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Hindi Section ( 3 Oct 2011, NewAgeIslam.Com)

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The need for Muslim unity मुसलमानों में एकता की आवश्यकता


मौलाना इसरारुल हक़ कास्मी (उर्दू से अनुवाद-समीउर रहमान,न्यु एज इस्लाम डाट काम)

हिंदुस्तान में मुसलमानों की एकता की आवश्यकता पर हमेशा ज़ोर दिया गया है। ये आवाज विभिन्न क्षेत्रों से पूरे ज़ोर शोर से उठती रही हैं, लेकिन उलमा की तरफ से जिस तेज़ी औऱ गंभीरता के साथ काम किया जा रहा है उसके परिणाम दूरगामी होंगे। एक अच्छी खबर ये है कि एशिया के सबसे बड़े दीनी तालीमी इदारे दारुल उलूम देवबंद के फतवा आनलाइन सेक्शन ने एक इस्तफ्ता के जवाब में लिखा कि शिया-सुन्नी एकता स्थापित होने की सूरतें मौजूद हैं। ये एक अच्छी शुरुआत है। इसके दूरगामी परिणाम होंगे। मसलकी ऐतबार से किसी को बांधा नहीं जा सकता है। न ऐसा करना मुमकिन है और न ही इस कोशिश का कोई फायदा होगा। हम मुसलमान अक़ीदये तौहीद (एक ईश्वर पर विश्वास) पर कोई समझौता नहीं कर सकते हैं। लेकिन इसके बावजूद सियासी और सामाजिक तौर पर हम करोड़ों देवी देवताओं के मानने वालों से सम्बंध रखते हैं या नहीं? जहाँ तक मुस्लिम समुदायों की बात है तो वो सभी एक खुदा के मानने वाले हैं। आखिरी नबी मोहम्मद (स.अ.व.) पर उनका यक़ीन है। नमाज़, रोज़ा, हज और ज़कात पर भी सभी अमल करते हैं, इसके बाद के मतभेद कोई खास नहीं हैं। अगर मान लिया जाये कि किसी एक या दो से ज़्यादा मुद्दों पर कोई बुनियादी मतभेद भी हो तब भी हमें सियासी और सामाजिक एकता किसी चीज़ से नहीं रोकती। स्वस्थ वाद-विवाद के लिए हमेशा गुंजाइश रहनी चाहिए, तब भी ऐसी बहस से बचना ही चाहिए जिससे किसी मसलकी तब्के के अक़ीदे को ठेस पहुँचती हो। अलबत्ता अगर कोई मसलकी तब्का एक खुदा के विश्वास के खिलाफ काम करता है तो उसको समझाना और सीधे रास्ते पर लाना दीनी फ़र्ज़ में शामिल है। लेकिन इसके लिए भी ज़ोर ज़बर्रदस्ती करना या किसी का दिल दुखाना किसी भी तरह जायेज़ नहीं है। इसके बावजूद अकीदा खत्मे नबूवत के खिलाफ काम करने वालों से मुसलमानों का कोई समझौता मुमकिन नहीं है।

हाल ही में मुसलमानों के बीच एकता के विषय पर मुम्बई में एक कांफ्रेंस हुई। दारुल उलूम के आनलाइन इस्तफ्सा की रौशनी में इस कांफ्रेंस की बड़ी अहमियत है। इसमें कमोबेश मुसलमानों के सभी तब्कों ने शिरकत की और मुसलमानों के बीच एकता पर ज़ोर दिया। ये कहना बहुत सही है कि जब तक मुसलमानों में मिल्लत का दर्द नहीं होगा उस वक्त तक हालात बदलने वाले नहीं हैं। इसमें शक नहीं कि एकता ही वो रिश्ता है जिसमें मुसलमानों की ताकत छिपी हुई है और इसी ताकत से हम विरोधियों और इस्लाम दुश्मन ताकतों का सामना कर सकते हैं। मुसलमानों को सीसा पिलाई हुई दीवार की तरह एकजुट होना चाहिए और मज़बूत होना चाहिए। लेकिन विडम्बना ये है कि वो न जाने कितनी तरह के मतभेदों से दोचार हैं जिसके कारण उनको विभिन्न समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। फिल्म निर्देशक महेश भट्ट ने जिन शब्दों का प्रयोग अपनी तकरीर में किया हमें उनकी गहराई को महसूस करना चाहिए। उन्होंने कहा कि जब देश का 15 से 30 करोड़ देवी देवताओं को मानने वाला एक समुदाय संगठित है तो क्या कारण है कि एक खुदा, एक क़ुरान और एक रसूल और एक काबा को मानने वाले मुसलमानों में बिखराव क्यों है? इसी तरह शिया आलिमे दीन मौलाना कल्बे जव्वाद ने कहा कि पैग़म्बरे इस्लाम ने कहा था कि मेरी उम्मत 73 फिरकों में बँट जायेगी, लेकिन साथ ही ये भी कहा था कि इस्लाम एक जिस्म की तरह रहेगा। मैं यहाँ ये भी जोड़ना चाहूँगा कि रसूलुल्लाह (स.अ.व.) ने ये भी कहा था कि इख्तेलाफे उम्मत रहमतह, मेरी उम्मत का मतभेद रहमत होगा तो इसका पूरी तरह अर्थ ये था कि कई मसलकों के बावजूद भी इस्लाम एक जिस्म व जान की तरह रहेगा। और यही बात हमारी एकता के लिए काफी है।

