मौलाना असरुल हक़ क़ास्मी
16 मार्च, 2013
(उर्दू से अनुवाद- समीउर रहमान, न्यु एज इस्लाम)
औलाद, अल्लाह की तरफ से निश्चित रूप से माँ बाप के लिए बड़ी नेमत है जिसकी मांग है कि वो इस नेमत पर अल्लाह के शुक्रगुज़ार हों और अपनी औलाद की अच्छे अंदाज़ में परवरिश और तर्बियत (प्रशिक्षण) करें। आमतौर पर माँ बाप अपने बच्चों से बहुत प्यार के कारण जहाँ तक सम्भव हो उसकी सुविधाओं का ध्यान रखते हैं और बहुत से लोग उसकी तालीम और तर्बियत पर अच्छी खासी रक़म खर्च करते हैं। दरअसल वो चाहते हैं कि उनके बच्चे कामयाब हों और उनके बेहतरीन वारिस बनें, लेकिन वर्तमान समय की विडम्बना ये है कि बहुत से लोग अपने बच्चों की देखभाल और तर्बियत इस तरह करने लगे हैं कि जो देखने में तो उसके पक्ष में बेहतर दिखाई देती है, लेकिन वास्तविक रूप से वो असली कामयाबी से दूर होता चला जाता है। मिसाल के लिए बहुत से लोग अपने बच्चों के साथ बहुत ज़्यादा प्यार का प्रदर्शन करते हुए उन्हें हर तरह केr विलासिता की सामग्री उपलब्ध कराते हैं, उनके खर्च के लिए बड़ी रकमें देते हैं, जहां वो घूमने के लिए जाना चाहते हैं उन्हें उसकी इजाज़त देते हैं, जिस तरह के कपड़ों की वो इच्छा प्रकट करते हैं, उपलब्ध करते हैं। आगे चलकर जिसका नतीजा ये होता है कि वो गलत राहों में भटकने लगते हैं। अगर शुरू से ही सही दिशा में उनकी परवरिश की जाती, उन्हें अनावश्यक आज़ादी नहीं दी जाती और उनकी सभी इच्छाओं को पूरा करने के बजाय ये सोचा जाता है, क्या उनके हक़ में बेहतर है और क्या गलत, तो ये स्थिति सामने नहीं आती। इसलिए ज़रूरी है कि माँ बाप अपने बच्चों की परवरिश बेहतर तौर पर सावधानी से करें।
वर्तमान समय में ये स्थिति भी सामने रही है कि लोग बिना सोचे समझे अपने बच्चों के लिए ऐसी शिक्षा का बंदोबस्त कर रहे हैं, जिसके भौतिक फायदे नज़र आते हैं लेकिन आध्यात्मिक और नैतिक रूप से बच्चे का भविष्य अंधकारमय हो जाता है, लेकिन क्योंकि आजकल हर चीज़ को भौतिकता के पैमाने पर तौला जा रहा है, इसलिए शिक्षा देते हुए भी इस बात को दृष्टिगत रखा जाता है कि भौतिक लिहाज़ से इस शिक्षा का क्या फायदा है? याद रखना चाहिए कि माल व दौलत को जमा करना वास्तविक कामयाबी नहीं है, इससे दुनियावी ज़िंदगी में थोड़ी सुविधाएं तो हासिल की जा सकती हैं, लेकिन ये ज़रूरी नहीं कि इसके द्वारा दुनिया और आख़िरत (परलोक) की असल कामयाबी भी हासिल हो सके। इसलिए ज़रूरी है कि बच्चों के लिए ऐसी तालीम और तर्बियत का बंदोबस्त किया जाए जो उसे असल कामयाबी से हमकिनार करने वाली हो। माँ बाप को चाहिए कि वो सबसे पहले अपने बच्चों के लिए ये फिक्र करें कि वो जहन्नम (नरक) की आग से बच जाएं, क्योंकि जहन्नम ऐसा बड़ा ठिकाना है जिसके ईंधन इंसान होंगे। अल्लाह इरशाद फ़रमाता है: 'ऐ ईमान वालों! अपने आपको और अपने घर वालों को जहन्नम की आग से बचाओ'(तहरीम: 6)
