मौलाना खालिद सैफुल्लाह रहमानी (उर्दू से हिंदी अनुवाद- समीउर रहमान, न्यु एज इस्लाम डाट काम)
दौलत और विरासत के मामले में शरीअत का बुनियादी मिज़ाज ये है कि वो किसी एक शख्स के पास न हो कर रह जाये, बल्कि ज़्यादा से ज़्यादा लोगों में वितरित हो। संसाधनों का एक या कुछ हाथों में सिमट कर रह जाना आर्थिक रूप से भी नुक्सानदेह है और सामाजिक और नैतिक रूप से भी। अर्थव्यवस्था का बुनियादी मकसद ये है कि समाज के सभी लोगों की ज़रूरते पूरी हों। कोई भूखा और बगैर कपड़े के न रहे, कोई ऐसा न रह जाये, जो अपना इलाज न करा सके औऱ कोई ऐसा परिवार न रहे जिस के सिर पर छत न हो। अगर किसी देश या समाज में लोगों की ज़रूरत के लिए धन और संसाधन मौजूद हों, और कुछ लोग अपनी बुनियादी ज़रूरतों से भी महरूम हों, तो ये इस बात का संकेत है कि या तो वो आर्थिक व्यवस्था जो उस देश और समाज में अपनायी गयी है, नाकाम है या फिर इस व्यवस्था को न्याय के साथ लागू नहीं किया जा रहा है।
इसी तरह अगर दौलत कुछ हाथों में ही सिमट कर रह जाये तो एक तरफ उन दौलतमंदों में नैतिक बुराईयाँ पैदा हो जाती हैं। ऐशपरस्ती, फुज़ूल खर्ची, घमण्ड, दूसरो को कमतर समझना, उनके साथ अत्याचार करना जैसी बुराईयाँ आ जाती हैं। फिरऔन, क़ारून, हामान और नमरूद वगैरह की बुराईयों की असल वजह यही थी। दूसरी ओर जो लोग इसमें हिस्सा पाने से वंचित रह जाते हैं उनमें प्रतिक्रिया पैदा होती है और वंचित होने के एहसास की वजह से उनमें दौलतमंद लोगों के खिलाफ नफरत का भाव पैदा हो जाता है और वो उनसे लड़ाई पर उतर आते हैं। जिससे समाज की शांति और सुरक्षा पर असर पड़ता है। कम्युनिस्टों का आंदोलन इसी प्रतिक्रिया का नतीजा है। इसीलिए इस्लाम दौलत इकट्ठा करने को नापसंद करता है और इस बात की शिक्षा देता है कि धन दौलत को चलायमान रखा जाये और ज़्यादा से ज़्यादा हाथों तक अल्लाह की इस नेमत की पहुँच हो।
धन के वितरण के लिए शरीअत में जो तरीका बताया गया है इसमें विरासत के बँटवारे की भी व्यवस्था है। इस्लाम से पहले यहूदी कानून में पूरी विरासत पहले लड़के को मिलती थी। न इसमें दूसरे बेटों का अधिकार होता था और न ही बेटियों का। हिंदू धर्म में भी विरासत में हिस्सेदारी सिर्फ मर्दों के हिस्से में आती थी और औरतों को कोई अधिकार नहीं होता था। और इसमें भी संयुक्त परिवार के कई वारिस जब तक विरासत को बाँटने पर राज़ी न हों तब तक विरासत का बँटवारा नहीं हो पाता था। औरतों को तो खुद सम्पत्ति समझा जाता था। लगभग ऐसे ही हालात जमानए जाहिलियत में अरबों का भी था। अरब समझते थे कि जो लड़ने और रक्षा करने की क्षमता रखते है वही विरासत के हकदार हैं, इसलिए औरतों और बच्चों का उसमें कोई हक़ नहीं होता था। ये भी कई मौकों पर औरतों को जायदाद का दर्जा देते थे और सौतेली माँ भी विरासत में बँट जाती थी।
