एक ही ज़िम्मेदारी है और वह है
लोगों को राहे खुदा की दावत देना। मुसलमानों को शांतिपूर्ण तरीके से दावत के काम
में मसरूफ होना चाहिए और दुसरे सभी चीजों को खुदा पर छोड़ देना चाहिए। दावत एक
लाजमी इस्लामी फरीज़ा है। दावत कुद्त्री तौर पर दुसरे धर्मों के लोगों के साथ करीबी
रब्त के मुताल्बे में मौजूद हैं जहां के मुसलमान दुसरे धर्मों के लोगों के साथ
रहते हैं। इस सिलसिले में जब विभिन्न गैर मुस्लिम बहुसंख्यक देशों में बहुत से
नस्ली जमाअतें अलगाव और आज़ादी का मुतालबा करती हैं (जैसा कि बेशक बहुत से
हिन्दुस्तानी मुसलमानों ने पाकिस्तान के मुतालबे में इसकी तकसीम तक किया) तो वह
खुद दावत के इमकानात को नुक्सान पहुंचा रही हैं क्योंकि केवल मुस्लिम देशों में, जिनकी वह
ख्वाहिश रखते हैं कि उनमें गैर मुस्लिमों की मौजूदगी ना हो, दावत
के मौके फितरी तौर पर कम होंगे इसके बजाए अगर वह गैर मुस्लिम बहुसंख्यक वाले देशों
में अल्पसंख्यकों के तौर पर रहते तो दावत के अधिक मौके मिलते।
अलगाव की राजनीति दावती संस्कृत के लिए एक घातक जहर है।
दावत आलमगीरियत और रवादारी का मुतालबा करती है जबकि अलैह्दगी आलमगीरियत की रूह को
खत्म कर देती है। इस तरह की पालिसी एक राजनीतिक आविष्कार है। इसका इस्लाम के साथ
कोई संबंध नहीं है। इस सिलसिले में यह बात अत्यंत सबक आमोज़ होगी कि सूफी हज़रात आम
तौर पर अकेले रहने की ऐसी मानसिकता के हामिल नहीं बन जाते बल्कि वह सरगर्म अंदाज़
में खल्के खुदा के साथ संबंध बनाने की कोशिश करते हैं और यहाँ तक कि गैर मुस्लिमों
के बीच रहते भी हैं। और उन्होंने दावत में एक अत्यंत महत्वपूर्ण किरदार अदा किया
है।
सूफिया हक़ पर थे। उन्होंने मुस्लिमों के सामने इस्लाम को
सहीह तरीके से पेश किया है। जो लोग सूफियों के खिलाफ हैं उनके पास इस्लाम की तरफ
से इसका कोई माकूल जवाज़ नहीं है बल्कि वह अपने स्वयंभू इफ्कार व नज़रियात की
बुनियाद पर सूफियों के खिलाफ हैं। वह इस्लाम को सियासत ज़दा करने की कोशिश करते हैं
और वह इस मानसिकता के आधार पर सूफीवाद को नहीं सराहते। जो लोग सियासी और सकाफाती
अलैह्दगी की वकालत करते हैं वह दावत की राह में बड़ी रुकावटें पैदा करते हैं।
दुसरे शब्दों में मुस्लिम अलगाव का यह रुझान दावत के लिए
हानिकारक है और इस वजह से यह गैर इस्लामी है। इस तरह की अलैह्दगी सियासी और सकाफती
दोने एतेबार से गलत है। इस्लाम इस किस्म की अलैह्दगी पसंद पालिसियों का हुक्म नहीं
देता है। अलैह्दगी की यह सियासत कोई नेकी नहीं बल्कि एक गुनाह है। और इसी वजह से
मुसलमान खुदा की मदद से महरूम होते जा रहे हैं। और इस तरह हर जगह उनकी सरगर्मियां
नुकसानदेह साबित हो रही हैं हालांकि वह चीजों की इलाही मंसूबा बंदी के खिलाफ हैं।
मुस्लिम पाकिस्तान बनाने में तो कामयाब रहे लेकिन उसकी तखलीक के साथ साल के बाद भी
पाकिस्तान एक नाकाम रियासत है क्योंकि इसे खुदा की रहमतें हासिल नहीं हुईं।
दुनिया भर में मुस्लिम अलैह्दगी के इस मजकुरा रुझान के लिए
किस तरह कोई ज़िम्मेदार हो सकता है? कभी कभी यह केवल एक मत्लुबा अलग मुस्लिम या