पिछली 14 सदियों में कई बार ऐसे मौके आये हैं कि ये महसूस होने लगा कि  मिल्लत टूट और बिखर जायेगी। बहुत से ऐसे गिरोह और फिरके सामने आये जिन्होंने मिल्लत की एकता का तोड़ने की कोशिश की। अनगिनत ऐसे फितने सामने आये जिन्होंने इसको इस तरह कुतर डालने की कोशिश की, जैसे कैंची पान के पत्तों को कुतर डालती है, लेकिन मिल्लत की सामूहिक चेतना और कलमए तैय्यबा के आकर्षण ने इसे बिखरने से सुरक्षित रखा।

इतिहास इस बात का प्रमाण देता है कि इस्लाम कुबूल करने के बाद आपस में कट्टर विरोधी और दुश्मन कबीले भी एक दूसरे के खैरख्वाह हो गये थे और यही इस्लाम की देन थी कि जब इनमें से किसी को तकलीफ पहुँचती थी तो हर एक खुद को तकलीफ में महसूस करता था। ये भी इस्लाम की ही देन थी कि जब जंग के दौरान प्यास लगी तो एक दूसरे की प्यास बुझाने को सबसे पहले जानकर एक सहाबी (रज़ि.) ने अगले वाले सहाबी (रज़ि.) के लिए पानी आगे बढ़ा दिया और यूँ तीनों प्यासे शहीद हो गये। अगर इस्लाम में दाखिल होने से पहले के इतिहास पर नज़र डाली जाए, तो ये आपस में एक दूसरे की शक्ल देखना भी गवारा नहीं करते थे, लेकिन इस्लाम कुबूल करने के बाद एक दूसरे का दुख दर्द महसूस करने लगे थे और ऐसे वक्त में जब प्यास के कारण गला सूख रहा हो और दम निकलने को है, ये उत्तम खयाल हो कि दूसरे की प्यास पहले बुझना ज़रूरी है। इस्लाम हमें एकजुट होने के लिए एक ऐसा अवसर प्रदान करता है जिसके आगे सभी करीबी रिश्तों की भी हैसियत शून्य रह जाती है। ऐसे में हमें एकता के लिए दूसरों की नसीहत लेनी पड़े तो इससे ज़्यादा अफसोस की कोई और बात नहीं होगी। नदवतुल उलमा के प्रबंधक हज़रत मौलान डॉक्टर सईदुरर्हमान आज़मी ने शायद इसी तरफ इशारा करते हुए कहा कि आज हम मुसलमान एकता के उस दौर को भुला बैठे हैं, इसका नतीजा ये है कि हमें ऐसी मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है कि जिनके निशान देख कर हमारे सिर शर्म से झुक जाते हैं। हम दूसरे समुदायों के मुकाबले में बेहद कमज़ोर और बेवज़न साबित हो रहे हैं औऱ आपस में लड़ते हुए ही नज़र आ रहे हैं। हाजी अशरफ अली जीलानी ने सवाल किया कि एकता के तमाम अवसर होने के बावजूद इस्लाम के मानने वालों की एकता बार बार टूटती क्यों है? उनके इस सवाल का जवाब शायद हमारे निजी हितों में छिपा हुआ है। हम छोटे छोटे निजी हितों के लिए मिल्लत के सामूहिक हितों की बलि चढ़ा देते हैं।

दिल्ली में एक प्रोग्राम में खिताब करते हुए जमाअते इस्लामी के अमीर मौलाना जलाल उद्दीन उमरी ने कहा कि मुसलमानों को मज़लूम कौमों की मदद के लिए फौरन उठ खड़े होना चाहिए और ज़ुल्म पर खामोशी अख्तियार नहीं करनी चाहिए। इसमें कोई शक नहीं कि ये समय की आवश्यकता भी है और हमारा दीनी फर्ज़ भी है। लेकिन ये जज़्बा उसी वक्त पैदा होगा जब हमें एक दूसरे से लगाव भी हो। मुझे इस मौके पर एक वाकेआ याद आता है। अहमदाबाद में एक मसलक के मानने वालों ने एक बोर्ड पर लिख दिया कि फलां फलां मसलक के लोगों का मस्जिद में दाखिला मना है। इस पर मीडिया ने मुतास्सिर मसलक के इमाम से कहा कि क्या आप भी दूसरे मसलक के मानने वालों पर इसी तरह की पाबंदी लगाएंगें? तो उन्होंने कहा कि नहीं, हम ऐसी किसी पाबंदी पर यक़ीन नहीं रखते हैं। मस्जिद अल्लाह का घर है और इसमें आने से किसी मुसलमान को रोका नहीं जा सकता। यहाँ हमारा मकसद किसी विशेष मसलक की आलोचना करना नहीं है बल्कि इस तरफ इशारा करना है कि सभी मसलक के बड़े उलमा को इस रुझान को रोकने का प्रयास करना चाहिए। इसलिए कि अगर इस तरह के तत्वों को हतोत्साहित न किया गया तो इसमें और बढ़ोत्तरी की संभावना है और आज नहीं तो कल ये और ज़्यादा बिखराव का कारण बनेगा।