इस्लाम ने विरासत के बँटवारे की एक मुकम्मल व्यवस्था स्थापित की। इस व्यवस्था में खास तौर से तीन बातों का ध्यान रखा गया। पहला ये कि न तो मरने वाले की पूरी विरासत एक दो लोगों में बँट कर सीमित रहे और न ही बँटवारे का दायरा इतना बड़ा हो कि हालत जूते में दाल बाँटने वाली हो जाये, यानि संतुलन हो, न तो एक जगह इकट्ठा हो और न ही बहुत ज़्यादा फैलाव हो। दूसरे, विरासत का हक़दार क़रीबी रिश्तेदार को ही क़रार दिया जाये। वरना ये नाकाबिल अमल बात होगी और दायेरा इतना बड़ा हो जायेगा कि करोड़ों की विरासत में पाँच दस रुपये का हिस्सा तय होगा, जिससे उन लोगों की ज़रूरत किसी भी दर्जे में पूरी नहीं होगी, जिनके लालन पालन की ज़िम्मेदारी मरने वाले व्यक्ति पर थी। तीसरी बात, ये ध्यान में रखी गयी कि ज़िम्मेदारियों के हिसाब से हिस्सेदारों के अधिकार हों। उसे हम यूँ भी कह सकते हैं कि विरासत का कानून बहुत हद तक भरण पोषण के कानून पर आधारित है। मरने वाले व्यक्ति पर जितने लोग निर्भर होंगे, वो उसी आधार पर विरासत के हक़दार होंगे और मरने वाले के सम्बंधित ज़िम्मेदारियों को भी शरीअत में ध्यान रखा गया है। जिन लोगों पर खानदान या समाज से सम्बंधित ज़्यादा ज़िम्मेदारी डाली जायेगी उनका अधिकार ज़्यादा होगा और जिन पर ज़िम्मेदारी कम डाली जायेगी उनका अधिकार कम होगा।
धन के अधिकार और ज़िम्मेदारियों के सिलसिले में आप (स.अ.व.) ने एक सिद्धांत के तौर पर इसका ज़िक्र किया है। इस सिलसिले में इरशाद हैः अलखिराज बिज़्ज़मान (अबु दाऊद, अन आयशा, बाब फी मन इश्तरी अब्दन फस्तामलाहू सुम्मा वज्हू बिही ऐयबन, हदीस नम्बरः3044) यानि जिस व्यक्ति पर जितनी ज़्यादा ज़िम्मेदारी होंगी, उसी के अनुसार उसके अधिकार होंगे। बुनियादी तौर यही मसलहत विरासत के कानून में भी मलहूज़ रखा गया है, जिसके न समझने की वजह से कुछ लोग गलतफहमी का शिकार हो जाते हैं।
अभी कुछ दिनों पहले केरल हाईकोर्ट ने अर्नाकुलम में तथाकथित क़ुरान व सुन्नत सोसायटी की तरफ से केरल और केन्द्र सरकार को पार्टी बनाते हुए अर्ज़ी दी गयी थी कि विरासत के कानून को क़ुरान की सही व्याख्या की रौशनी में बनाया जाये और बेटे और बेटी के हक़ में कोई फर्क न किया जाये। फिर इसकी कई मिसालें दी गयी हैं। इसी तरह की बात शब्दों और दलीलों के फर्क के साथ कई बार दुहराई जाती हैं, और इस्लाम को नाइंसाफी और ज़्यादती करने वाला धर्म बताया जाता है। अफसोस की बात है कि कई ग़ैरमुस्लिम इतिहासकार और कई मुस्लिम बुद्धिजीवी और क़ानून के जानकार भी ऐसी बात कहने लगे हैं कि जो वास्तव में इस्लाम के बारे में जानकारी की कमी और इस्लाम के दुश्मनों के दुष्प्रचार से प्रभावित होने का नतीजा है।
