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Hindi Section ( 2 Jan 2013, NewAgeIslam.Com)

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Marriage With a Woman of the Books in Context of Inter-Religious Marriages अंतर धार्मिक शादी के संदर्भ में अहले किताब औरत से निकाह

 

मौलाना अब्दुल हमीद नोमानी

31 दिसम्बर, 2012

(उर्दू से अनुवाद- समीउर रहमान, न्यु एज इस्लाम)

मौजूदा समय में मानव संबंधों का मामला बहुत महत्वपूर्ण रूप में सामने आ रहा है, अंतर धार्मिक और जाति से बाहर शादी की समस्या को मानव संबंधों से जोड़ कर देखा जा रहा है। शादी का एक बड़ा गहरा और महत्वपूर्ण पहलू सामाजिक भी है। जहां भारत जैसे देशों में आमतौर से मुस्लिम व ग़ैर-मुस्लिम लड़के, लड़कियों के बीच वैवाहिक रिश्ते की बात सामने रही है। वहीं अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस जैसे पश्चिमी यूरोपीय देशों में मुस्लिम और अहले किताब यहूदी, ईसाई लड़के लड़कियों की शादी एक समस्या और उसके हल के रूप में आ रही है। ये स्थिति जीवन की धार्मिक कल्पना रखने वाले तब्के के लिए ध्यान देने योग्य और परेशान करने वाली है। जबकि स्वतंत्र विचारों वाले वर्गों के लिए कोई खास नहीं है। जहां तक ​​मुस्लिम मिल्लत की समस्या है तो इस बारे में ये तय है कि वो अपनी धार्मिक शिक्षा और कल्पना से अलग रह कर जीवन का सफर जारी नहीं रख सकती है। धार्मिक नज़रिया और अमली किरदार और उसके लिए पहचान के साथ जीवन की विशेष कल्पना की हिफाज़त भी बहुत महत्वपूर्ण है। इस्लाम केवल जीवन शैली और जीवन की व्यवस्था ही नहीं बल्कि अनन्त विश्वास भी है कि इसके मुताबिक खत्म होने वाले अनन्त जीवन का अंजाम का बहुत हद तक गंभीर समस्या है, अंतर धार्मिक शादी के संदर्भ में अहले किताब यहूदी, ईसाई महिला से शादी के मामले को भी मुस्लिम समाज अपने जीवन के विशेष विचार से अलग करके नहीं देख सकता है। वो धार्मिक हवाले से अपने दीन और शरीयत से मिली इजाज़त और औचित्य से वक्त ज़रूरत फायदा तो उठा सकता। लेकिन नज़रिये और बुनियादी विचार और जीवन सिद्धांत  को खतरे में नहीं डाल सकता है। अगर इस पर ज़ोर पड़ने का ज़न ग़ालिब हो या जीवन की कल्पना की सुरक्षा के मद्देनजर माहौल साज़गार हो तो गुंजाइश और विशेष हालात में हासिल औचित्य से फायदा न उठाना ही दूरअंदेशी की मांग है। खास तौर से जबकि विकल्प मौजूद हों। अहले किताब (यहूदी, ईसाई) औरतों से शादी इसी संदर्भ में आती है, लेकिन इससे सैद्धांतिक रूप से शरई औचित्य को खत्म नहीं किया जा सकता है।

पिछले दिनों लेखक ने अंतर धार्मिक शादी के संदर्भ में अहले किताब की पाक दामन औरत से शादी के औचित्य का ज़िक्र किया था। पिछले दिनों प्रकाशित होने वाले कुछ लेखों और पत्रों में इसे हराम क़रार देने की बात से ये सवाल सामने आया है कि औचित्य और हराम की बहस में मामला क्या है। कुरान की सूरे मायदा की आयत नम्बर 5 और पूरे रुकु के अध्ययन से हलफ (शपथ) और हुर्मत का जो हवाला सामने आता है, उसमें अहले किताब की मोहसिना (पाक या आज़ाद) महिला से निकाह को हलत के नीचे रखा है, लेकिन आयत के शुरुआत का लफ्ज़ आज (अल-यौम) और अंतिम वाक्य 'और जो शख्स ईमान के साथ कुफ्र करेगा तो उसका अमल ग़ारत हो जाएगा, और आखिरत में बिल्कुल ज़ेयाकार होगा' से इस तरफ  भी आकर्षित कर दिया कि ईमान व अमल की हिफाज़त ज़रूरी है। अगर अहले किताब की पाक दामन औरत से निकाह की स्थिति में हराम को हलाल और हलाल को हराम क़रार देने की स्थिति पैदा हो जाए तो इससे बचना ही चाहिए। इसका ये भी अर्थ निकलता है कि अहले किताब महिला से निकाह जायज़ और हलाल है, उसे बिना किसी बुनियादी कारण के हराम क़रार देना भी एक खतरनाक मामला है और इस्लाम के दायरे में आने की राह बंद हो जाएगी। इसी तरफ हकीमुल उम्मत मौलाना अशरफ अली थानवी रहिमतुल्लाह अलैहि ने कुरान के इसी जुमले की व्याख्या करते हुए इशारा किया है कि हलाल कतई की हलत और हराम कतई की हुर्मत का इन्कार न किया जाये, हलाल और हराम को हराम समझा जाए। (देखें अनुवाद और व्याख्या हज़रत थानवी रहिमतुल्लाह अलैहि, ताज कंपनी लाहौर, पेज 131)