मुम्बई के जलसे के प्रस्ताव में ये बात बिल्कुल सही कही गयी है कि मसलकी बहस को निजी महफिलों तक ही सीमित रखा जाए, आम जलसों में मुसलमानों की आम समस्याओं पर ही ध्यान दिया जाये। इसमें शक नहीं कि मुसलमानों की आम समस्याओं का सम्बंध उनकी शिक्षा, आर्थिक और सामाजिक पिछड़ेपन से ही है। अगर उलमा और सियासी लीडर इस पर ध्यान दें तो औऱ मसलकों की सामाजिक एकता के लिए काम करें तो कोई वजह नहीं कि 20-25 करोड़ मुसलमानों की समस्याओं के हल के लिए दर दर भटकना पड़े। सामाजिक एकता से हम बड़े बड़े काम निकाल सकते हैं, तो मुसलमानों की एकता से हम सभी प्रकार की सफलता प्राप्त कर सकते हैं। पंजाब से इस सिलिसले में एक अच्छी खबर आई है कि वहाँ एक गाँव में 62 साल से गैर-आबाद एक मस्जिद को सिखों और हिंदुओं ने मुसलमानों के हवाले कर दिया। इस कामयाबी का सेहरा वहाँ के शाही इमाम हबीबुर्रहमान सानी लुधियानवी के सिर जाता है। उन्होंने पंजाब में जो समाजी एकता का वातावरण बनाया है मस्जिद की हवालगी उसी वातावरण के कारण सम्भव हो सकी। पंजाब में इससे पहले भी सिख समुदाय कई मस्जिदों को मुसलमानों के हवाले कर चुका है। अगर मुसलमान, इनके उलमा और लीडर पूरे देश में यही वातावरण बनायें तो मुसलमानों को अपने अधिकार पाना मुश्किल नहीं, लेकिन इसके लिए हमें खुद अपने बीच एकता पैदा करनी होगी। हमारी एकता के आगे खुद विरोधियों और दुश्मन ताकतों की हिम्मत नहीं होगी। सियासी ताकतें भी हमसे खौफ खायेंगी और कोई भी हमारे शोषण के बारें में सोच भी नहीं सकेगा। मसलकी मतभेद के कारण हम एक दूसरे से समाजी दुश्मनी पैदा कर लेते हैं। मसलकी मतभेद केवल ज्ञान के लिए होने वाली बहस तक सीमित हो तो ठीक है, लेकिल जब इस बहस से दुश्मनी और आरोप-प्रत्यारोप का काम लिया जाने लगे, तो फिर इसके सकारात्मक की जगह नकारात्मक प्रभाव सामने आने लगते हैं। आज हमारे साथ यही हो रहा है। हमने इसी को सवाब का कारण समझ लिया है कि हम मसलक की बुनियाद पर एक दूसरे के ऊपर कीचड़ उछालें औऱ खुश हो जायें। बहरहाल दारुलउलूम के जवाब और विभिन्न प्लेटफार्मों से उलमा की एकता की मुहिम से आशा करनी चाहिए कि हम हिंदुस्तानी मुसलमान अपनी एकता का शानदार इतिहास इसी दशक में दर्ज करा सकेंगे। खुदा का शुक्र है कि मिल्लत एक ऐसे अक़ीदे, एक ऐसे नज़रिये और एक ऐसी वैश्विक विचारधारा को मानने वाली है, जिसने हमेशा इससे मज़बूती हासिल की है और बिखराव की तमाम आंधियों के मुकाबले पैर जमाये रखने, एक मरकज़ (केन्द्र) व महवर (ध्रुव) पर कायम रहने की शक्ति प्रदान की है। इंशाअल्लाह विचारधारा और विश्वास उस वक्त तक कायम रहेगा जब तक मिल्लत के अंदर कलमए तैय्यबा का चिराग़ उनके दिलों में रौशन है।

स्रोतः जदीद खबर, नई दिल्ली

URL for Urdu article: https://newageislam.com/urdu-section/the-need-muslim-unity-/d/2324

URL:  https://newageislam.com/hindi-section/the-need-muslim-unity-/d/5609

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