इस सिलसिले में तीन बातें ध्यान में रखनी चाहिए जिनका लिहाज़ शरीअत ने रखा है। पहली बात, कुछ क़रीबी लोग अनिवार्य रूप से विरासत के हक़दार होंगे, उन रिशतेदारों को ‘ज़विल फुरूज़’ कहा जाता है। इनमें मर्द भी हैं और इसी दर्जे की रिश्तेदार औरतें भी हैं। जैसे बाप और माँ, बेटा और बेटी, पति पत्नी। ये बात भी अहम है कि अस्हाबे फुरुज़ में औऱते मर्दो के मुक़ाबले ज़्यादा हैं। औरते सत्रह हालतों में अस्हाबे फुरुज़ की हैसियत से वारिस बनती हैं और मर्द सिर्फ छः हालतों में। दूसरे, जिस शख्स से ज़िम्मेदारिया कम या खत्म हो गयीं हों, उसका हिस्सा उस रिश्तेदारों के मुकाबले कम रखा गया है। जो अभी ज़िम्मेदारियों के मैदान में कदम रख रहा है और जिस पर अपने से सम्बंधित लोगों की ज़िम्मेदारियाँ आने वाली हों, उनका हिस्सा ज़्यादा रखा गया है। जैसे बाप के मुकाबले बेटे का हक़ ज्यादा रखा गया, क्योंकि जब बाप बेटे से वारिस होता है तो आमतौर से वो ज़िंदगी की तमाम ज़िम्मेदारियों से मुक्त हो चुका होता है, या मुक्त होने के करीब होता है। और बेटा जब अपने बाप से वारिस होता है तो उस वक्त आमतौर से उस पर ज़िम्मेदारियाँ सबसे ज़्यादा होती हैं, और उसे बहुत सी धन से जुड़ी हुई ज़िम्मेदारियों को पूरा करना होता है। यही हाल माँ और बेटी का है।
तीसरी बात, ये है कि जिनकी सम्बंधित ज़िम्मेदारियाँ कम रखी जाती हैं इनका हिस्सा कम होता है और जिनकी सम्बंधित ज़िम्मेदारियाँ ज़्यादा हों, उनका हिस्सा भी ज़्यादा होता है। माँ बाप के ज़िम्मे बच्चों का पालन करना है। माँ के ज़िम्मे अपना खुद का पालन भी नहीं है। बेटे पर अपनी बीवी, औलाद और माँ-बाप की ज़िम्मेदारी है। बेटी पर ये ज़िम्मेदारियाँ नहीं हैं। इसलिए बाप का हिस्सा माँ के मुकाबले और बेटे का हिस्सा बेटी के मुकाबले दोगुना रखा गया है। ये न तो लिंग के आधार पर विभेद है और न ही नाइंसाफी है, बल्कि ये ज़िम्मेदारियों के आधार पर अधिकार को तय किया गया है। ये दो आधार है जिन के आधार शरीअत ने विरासत का कानून तय किया है। चूंकि मर्द और औरतो के तमाम रिश्तों में ज़िम्मेदारियों का अनुपात एक सा नहीं होता है, इसलिए बहुत सी सूरतों में एक ही दर्जे के रिश्तेदार मर्दों और औरतों के बीच विरासत के हिस्से में एक और दो के अनुपात का लिहाज नहीं रखा गया है।
आमतौर पर लोग समझते हैं कि शरीअत में हमेशा मर्द के मुकाबले औरत का हिस्सा आधा रखा गया है। ये सिर्फ गलतफहमी और अंजान होने की वजह से है, अगर गहराई से इस मसले पर ग़ौर किया जाये, तो आसानी से विरासत के मामले में औरत के हिस्से को लेकर जो आवाज़ उठाई जाती है, और दुष्प्रचार किया जाता है, तो उसका जवाब उसको मिल जायेगा।