रहा अहले किताब के सिलसिले में अक़ीदा और अमल के बिगाड़ का मामला तो वो नोज़ूले कुरान और आन-हज़रत सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम की मौजूदगी में भी था। इसके बावजूद कुरान ने यहूदी व ईसाईयों की औरत के निकाह को जायज़ और हलाल करार दिया है। जाहिर है कि इसमें कोई न कोई हिकमत और मसलेहत है, और इसे खुदा और रसूल से ज़्यादा कौन जान सकता है। दौरे रिसालत सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम से लेकर आज तक यहूदी व ईसाईयों के अकीदे व अमल के मद्देनज़र ईमान के लिए अपने अकीदे व किरदार की हिफाज़त को लेकर कुछ खतरे और अंदेशे हैं। मुस्लिम समाज के संबंध में उनका जो रवैय्या व सुलूक है, उसने अहले किताब यहूदी व ईसाई के विरोध और दूरी की राह हमवार की और उसका असर मुसलमानों का अहले किताब महिला से शादी पर भी पड़ा। सहाबा के दौर से हज़रत अब्दुल्लाह बिन उमर रज़ियल्लाहू अन्हू जैसे लोगों और बाद में भी एक तब्का, उससे शादी का विरोधी रहा है, लेकिन इसका मतलब ये बिल्कुल नहीं है कि अहले किताब महिला से निकाह असल में हराम है। जैसा कि कुछ लोग ये बताने और प्रतिक्रिया देने की कोशिश करते हैं। दलीलों के एतबार से इस समस्या की समीक्षा की जाए तो सहाबा की अक्सरियत, फ़ुक़्हा (धर्मशास्त्री), मोहद्देसीन का औचित्य और हलाल वाला पक्ष अधिक उपयुक्त और मजबूत नजर आता है। महान हन्फ़ी मोहक़्क़िक (शोधकर्ता), फ़क़ीयह इमाम अबु बकर जसास ने तो ये तक कहा है कि हमारे इल्म में ये बात नहीं है कि सहाबा और ताबेईन लोगों में से किसी ने भी किताब के हवाले से शादी को हराम क़रार दिया हो, वला नालम अन अहद मेनल सहाबतल नाबेईन तहरीमा निकाहुन्ना। (एहकामुल कुरान, जिल्द प्रथम, पेज 403, मतबूआ देवबंद 2006) आगे उन्होंने ये बताते हुए कि हज़रत उमर रज़ियल्लाहू अन्हू और उनके बेटे अब्दुल्ला बिन उमर रज़ियल्लाहू अन्हू से इस सिलसिले से जो कुछ मरवी और मनकूल है, इसका सम्बंध सिर्फ इससे है कि बेहतर नहीं है। हज़रत उमर रज़ियल्लाहू अन्हू के सिलिसले में इमाम मोहम्मद और जसास दोनों ने नक़ल किया है कि हज़रत हुज़ैफा अपनी किताब वाली बीवी को तलाक देने के लिए तहरीर किया था। जब उनसे पूछा गया कि क्या आप अहले किताब औरत से शादी को हराम समझते हैं, तो हज़रत उमर रज़ियल्लाहू अन्हू ने जवाब दिया कि नहीं, लेकिन इस डर से रोक रहा हूँ कि बदकार औरत मुस्लिम घरों में दाखिल न हो जाये।

