एक एक इंसानी जान अहमियत की हामिल
मौलाना असरार-उल-हक़ क़ासिमी
19 मई, 2012
(उर्दू से अनुवाद- समीउर रहमान, न्यु एज इस्लाम)
आज बड़े पैमाना पर इंसानी जानों के एतेलाफ़ का मुआमला सामने आ रहा है। ज़रा ज़रा से फ़ायदे के लिए लोगों का क़त्ल आम बात बन कर रह गई है। अगर मामूली झगड़ा होता है तो नौबत क़त्ल तक पहुंच जाती है, अगर दौलत की बात होती है तो मुआमला क़त्ल तक पहुंच जाता है। आए दिन कितने ऐसे वाक़ियात सामने आते हैं कि चंद लाख या चंद हज़ार रूपयों के लिए किसी बेक़सूर की जान ले ली गई। किसी ने किसी मामूली बात पर ग़ुस्सा में आकर क़त्ल कर दिया, किसी शौहर ने आपसी झगड़े या शक की बुनियाद पर अपनी बीवी का गला घोंट डाला, किसी बीवी ने अपने शौहर से बेवफ़ाई करते हुए किसी अजनबी से क़ुरबत पैदा करली, फिर रास्ते से अपने शौहर को हटाने के लिए अपने आश्ना से मिल कर उसका बेदर्दी के साथ क़त्ल कर डाला।
मफ़ादात और ख़्वाहिशात की तकमील के लिए क़त्ल व ग़ारत गिरी का ये अमल रोज़ बरोज़ बहुत सी जगहों पर पेश आता है। बात सिर्फ फ़र्द तक महदूद नहीं बल्कि गिरोहों, ख़ानदानों और बिरादरियों के दरम्यान तसादुम में भी आन की आन में मोतअद्दिद लोगों के मारे जाने के वाक़ियात सामने आते रहते हैं। इससे भी ज़्यादा ख़तरनाक सूरते हाल उस वक़्त रूनुमा होती है जब ममालिक अपने मफ़ादात के लिए किसी दूसरे पर हमला आवर होते हैं या वहां साज़िशें करके ख़ाना जंगी जैसी सूरते हाल पैदा कर देते हैं। इसके बाद इंसानों का ख़ून नदी नालों और रास्तों में पानी की तरह बहता है। मौजूदा दौर में इस बड़े पैमाने पर इंसानी क़त्ले आम को देख कर ऐसा लगता है कि गोया कि आज इंसानी जान की कोई अहमियत ही बाक़ी नहीं रह गई है।
जब कि सच्चाई ये है कि एक एक इंसान बहुत अहमियत का हामिल है। इस्लाम ने एक एक इंसानी जान को बड़ी अहमियत दी है। इसके नज़दीक किसी एक शख़्स का भी नाहक़ क़त्ल गोया कि पूरी इंसानियत का क़त्ल है। इस्लाम ने इंसानी जान की हिफ़ाज़त की पूरी कोशिश की है। चुनांचे ये क़ानून बना दिया गया कि अगर हुकूमत मुस्लमानों की है तो इस बात का पूरा नज़्म व नस्क़ किया जाएगा कि इंसानी जान बर्बाद ना हो पाए। चाहे वो मुस्लिम की जान हो या काफ़िर की जान। इस्लामी तालीम है कि इंसानी जान की हिफ़ाज़त की जाय और किसी को क़त्ल ना किया जाय। इरशादे बारी है इंसानी जान को हलाक ना करो, जिसे ख़ुदा ने हराम क़रार दिया है। (बनी इसराईल :33) उलमा ने इस मुताल्लिक़ वज़ाहत के साथ लिखा है कि हर अमन पसंद ग़ैर मुस्लिम के ख़ून की क़ीमत मुस्लमानों के ख़ून के बराबर है, इसलिए अगर कोई मुस्लमान किसी पुर अमन ग़ैर मुस्लिम को क़त्ल कर देता है तो इस का क़िसास उसी तरह लिया जाएगा, जिस तरह एक मुस्लमान के क़त्ल का लिया जाता है गोया कि जान के तहफ़्फ़ुज़ के मुआमला में मुस्लमान और ग़ैर मुस्लमान दोनों बराबर हैं, जिस तरह एक मुस्लमान की हिफ़ाज़त ज़रूरी है, इसी तरह एक ग़ैर मुस्लिम की जान की हिफ़ाज़त भी ज़रूरी है।