हक़ीक़त ये है कि विरासत के ऐतबार से एक ही दर्जे के मर्द और औरतों व करीबी रिश्तेदारों के सिलसिले में चार सूरतें पाई जाती हैं। (1) वो सूरत जिसमें औरत का हक़ मर्द के मुकाबले आधा है। (2) वो सूरत जिसमें मर्द और औरत का हिस्सा बराबर है। (3) वो सूरत जिसमें मर्द का हिस्सा कम और उसी दर्जे की औरत रिश्तेदार का हिस्सा ज़्यादा है। (4) वो सूरते जिसमें सिर्फ औरते वारिस होती हैं, इसी दर्जे का मर्द रिश्तेदार वारिस नहीं होता है। उन सूरतों में मर्द का हिस्सा औरतों के मुकाबले में आधा होता है।
बाप के मुकाबले में माँ का, शर्त ये है कि मरने वाले ने अपने पीछे कोई वारिस न छोड़ा हो। वास्तविक भाई के साथ वास्तविक बहन और क्षेत्रीय बहन के साथ क्षेत्रीय भाई। पति-पत्नि में से कोई एक मर जाये और दूसरे को छोड़ जाये, इस सूरत में भी बीवी की विरासत में से शौहर को मिलेगा। इसके मुकाबले शौहर की विरासत में से बीवी का हिस्सा आधा होगा। जैसे बिना बच्चे के माँ के मरने पर शौहर को आधा मिलेगा और बिना औलाद के शौहर के मरने पर शौहर की विरासत में से बीवी को चौथाई मिलेगा। इसी तरह औलाद वाले शौहर की विरासत में से बीवी को आठवाँ हिस्सा मिलेगा और औलाद वाली बीवी की विरासत में से पति को चौथाई हिस्सा मिलेगा।
कुछ सूरतों में एक दर्जे के मर्द और औरत रिश्तेदारों के हिस्से बराबर हैं। मैयत का एक लड़का हो और माँ बाप हों तो बाप को भी छठा हिस्सा मिलेगा और माँ को भी। मैय्यत की सिर्फ दो बेटियाँ हों, तो इस सुरत में भी बेटियों को दो तिहाई हिस्सा मिलेगा, मां और बाप को छठा हिस्सा मिलेगा। मरने वाली ने बाप, बेटा और नानी को छोड़ा हो तो बाप और नानी दोनों को छटा हिस्सा मिलेगा, हालांकि नानी का रिश्ता बाप के मुकाबले दूर का है।
कुछ सूरतों में अकेला मर्द रिश्तेदार हो या औरत पूरे विरासत की हिस्सेदार होगी। जैसे किसी ने सिर्फ बाप को छोड़ा हो तो वो ‘अस्बा’ होने की वजह से पूरी विरासत का हिस्सेदार होगा, या सिर्फ माँ को छोड़ा हो तो एक तिहाई उसका असली हिस्सा होगा और दो तिहाई बतौर रद्द उसे मिलेगा, या सिर्फ एक बेटा छोड़ा हो तो ‘अस्बा’ होने के कारण वो पूरी विरासत का हिस्सेदार होगा, और अगर सिर्फ एक बेटी छोड़ी हो तो आधा उसका असल होगा और बाकी बतौर रद्द उसे मिल जायेगा। इस तरह की कई सूरते हैं जिनमें वास्तविक बहन का वास्तविक भाई या इख्याफी बहन का वास्तविक भाई के साथ बराबर का हिस्सा मिलता है।