इस संदर्भ में इमाम अबु बकर जसास ने दावा किया है कि कुल मिलाकर किताब वालों से शादी के औचित्य पर सहमति है, औरइससे कोई विरोध और इन्कार साबित नहीं है। (देखें ज़िक्र की गयी किताब) तीसरे खलीफा हज़रत उस्मान रज़ियल्लाहू अन्हू और दूसरे कई सहाबा का अहले किताब औरत से निकाह सही सनदों से साबित है। इस हवाले से अहले किताब से शादी को हराम क़रार देना जिम्मेदारी वाली बात नहीं होगी। आधुनिक दौर के उलमा में से मौलाना मुफ़्ती देवबंद रहिमतुल्लाह अलैहि (मआरिफुल कुरान जिल्द 3, पेज 62- 63) और मौलाना यूसुफ लुधियानवी शहीद (आपके मसाएल और उनका हल) जैसे हज़रात अहले किताब औरत से निकाह के लिए थोड़ा सख्त नज़र आते हैं, लेकिन हराम वो भी नहीं कहते हैं, बल्कि उन्होंने इसका जिक्र नहीं किया है कि जहां हज़रत उमर रज़ियल्लाहू अन्हू का नाम अहले किताब से शादी को जायज़ करार देने वालों में आता है वहीं इस रवायत की सनद, इन्कार वाली रवायत से अधिक सही और मज़बूत है। इमाम इब्ने जरीर तबरी रहिमतुल्लाह अलैहि  ने हज़रत उमर रज़ियल्लाहू अन्हू की रवायत नक़ल की, कि मुसलमान ईसाई औरत से शादी कर सकता है। लेकिन ईसाई मुसलमान औरत से निकाह नहीं कर सकता। (अलमुस्लिम यतज़ौज अलनसरानियातः वला यतज़ौज अलनसरानी अलमुस्लिमः) (तफ्सी तिबरी, जिल्द 4, सूरे मायदा आयत 5 की तफ्सीर (व्याख्या) के तहत)

हज़रत उमर रज़ियल्लाहू अन्हू के बारे में अहले किताब से शादी के बारे में जो रवायत हैं, उनके अध्ययन से ये तथ्य सामने आता है कि वो असल में उससे शादी के खिलाफ या हुर्मत के हक़ में नहीं थे, बल्कि उन्हें इसकी फिक्र थी कि मुस्लिम समाज में अहले किताब बदकार औरतों के दाखिले और मुस्लिम औरतों की ओर से ध्यान न देने को रोका जाए, और ये कि माक़ूल औऱ इस्लामी फिक्र व किरदार की हिफाज़त और एक जायज़ बात पर अमल में संतुलन से ही काम किया जाना चाहिए। ये कोई ज़रूरी नहीं है कि शरई एतबार से हलाल और जायज़ ग़ेज़ा (आहार) सभी लोग इस्तेमाल करें, अगर स्वभाव और माहौल और अपनी विशेष परिस्थितियों के मद्देनज़र आदमी अपने तौर पर देखे कि ये खाना हलाल और जायज़ होने के बावजूद हमारे लिए नुकसानदेह है, उसे हमारा पेट हज़म नहीं कर पाएगा इसलिए ये ज़रूरी है कि इससे परहेज़ किया जाय और बचा जाये। अहले किताब औरत से निकाह की प्रकृति भी कुछ इसी तरह है, ऐसे लोग जिन्हें ज़न ग़ालिब होकर इस्लामी फिक्र और अमल, अहले किताब से शादी से प्रभावित हो सकते हैं, या प्रभावी होने के बजाय प्रभावित हो जाएंगे, इससे पैदा होने वाली औलाद का ईमान और इस्लामी हैसियत खतरे में पड़ जाएगी तो उनके लिए ये आवश्यक दर्जे में है कि अहले किताब औरतों से शादी न करें।