इसके लिए ज़रूरी है कि माँ बाप अपने बच्चों को ऐसी तालीम और तर्बियत दें जो उन्हें जहन्नम की आग से सुरक्षित रख सके। इसके लिए ज़रूरी है कि बच्चों को दीनी तालीम दी जाय, क्योंकि इसका मकसद ही इंसान को सीधा रास्ता दिखाना, अल्लाह की वहदानियत (एक होने) पर लोगों के विश्वास को पुख्ता बनाना और इस बात को स्पष्ट करना है कि सब कुछ फ़ना (खत्म) हो जाने वाला है, सिर्फ अल्लाह की ज़ात बाकी रहने वाली है, उसने सारी दुनिया को पैदा किया है, वही राज़िक़ (रोज़ी देने वाला) और मालिक है, उसकी मर्ज़ी के बग़ैर पत्ता भी नहीं हिलता। इसलिए वही इबादत के लायक़ है, उसके एहकाम (आदेशों) की पैरवी लाज़िमी (अनिवार्य) है और उसके बताए हुए दीन पर चलने में ही कल्याण है और हर इंसान को अंततः उसकी तरफ लौटना है। इस कायनात के रब पर मज़बूत विश्वास और उसके भेजे हुए नबियों- रसूलों पर पूरे विश्वास के बाद मानव कल्याण की संभावनाएं रौशन हो जाती हैं और वो धार्मिक शिक्षाओं का पालन करने लगता है। इसके विपरीत भौतिक ज्ञान और कला के बारे में पूरे तौर पर ये बात नहीं कही जा सकती। विशेष रूप से वो व्यवस्था जो लेनिन, मार्क्स, डार्विन, फ़्रायड जैसे लोगों ने पेश किए, वो इंसान को उसके वास्तविक उद्देश्य से हटाकर सिर्फ भौतिकतावादी बनाते हैं।
तालीम के साथ तर्बियत की उपयोगिता को नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता। जहां सिर्फ तालीम (शिक्षा) है, लेकिन तर्बियत (प्रशिक्षण) की कमी है, वहां शिक्षा के पूरे परिणाम सामने नहीं आ पाते। अगर प्रशिक्षण बचपन से ही किया जाए तो और ज़्यादा बेहतर है। तर्बियत के लिए ज़रूरी नहीं कि वो संस्था में ही की जाए और घर पर बच्चे को आज़ाद छोड़ दिया जाए बल्कि तर्बियत जो घर पर की जाती है, आमतौर पर अधिक प्रभावी और मज़बूत होती है, फिर घर पर तर्बियत करना ज़्यादा आसान भी होता है। इसका तरीका यही है कि माँ बाप सबसे पहले खुद नेक हों और उस चीज़ की तर्बियत बच्चों को दे, पहले उस पर खुद अमल करने वाले हों। बच्चे बहुत सी बातें अपने माँ बाप की नक़ल और उनके कामों को देखकर सीखते हैं। मिसाल के तौर पर जब माँ बाप खाना सलीके से खाते हैं, लुक़्मा बनाते हैं, अपने आगे से खाते हैं, बिस्मिल्लाह पढ़कर खाते हैं, तो बच्चे भी वैसे ही करते नज़र आते हैं। माँ बाप कपड़े पहनते हैं और बच्चों को भी वही लिबास पहनाते हैं तो बच्चे खुशी से उसे पहन लेते हैं। अगर माँ बाप नमाज़ पढ़ते हैं तो वो भी नमाज़ पढ़ते हैं। अगर बचपन में माँ बाप अपने बच्चों को सलाम की आदत डलवाते हैं, कलमे सिखाते हैं, अच्छे अच्छे तरीके बताते हैं, तो वो बहुत हद तक अपने माँ बाप की बातों और उनके मौहैल को अपना लेते हैं।
गंभीर बात ये है कि आजकल मुस्लिम समाज के बहुत से घरानों का माहौल इस क़दर आज़ाद हो गया है कि औलाद पर इसका अच्छा असर पड़ता नज़र नहीं आता। माँ बाप रात को देर तक जागते हैं और दिन चढ़े तक सोते रहते हैं। बच्चों की आदत भी इसी तरह पड़ने लगती है। दिन भर घरों में टीवी चलता रहता है, जिसे माँ बाप अपने बच्चों के साथ बैठ कर देखते हैं। नतीजा ये कि छोटे बच्चों को भी टीवी देखने की आदत पड़ जाती है। एक तो इससे समय बर्बाद होता है, दूसरे उस पर बहुत सी नकारात्मक बातें देखने को मिलती हैं। बहुत से माँ बाप तरह तरह के फैशन के कपड़े खुद पहनते हैं और अपने बच्चों को भी पहनाते हैं। कुछ माँ बाप के अनावश्यक मेकअप और उनके फैशन से बच्चे प्रभावित होते हैं और बच्चियाँ बहुत कम उम्र में मेकअप करने लगती हैं जिसका नतीजा बाद में अच्छा नहीं निकलता है। इसलिए माँ बाप को तालीम और तर्बियत के बारे में अधिक गंभीर और संवेदनशील होने की ज़रूरत है। अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम ने इरशाद फ़रमाया ''बाप का अपनी औलाद के लिए बेहतरीन तोहफा यही है कि बेहतरीन तालीम और तर्बियत से आरास्ता करे।''
