मालिक अश्तर नौगानवी
18 अप्रैल, 2017
जिस समय आप यह लेख पढ़ रहे होंगे, तब तक पाकिस्तान के मरदान विश्वविद्यालय में बिखरा मशाल खान का खून सूख चुका होगा। माता-पिता कड़ियल जवान के लिये रो धो कर चुप होने लगे होंगे और हो सकता है शोक संदेश और निंदा वाले बयानों का सिलसिला भी थम गया हो l तौहीने रिसालत का आरोप लगाकर मशाल को संगसार करने वाले युवाओं में जो पुलिस के हत्थे चढ़ गए होंगे उनके अम्मा अब्बा अपने लाडलों की ज़मानत कराने, वकील आरोपियों के समर्थन में दलीलें खोजने और आरोपियों से दिल में सहानुभूति रखने वाले धीरे स्वर में मशाल का चरित्र हनन भी शुरू कर चुके होंगे। मशाल खान की हत्या खेद से अधिक चिंता का क्षण है। मशाल की हत्या का वीडियो देखिए और दो चीजों पर गौर कीजिए। पहली बात एक युवा पत्थरों और डंडों से पीट-पीट कर मार डाला जा रहा है और वातावरण में अल्लाहु अक्बर किब्रियाई के नारे बुलंद हो रहे हैं। लोग दम तोड़ते युवा को ठोकरें मार रहे हैं, लाठियां मार रहे हैं, पत्थर से सिर कुचल रहे हैं और हर ज़र्ब के साथ अल्लाहो अकबर का नारा लगाते जाते हैं। दूसरी बात देखिए कि हत्यारा कौन हैं। इन सबके नाम तो नहीं पता लेकिन हुलिया सबका एक जैसा है। दाढ़ी और शलवाड़ कुर्ता है। देखने में सब माशाअल्लाह मोमिन युवा लग रहे हैं और निश्चित रूप से उनमें से कई मोलवियत पढ़े हुए हैं। अब जरा उन लोगों की प्रक्रिया देखिए और दिल पर हाथ रख कर कहिए कि क्या किसी को यह कहने का अधिकार है कि मुसलमान कभी आतंकवाद चरमपंथी नहीं होता। आगामी यदि कोई मेरे सामने यह कहेगा कि चरमपंथ यूरोप और अमेरिका की फैलाई हुई है और मुसलमान चरमपंथी होते ही नहीं तो मैं खिलखिला कर हंस पडूंगा। हाँ अगर इन युवाओं ने यह हत्या राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के कहने पर किया है तो अलग बात है।
अब ज़रा एक बात पर आ जाइए। इस हत्या से अगर आप भी गुस्सा हैं तो आपका गुस्सा शांत करने के लिए कहा जाएगा कि पुलिस ने कई युवाओं को गिरफ्तार कर लिया है। हाँ, ज़रूर गिरफ्तारी हुई होगी। गिरफ्तारी तो मुमताज़ कादरी की भी हुई थी जिसने तौहीने रिसालत के आरोप में सलमान तासीर की हत्या कर दी थी लेकिन उसके बाद क्या हुआ? जब वही कादरी अदालत में पेश किया गया तो वकीलों ने उस पर फूल बरसाए। जब उसे फांसी दी गई तो न जाने कितनों ने विलाप किया, जब उसका अंतिम संस्कार हुआ तो हजारों लोग नंगे सिर आए और जब वह मर चुका तो उसे न जाने कितने लोग शहीद और मुजाहिद कहते हैं। हो सकता है बल्कि संभावना है कि मशाल के हत्यारों को भी ऐसे ही हार फूल पहनाए जाएं। फूल फेंकने वाले वकीलों, अंतिम संस्कार में शरीक होने वाले हजारों लोगों और मुमताज़ कादरी को शहीद मानने वालों और मशाल को पत्थरों से कुचल कर हत्या करने वालों में तनिक अंतर नहीं। बस अंतर इतना है कि उन्हें अवसर नहीं पड़ा है, जिस दिन कोई उनके हाथ लग गया यह भी उसे वैसे ही संगसार करके गाजी बन जाएंगे। यहाँ इस पर बात नहीं करेंगे कि इस्लाम के रसूल का तरीका क्या था। दुश्मनों के साथ भी उनका क्या सलूक था आदि। मैं तो यह जानना चाहूँगा कि ये जवान जिन्होंने अभी मशाल के खून से वुज़ू किया है यह किस किस मदरसे की उत्पादन हैं? कौन-कौन से उलेमा के सामने उन्होंने शिक्षा प्राप्त की है? वे कौन-कौन से नाग हैं जो जुब्बा और दस्तार की कैंची में छुप कर समाज को डसते फिर रहे हैं और उनके संपोलियों की संख्या इतनी अधिक हो गई है।