इसी संदर्भ में फ़ुक़्हा (धर्मशास्त्री) खासकर हन्फी फ़ुक़्हा ने दारुल इस्लाम और दारुल हरब और हरबी, ज़मी किताबी औरत से जवाज़ (औचित्य), अनुचित का सवाल उठाया है, दूसरे फ़ुक़्हा और उलमा भी इस बारे में कई मामलों को बहस में लाते रहे हैं। जैसे एक पक्ष की जाँच ये है कि किसी अहले किताब औरत से मुसलमान का निकाह दुरुस्त नहीं, चाहे ज़मिया या हर्बिया, आज़ाद हो या बांदी, उसके नज़दीक जवाज़ वाली आयत रद्द है। इस पक्ष में से हज़रत अता जैसे लोगों का कहना है कि औचित्य का संबंध तब से है जब मुसलमान औरतें कम थीं, तब अहले किताब औरतें हलाल कर दी गई थीं। जब मुसलमान औरतों की तादाद काफी हो गईं तो ये औचित्य खत्म हो गया। जबकि दूसरा पक्ष ये शोध पेश करता है कि (इस्लामी हुकूमत) ज़मिया अहले किताब से शादी हलाल है। हर्बिया से हराम है। तीसरा पक्ष जिसके पेशवा इमाम शाफ़ेई रहिमतुल्लाह अलैहि  हैं, का कहना है कि आज़ाद अहले किताब औरत से निकाह हलाल है और बांदी से हराम है। ये पक्ष 'मोहसिनात की तफ्सीर (व्याख्या) आज़ाद से करता है, इन उपरोक्त पक्षों के विपरीत चौथे पक्ष का शोध ये है कि सम्बंधित अहले किताब औरतों से निकाह हलाल है। आज़ाद हों, बांदी हों या ज़मिया या हर्बिया, अफ़ीफा हों फलसका, ये दृष्टिकोण आम उलमाए इस्लाम, अधिकांश और हनफी सम्प्रदाय का है, और दलीलों के एतबार से ये अंतिम कथन ही मजबूत है। (तफ्सीलात तफ्सीर रूहुल मानी, तफ्सीर खाज़न और तफ्सीर तबरी और मज़हरी में देखी जा सकती हैं) इमाम आज़म का मसलक (पंथ) मज़बूत है कि आयत रद्द नहीं, मजबूत है।

इसलिए कुछ मामलों (जैसे ईमान की हिफाज़त, क़ौम की राज़दारी में भाग न लेना, दिल में बुराई से प्रभावित होने के बजाय खैर के इंतेक़ाल) का लिहाज़ करते हुए उन अहले किताब की औरतों से निकाह के औचित्य का पहलू ही राएज है, जो अहले किताब यहूदी व ईसाईयों में से होने का दावा करते हैं। लेकिन जिस अहले किताब का इल्हाद, दहेरियत स्पष्ट और बाहर हो, उससे बचना ज़रूरी है। इस श्रेणी में तो वो मुसलमान नाम वाले मर्द, औरत भी आते हैं, जो मुलहिद और दहेरिया हैं। अहले किताब की औरतों से शादी के औचित्य न होने की के सिलसिले में हद से ज़्यादा कट्टरपन को अंतर धार्मिक संवाद और मुसलमानों के बारे में कट्टरपन के प्रोपगंडे के संदर्भ में अधिक सही दृष्टिकोण करार नहीं दिया जा सकता है। औचित्य के बारे में प्रत्यक्ष आयत के मद्देनजर विवरण के आधार पर औचित्य नही होने को एहतियात तो करार दिया जा सकता है, दलील और असल मसला नहीं। मुस्लिम विद्वानों और इफ्ता व इज्तेहाद में शुरू से ही बहुत से मुद्दों में जायज़ औऱ नाजायज़ यहां तक ​​कि हलाल और हराम की हद तक मतभेद रहे हैं। बाद वाले विद्वानों के लिए ये देखना ज़रूरी है कि समस्या के किस पहलू को अख्तियार करना वक्त, हालात और दीनी व दावती मसलेहत की मांग करता है और हमारे मुजतहिद इमाम ने किसे अख्तियार किया है। आज की तारीख में बांदी, दारुल हरब का मामला कोई अधिक अर्थपूर्ण नहीं रह गया है, इसलिए बांदी, हर्बिया ज़मिया के फर्क की बात भी अर्थपूर्ण नहीं रह गई है। इसलिए वर्तमान समय में भी पहले की तरह सामाजिक (आखिरत के एतबार से नहीं) तौर से अहले किताब औरत से निकाह के औचित्य का पहलू ही राएज है। बहुत ज़्यादा अगर मगर और नुक्ते निकाल कर हुर्मत और उचित न होने पर ज़ोर देना सही नहीं होगा। ये तो शादी करने वाले की जिम्मेदारी है कि देखभाल कर शादी जैसा जिम्मेदाराना कदम उठाए। ये मुफ्ती, आलिम का काम नहीं है कि वो सर्वे और इंक्वाएरी करता फिरे कि कौन यहूदी, ईसाई असल अहले किताब हैं और कौन सिर्फ नाम के। बच्चों की तर्बियत के एतबार से भी अहले किताब से शादी सवाल पैदा करेगा, लेकिन इसके औचित्य को सीधे तौर पर खारिज नहीं किया जा सकता है।

31 दिसम्बर, 2012, स्रोतः रोज़नामा राष्ट्रीय सहारा, नई दिल्ली

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