मुस्लिम बहुसंख्यक देश की शकल इख्तियार कर लेता है। जब यह संभव ना हो सके तो भी
कभी यह ऐसे मुसलमानों के साथ जो केवल मुस्लिम खित्ते में ही रहना चाहते हैं,
केवल आपस में ही सामाजिक संबंध कायम करना चाहते हैं, जहां तक संभव हो अपने बच्चों को केवल मुस्लिम स्कूलों में ही भेजना चाहते
हैं और सिर्फ मुसलमानों के साथ दोस्ती कायम करना चाहते हैं आदि, मुस्लिम अलैह्दगी पसंदी की शकल इख्तियार कर लेता है।
इसकी वजह क्या है? इसका जवाब यह है कि आधुनिक दौर में मुसलमानों
ने व्यक्तित्व का एक गलत अवधारणा कर लिया है और वह अपनी इस नाम निहाद पहचान का
तहफ्फुज़ चाहते हैं। इस तरह वह पहचान के तअल्लुक़ से अत्यंत हस्सास हो गए हैं। और पहचान के तअल्लुक़
से उसी गैर फितरी ह्स्सासियत की वजह से वह हर जगह अलैह्दगी चाहते हैं: अलग देश,
अलग कालोनी, अलग इदारे और अलग समाज, आदि।
इस ज़माने में मुस्लिम अलैह्दगी पसंदी एक नया रुझान है। इसका
इस्लाम के साथ कोई संबंध नहीं है। असल में 19 वीं और २० वीं सदी में मुसलमानों ने
एक राजनीतिक पालिसी अपनाई जो कि गैर इस्लामी और गैर हकीकी थी। इसलिए फितरी तौर पर इसमें
नाकामी हाथ आई। और इस नाकामी ने मुसलमानों के बीच शिकस्त खुर्दगी की मानसिकता को
जन्म दिया। आज के मुसलमान शिकस्त खुर्दगी की इसी मानसिकता के साथ जी रहे हैं। और
शिकस्त खुर्दगी की इसी मानसिकता ने मुस्लिम अलैह्दगी पसंदी के रुझान को जन्म दिया
है।
लेकिन कुछ मुसलमान जो गुमान कर सकते हैं इसके उलट इस्लाम
में इसका कोई जवाज़ नहीं है। आपको कुरआन या हदीस में इसका एक भी हवाला नहीं मिल
सकता। इसके अलावा आपको नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की सवानेह हयात और आप
सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के सहाबा की ज़िन्दगी में इस किस्म की सियासत की कोई भी
मिसाल नहीं मिल सकती।
कुछ मुसलमान यह सोच सकते हैं कि इस तरह की सांस्कृतिक या
राजनीतिक अलैह्दगी वैश्विक सतह पर उम्मत और मुस्लिम भाईचारे के एकता के नाम पर
जायज़ है। लेकिन यह गलत है। असल में इस किस्म की अलैह्दगी ने मुसलमानों के बीच
मतभेद को और हवा दी है। मिसाल के तौर पर पाकिस्तान को मुस्लिम एकता के नाम पर कायम
किया गया था। लेकिन अब उस देश में मुसलमान खुद आपस में लड़ रहे हैं। भारत में हम
अमन के माहौल में ज़िन्दगी गुज़ार रहे हैं जबकि पाकिस्तान के मुसलमान खौफ और हिंसा
के साए में ज़िन्दगी बसर कर रहे हैं। यह स्थिति उन तमाम खित्तों की है जहां
मुसलमानों ने अपनी “अलग हुकूमत” कायम की है।
उर्दू से अनुवाद: न्यू एज इस्लाम
मौलाना वहीदुद्दीन खान नई दिल्ली में सेंटर फॉर पीस एंड
स्प्रिचुवलिटी के सरबराह हैं।
URL for English article: http://www.newageislam.com/spiritual-meditations/maulana-wahiduddin-khan/muslim-separatism-is-un-islamic/d/14018
UR for Urdu translation: http://www.newageislam.com/urdu-section/maulana-wahiduddin-khan,-tr-new-age-islam/muslim-separatism-is-un-islamic-مسلم-اعتزال-پسندی-غیر-اسلامی-ہے/d/14114
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