यह कोई नई घटना तो है नहीं, जो कुछ मरदान विश्वविद्यालय में मशाल खान के साथ हुआ वह बहुतों के साथ हो चुका है और बहुत सारे इसका शिकार और होंगे। तौहीने रिसालत के आरोप में मशाल को भीड़ द्वारा हत्या किए जाने की घटना खेद से अधिक चिंता का स्थान है। मंसूर हल्लाज हो, सुकरात हो गलेलियों हो, सलमान तासीर हो या फिर अब मशाल खान। सबका केवल एक अपराध था और वह था सवाल उठाना l समाज में दो तरह की मानसिकता होती हैं, पहला प्रत्येक व्यक्ति का व्यक्तिगत ज़ेहन होता है जिसमें वे अपने विशिष्ट मूल्यों और पैमाने को रखता है । किसी व्यक्ति को रात को मूली खाना स्वास्थ्य के लिये हानिकारक लगता है तो किसी के लिए रात में मूली खाना हाज़मे की गारंटी है। यह वे पैमाने हैं जो मनुष्य की जाति तक सीमित हैं। लेकिन समाज का दूसरा ज़ेहन उसका सामूहिक चेतना है। इस चेतना की बुनियाद सीना ब सीना चली आ रही परंपराओं, धार्मिक शिक्षाओं, बड़े बुजुर्गों की नसीहतों आदि पर होता है। यह चेतना क्योंकि समाज के सामूहिक विचार में विश्वास की किलों से ठुका होता है इसलिए इस चेतना को चुनौती देना उस पर सवाल उठाना कभी- कभी खतरनाक अंजाम की ओर भी धकेल देता है l आवश्यक नहीं कि समाज की सामूहिक चेतना जो कुछ सही मानती हो वह सही ही हो और यह भी सुनिश्चित नहीं है कि जो कुछ समाज की सामूहिक चेतना कहती है वह गलत या धारणा ही होगा। हाँ यह जरूर है कि चूंकि इस चेतना को एकाधिक लोगों बल्कि यूं कहा जाए कि एक भीड़ मानती है इसलिए इस भीड़ में शामिल हर फर्द खुद को यह सोचकर तसल्ली दे देता है कि यह बात सही ही होगी अन्यथा इतने सारे लोग यह क्यों मानते। यहीं से भीड़ का मनोविज्ञान पता चलता है कि वह सही गलत की व्यक्तिगत तराजू को किनारे रखकर इस सामूहिक चेतना के पीछे निकल पड़ती है जो वास्तव में किसी की भी चेतना नहीं और कहलाता सबका है।
अब जरा मशाल खान का मामला लीजिए। उसने तौहीने रिसालत की या नहीं इस पर सहमति नहीं है। कुछ लोग कहते हैं कि उसनें रसूले इस्लाम की शान में तिरस्कारी शब्द कहे थे जबकि कई लोग इस आरोप को गलत मानते हैं। हम ज़रा देर के लिए मान लेते हैं कि उसनें कुछ ऐसा कहा जो कुछ लोगों को धर्म का अपमान लगा तब भी उसके साथ जो कुछ हुआ उसका औचित्य क्या है? अगर इसी प्रकार किसी को मुद्दई और काजी बनकर खड़े खड़े निर्णय करने का अधिकार दे दिया जाए तो अदालतें, पुलिस, सरकार, अभियोजन, रक्षा, वकीलों, तर्क और सबूत यह सब किस काम के रह जाएंगे? .मेरे विचार में वास्तविक मुसीबत यह है कि धर्म के ठेकेदार खुद धर्म को नहीं समझ पाए हैं और समझनें व समझानें में जब तर्कहीन होने लगते हैं तो तौहीने रिसालत का आरोप लगाकर किसी की हत्या कर देना उनकी सबसे बड़ी दलील होती है। पैगम्बरे इस्लाम के जीवन का एक एक पल पढ़ जाएं कुरआन का अक्षर अक्षर देख लीजिए। दोनों जगह बार बार एक ही चीज़ की दावत मिलती है और वह है विचार और तदब्बुर। अगर कोई व्यक्ति सवाल कर रहा है तो अव्वल तो उसका जवाब दिया जाए। आप जवाब देने लायक नहीं हैं या आपके जवाब से उसे तसल्ली नहीं तो उन उलेमा और बुद्धिजीवियों से सम्पर्क करने की सलाह दी जाए जो उसके सवालों का जवाब दे सकते हैं या उन्हें किताबों का हवाला दिया जाए जो उन सवालों का जवाब देती हूँ । यह सब हो सकता है लेकिन जब कि हमें खुद दीन की समझ हो और हमारा दिमाग लोकतांत्रिक हो। समस्या यह है कि मस्जिद की महराबों, दरगाहों की गद्दियों, जमाअतों की इमारतों, मेम्बर के खतीबों इन सब में कई ऐसे हैं जो न दीन की समझ रखते हैं और न सवाल सुनने के आदी, हज़रत जी ने जो फरमा दिया उसे सुनो और चुप रहो, को ही दीनदारी और अनुपालन मान लिया गया है। इस्लाम ऐसी भेड़ चाल की अनुमति नहीं देता। इस्लाम की नींव मानव स्वतंत्रता पर है। थोड़ा याद कीजिये बुजुर्ग महिला को जिसने खड़े होकर हज़रत उमर से पूछा कि सबके हिस्से में गनीमत के माल की एक एक चादर आई आपके पास दो चादरें कैसे आ गई? अगर सवाल आज के किसी हज़रत जी किया गया होता तो बुढ़िया का क्या हश्र होता? उमर ने बजाय खुद बता देने के तुरंत अपने बेटे को पेश किया जिन्होंने गवाही दी कि उन्होंने अपने हिस्से की एक चादर अपने पिताजी को दी है। अधिक कुछ कहने की जरूरत नहीं। नामूसे रिसालत और नामुसे सहाबा की बातें करने वाले अगर हज़रत उमर के इस घटना को ही अपने जीवन का आदर्श बना लें और अपनें अनुयायियों को यही सिखादें तो शायद कोई और मशाल मरने से बच जाए।
18 अप्रैल, 2017 स्रोत: रोज़नामा हिन्दुस्तान एक्सप्रेस, नई दिल्ली
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