इस्लाम ने क़त्ल व क़ेताल को हर हाल में रोकने की कोशिश की है क्योंकि इसके ज़रीए बदअमनी और खूं रेज़ी का सिलसिला तवील हो जाता है। आम तौर से देखने में आया है कि अगर कोई शख़्स क़त्ल कर दिया जाता है तो मक़्तूल के ख़ानदान वाले भी उसी तरह के इंतिक़ाम के लिए आमादा दिखाई देते हैं, यहां तक कि कभी कभी कुछ वक़्त के बाद सुनने को मिलता है कि क़ातिल को मक़्तूल के ख़ानदान वालों ने क़त्ल कर डाला। इस पर दूसरे मक़्तूल के विरसा भी सुकून से नहीं बैठते, वो भी इसी तरह का मुआमला करने के लिए आम तौर से तैय्यार रहते हैं, नतीजा ये कि लंबे वक़्त तक ख़ानदानों के माबैन ख़ूँरेज़ी का सिलसिला चलता रहता है। इस ख़ूँरेज़ी से ना सिर्फ जानों का एतेलाफ़ होता है, बल्कि सुकून भी ग़ारत हो जाता है, दोनों ख़ानदान के लोगों को ख़दशा लगा रहता है कि जाने कब किस को हलाक कर दिया जाय। इस कशमकश और ख़ौफ़ के साथ उन की ज़िंदगी बसर होती रहती है। मालूम हुआ कि क़त्ल का अंजाम तबाह कुन होता है और इस्लाम नहीं चाहता कि कोई इस तरह के हालात का सामना करे। इसलिए वो क़त्ल व क़ेताल से सख़्ती के साथ मना करता है।
इस्लाम में हुक़ूक़ुल्लाह और हुक़ूक़ुल-ऐबाद दोनों ही की बड़ी अहमियत है।दोनों ही का पूरा किया जाना ज़रूरी है। वो हुक़ूक़ जिन का ताल्लुक़ अल्लाह तबारक व ताला की ज़ात से है,उन के पूरा ना किए जाने पर रोज़े क़यामत सख़्त बाज़ पुर्स होगी। जिस ने हुक़ूक़ अल्लाह को पूरा क्या होगा, उसे बेहतरीन अज्र से नवाज़ा जाएगा, इस के बरअक्स जिस ने हुक़ूक़ अल्लाह की तकमील में ग़फ़लत बरती होगी, उसका ठिकाना बुरा होगा, अलबत्ता जो लोग साहिबे ईमान होंगे, उनके लिए अल्लाह की ज़ात से माफ़ी की उम्मीद की जा सकती है। क्योंकि अल्लाह की ज़ात बड़ी करीम व रहीम है, वो माफ़ करने वाला और रहम करने वाला है।
जहां तक हुक़ूक़ुल-ऐबाद की बात है तो ये उसी वक़्त माफ़ होंगे, जब कि वो शख़्स जिस के हुक़ूक़ मारे गए होंगे, वो माफ़ कर दे, इस एतबार से हुक़ूक़ुल-एबाद की तकमील का मुआमला भी इंतिहाई अहम है। हुक़ूक़ुल-एबाद से मुराद इंसानों के हुक़ूक़ हैं। चाहे वो वालदैन के हुक़ूक़ हों, पड़ोसी के हुक़ूक़ हों या आइज़्ज़ वा अकारिब और दोस्त व अहबाब के हुक़ूक़ या मोहल्ले वालों के हुक़ूक़ हों या आम इंसानों के हुक़ूक़ हों। हुक़ूक़ुल-एबाद का दायरा इंतिहाई वसीअ है और इस दायरा में अपने और पराए, मुस्लमान और ग़ैर मुस्लमान सभी आते हैं, ये एक अलग बात है कि बाज़ के हुक़ूक़ ज़्यादा हैं और बाज़ के कम, अलबत्ता जो हुक़ूक़ जिस के लिए मुतय्यन किए गए, उन की तकमील लाज़िमी है और उन से ग़फ़लत पर सख़्त पकड़ है।