कुछ सुरतों में औरत का हिस्सा मर्द से बढ़ जाता है, क्योंकि बेटी का हिस्सा ज़विल फुरूज़ होने की हैसियत से कई बार आधा या तिहाई भी हो जाता है। बेटे को अस्हाबे फुरुज़ में होने की हैसियत से आधा या तिहाई हिस्सा नहीं है, बल्कि इस्तलाहे मीरास के मुताबिक ‘अस्बा’ में होने की हैसियत से हिस्सा बाँटने के बाद बचा हुआ हिस्सा उसे मिल जाता है। ये हिस्सा कई बार औरत के उस हिस्से से कम हो जाता है, जो उसे ज़विल फुरूज़ में होने की हैसियत से मिलता है। जैसे मान लीजिए एक औरत ने अपनी मौत के वक्त 60 एकड़ ज़मीन छोड़ी और पति, माँ बाप और दो बेटियों को छोड़ा तो हर बेटी को सोलह एकड़ ज़मीन मिलेगी और अगर इसी सूरत में दो बेटियों के बजाये दो बेटों को छोड़ा, तो हर बेटे का हिस्सा साढ़े बारह एकड़ होगा। इसीतरह एक औरत ने अपनी विरासत में 1156 एकड़ ज़मीन छोड़ी और अपने पीछे पति, माँ-बाप और बेटी हैं तो बेटी का हिस्सा 72 एकड़ होगा और इसी सूरत में बेटी की जगह बेटा है तो उसका हिस्सा 65 एकड़ होगा। इस तरह कई सूरतें हैं जिनमें मर्द के मुकाबले औरत का हिस्सा ज़्यादा होता है।
कई ऐसी सूरते हैं जिनमें मर्द का हिस्सा नहीं होता है लेकिन उसकी उसी दर्जे की औरत रिश्तेदार हो तो विरासत में हिस्सा पाती है। जैसे किसी औरत ने अपने पीछे पति, माँ-बाप और पोती को छोड़ा हो तो पोती छटे हिस्से की हक़दार होगी और पोती के बजाय पोता हो तो उसे कोई हिस्सा नहीं मिलता है। इसी तरह मरने वाली औरत ने पति, वास्तविक बहन, क्षेत्रीय बहन को छोड़ा है तो क्षेत्रीय बहन छटे हिस्से की हक़दार होती है। क्षेत्रीय बहन के क्षेत्रीय भाई हो तो उसे कोई हिस्सा नहीं मिलता है। इसी तरह कई बार दादी वारिस होती है और घर वालों में से जो इसके मुकाबले हो वो वारिस नहीं होता है।
शरीअत में ऐसी बहुत सी सूरते हैं जिन में मर्द के मुकाबले औरत का हिस्सा मर्द के मुकाबले बराबर या ज़्यादा होता है, या औरत हिस्सेदार होती है और मर्द वंचित रहता है। एक जानकार ने साबित किया है कि तीस से ज़्यादा हालतें ऐसी हैं जिनमें औरत मर्द के बराबर या या उससे ज़्यादा हिस्सा पाती है या वो अकेली हिस्सेदार होती है और मर्द वंचित रहता है, जबकि चार तयशुदा हालात ऐसे हैं जिनमें औरत का हिस्सा मर्द के मुकाबले आधा होता है। अगर इसको ध्यान में रखकर औरत की विरासत में हिस्सेदारी पर ग़ौर किया जाये तो साफ मालूम होता है कि ये समझना कि मर्द के मुकाबले में औरत को कम हिस्सा दिया जाता है, सिर्फ गलतफहमी है और जिन सूरतों में औरते का हिस्सा कम है उनमें फर्क सिर्फ फर्ज़ और ज़िम्मेदारियों के लिहाज़ से रखा गया है, बल्कि औरत को इसमें भी रिआयत का ही लिहाज़ रखा गया है, क्योंकि मर्द पर सारे खानदान के पालन पोषण की ज़िम्मेदारी है। औरत पर खुद अपने पालन की भी ज़िम्मेदारी नहीं है। इस लिहाज़ से बाहरी तौर पर औरत का हिस्सा आधे से भी कम होना चाहिए, लेकिन औरत की प्रकृतिक कमज़ोरी को ध्यान में रखकर राआयत करते हुए उसे आधे का हक़दार करार दिया गया है।
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