अच्छी तालीम और तर्बियत के साथ माँ बाप को चाहिए कि वो अपने बच्चों के लिए दुआ करें। अल्लाह का इरशाद है, 'और मेरी औलाद में सलाह और तक़वा दे' (अहकाफ: 15)। 'तक़वा' इंतेहाई अहम चीज़ है जिससे अल्लाह की नज़दीकी हासिल होती है, इससे इंसान की श्रेष्ठता बढ़ती है। अल्लाह का इरशाद है, 'बिला शुब्हा (निस्संदेह) तुम में से ज़्यादा मोकर्रम अल्लाह के नज़दीक वो है जो मुत्तक़ी है। हैरत की बात ये है कि बहुत से लोग अपनी औलाद से बहुत प्यार करते हैं , उनके लिए तमाम सुविधाएं उपलब्ध करते हैं, उनके लिए गाड़ियाँ खरीदते हैं। ज़मीनें खरीदते हैं और बड़े मकान बनाते हैं, ताकि औलाद परेशान न हो और वो आराम की ज़िंदगी बसर करे, लेकिन उसकी शिक्षा की बेहतर व्यवस्था नहीं करते या शिक्षा दिलाने में हीनता महसूस करते हैं जो की दुनिया और आखिरत दोनों जहां की कामयाबी के लिए ज़रूरी है। इस्लाम तो ये चाहता है कि माँ बाप ऐसा किरदार पेश करें कि नई पीढ़ी कामयाब और बामुराद हो। नई पीढ़ी की सुरक्षा और उसकी कामयाबी के लिए दीने इस्लाम किस क़दर ज़ोर देता है, इसका अंदाज़ा इस आयत से लगाया जा सकता है जिसमें परवरदिगार ने इरशाद फ़रमाया, 'और अपने बच्चों को एफलास (ग़रीबी) के डर से क़त्ल न करो, हम उन्हें भी रिज़्क देंगे और तुम्हीं भी। हक़ीक़त ये है कि नस्लकुशी (नरसंहार) बहुत ही बड़ा गुनाह है'(बनी इसराइल: 31) इस आयत से मालूम होता है कि नरसंहार बहुत बड़ा पाप है और औलाद के क़त्ल की तमाम शक्लें नाजायज़ हैं। वर्तमान समय में भले ही माँ बाप के हाथों अपने बच्चों के क़त्ल की घटनाओं की दर कितनी ही कम क्यों न हो, लेकिन औलाद को पैदा न होने देने के लिए दुनिया भर में बड़ी कोशिशें चल रही हैं, गर्भपात के लिए विभिन्न प्रकार की दवाइयों और विभिन्न तदबीरों का इस्तेमाल किया जाता है।
इसके बाद भी अगर हमल (गर्भ) ठहर जाता है तो रिपोर्टों के अनुसार उसे गिराने के लिए खतरनाक क़िस्म की दवाइयों का सहारा लेना एक आम बात बन कर रह गई है। यहां तक कि कई कई महीनों के बच्चों की सफाई की घटनाएं भी आए दिन पेश आती रहती हैं। अगर इस स्थिति पर गहराई से विचार किया जाए तो पता चलता है कि ये एक तरह से नस्लकुशी (नरसंहार) और बच्चों का क़त्ले आम है। शरीयते इस्लामी इसकी इजाज़त नहीं देती। इस्लाम न ही बच्चों की पैदाइश पर रोक लगाता है और न ही औलाद की पैदाइश के बाद इसे बेयारो मददगार (असहाय) छोड़ता है। इस्लाम माँ बाप पर उनकी परवरिश और तर्बियत के अधिकार निर्धारित करता है। इस्लाम के अनुसार माँ बाप पर लाज़िम (अनिवार्य) है कि वो औलाद की यथासंभव देखभाल करें। अगर बच्चों को खाने की ज़रूरत हो, तो उसके लिए खाने का इंतेज़ाम करें, अगर पानी की ज़रूरत हो, तो पानी दें, कपड़ों की ज़रूरत हो तो कपड़े उपलब्ध करें, अगर इलाज की ज़रूरत हो जहां तक सम्भव हो इलाज कराएं, क्योंकि अगर माँ बाप अपने बच्चों की परवरिश नहीं करेंगे तो और कौन करेगा? अगर वो खाना नहीं देंगे तो वो किसके दर पर खाने का सवाल करेंगे, इसलिए औलाद की परवरिश अच्छे अंदाज़ में की जानी चाहिए।
16 मार्च, 2013 स्रोत: रोज़नामा सहाफ़त, नई दिल्ली
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