दीन इस्लाम के पेशे नज़र क्योंकि पूरी इंसानियत है, इसलिए वो अपने पैरोकारों को सिर्फ रिश्तेदारों या मुस्लमानों के हुक़ूक़ तक महदूद नहीं रखता, बल्कि तमाम इंसानों तक इस दायरे को वसीअ करता है। ऐसे आम हुक़ूक़ में जान की हिफ़ाज़त अहम है। यानी जान चाहे मुस्लमान की हो या ग़ैर मुस्लिम की जहाँ तक मुमकिन हो इसका तहफ़्फ़ुज़ लाज़िम है, फिर इंसान की तख़्लीक़ महेज़ अल्लाह ताला ने की है, इसलिए किसी दूसरे शख़्स को हरगिज़ इस बात की इजाज़त नहीं दी गई कि वो किसी इंसान की जान ले। यहां तक कि ख़ुद इंसान जान की क़द्रो क़ीमत का अंदाज़ा क़ुरान मजीद की इस आयत से लगाया जा सकता है। अल्लाह ताला ने इरशाद फ़रमाया जो शख़्स किसी ऐसी जान को क़त्ल करे, जिसने किसी को क़त्ल ना किया और ना इसने फ़साद बरपा किया तो गोया इसने तमाम लोगों का ख़ून किया (माइदा 5) ग़ौर कीजिए कि आयत मज़कूरा में एक जान के क़त्ल को तमाम जानों के क़त्ल से तशबिया दी गई है जिस का मतलब है कि किसी इंसान का क़त्ल करना गोया पूरी इंसानियत को क़त्ल करने के बराबर है।
किसी इंसान की जान लेना इस्लाम के नज़दीक कितना क़ाबिले गिरफ़्त अमल है, इसका अंदाज़ा नबी अलैहिस्स सलातो सलाम की इस हदीस से होता है, आप ने फ़रमाया क़यामत के दिन सबसे पहले जिस चीज़ का हिसाब लिया जाएगा, वो नमाज़ है जिस के बारे में बाज़ पुर्स की जाएगी और हुक़ीक़ुल-एबाद में सबसे पहले क़त्ल के दावों के बारे में फ़ैसला किया जाएगा। किसी इंसानी जान की हलाकत को अज़ीम गुनाह के साथ एक और हदीस में इस तरह ब्यान किया गया कि बड़े गुनाहों में सब से बड़ा गुनाह अल्लाह के साथ किसी मख़लूक़ को शरीक ठहराना , फिर किसी इंसान को हलाक करना है, फिर माँ बाप की नाफ़रमानी करना है, फिर झूट बोलना है। इस हदीस में क़त्ल के गुनाह को शिर्क के बाद बयान किया गया है जिसका मतलब है कि अज़ीम गुनाह हैं, इनमें किसी इंसानी जान को हलाक करना सरे फ़ेहरिस्त है।
इंसानी जान की हिफ़ाज़त के लिए इस्लाम फ़क़त अख़्लाक़ी तरीक़ा ही इख़्तियार नहीं करता, बल्कि सज़ा के ज़रीया भी इस को दहाने की कोशिश करता है। चुनांचे इंसान के क़त्ल की सख़्त सज़ा मुतय्यन की गई है। इस्लामी क़ानून के मुताबिक़ क़ातिल की सज़ा क़त्ल है, बशर्ते कि मक़्तूल के विरसा कुछ लेकर माफ़ ना कर दें। यानी अगर किसी ने इंसान को क़त्ल किया तो बदले में उसे भी क़त्ल कर दिया जाएगा। बज़ाहिर ये इंतिहाई सख़्त सज़ा है जिस पर बाज़ इस्लाम से उसबियत रखने वाले लोग एतराज़ भी करते हैं, मगर नतीजे के लिहाज़ से ये सज़ा दरअसल इंसानों के लिए मुफ़ीद है और उन की जानों के तहफ़्फ़ुज़ और अमन व सुकून की बक़ा की ज़ामिन है। देखने में आ रहा है कि वो मक़ाम व ममालिक जहां पर क़त्ल की सज़ा क़त्ल नहीं है, वहां क़त्ल की वारदातों में आए दिन इज़ाफ़ा होरहा है, इसके बरअक्स जिन मक़ामात पर क़त्ल के वाक़ियात की तादाद ना के बराबर है। गोया कि इस सख़्त सज़ा में इंसान के तहफ़्फ़ुज़ का राज़ मुज़मिर है। हैरत इस बात पर है कि इंसानी जानों के तहफ़्फ़ुज़ के लिए इस क़दर कोशिशों के बावजूद भी फ़ी ज़माना इस्लाम को तारीक और शिद्दत पसंद कहा जा रहा है, जबकि इस की तालीमात अमन के क़याम का मोअस्सर तरीन ज़रीया हैं।
19 मई, 2012 बशुक्रिया: रोज़नामा सहाफ़त, नई दिल्ली
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