एम. ख़ान (उर्दू से अनुवाद- समीउर रहमान, न्यु एज इस्लाम)
पाकिस्तान की त्रासदी सिर्फ यही नहीं है कि आतंकवादी संगठनों ने हर तरफ से इस देश को घेर रखा है बल्कि सबसे बड़ी समस्या ये है कि सामाजिक स्तर पर धार्मिक कट्टरता कुछ इस तरह फैल चुकी है कि पाकिस्तानी समाज से रवादारी (सहिष्णुता) का तत्व गायब ही होता जा रहा है। इसका लाज़मी नतीजा ये सामने आ रहा है कि अराजकता इतनी बढ़ गई है कि मानो इस देश में अराजकता ही मूल कानून बनकर रह गया है। हाल ही में अखबार डेली टाइम्स ने अपने सम्पादकीय में बहुत सख्त शब्दों में यह उजागर किया है कि आतंकवादी पूरी आज़ादी से जिस तरह सक्रिय हैं और अपनी मर्ज़ी से जहाँ चाहते हैं हमला करते हैं, इसकी बुनियादी वजह ये है कि ज़्यादातर आतंकवादी संगठनों को खुद पाकिस्तानी सेना ने बनाया है और परवान चढ़ाया है। आज भी इनको बढावा सेना ही दे रही है। जिसकी वजह से आतंकवादियों को कानून की गिरफ्त में आने का कोई डर ही नहीं है। अखबार डेली टाइम्स ने संपादकीय इस पृष्ठभूमि में लिखा था कि खुफिया एजेंसियों को ये खबर मिली है कि प्रतिबंधित आतंकवादी संगठनों ने प्रतिबंध लगाए जाने के बाद नए नामों से बैंकों में अपने खाते खोले हैं और उन्हें पाकिस्तानी औऱ अन्य देशों से धन उपलब्ध कराया जा रहा है। डेली टाइम्स ने ये सवाल उठाया है कि क्या वास्तव में इन संगठनों पर प्रतिबंध लगाया गया है या ये सिर्फ एक दिखावा है? जैसे लश्करे तैय्येबा ने अपना नाम जमातुद्दावा रख लिया है लेकिन उसकी गतिविधियों में कोई कमी नहीं आई है।
इसी तरह सिपाहे सहाबा, पाकिस्तान का नया नाम अहले सुन्नत वलजमात है लेकिन उसकी अतिवादी गतिविधियों वैसी ही हैं जैसे पहले थी। एक तरफ हाफिज़ सईद ने दूसरे आतंकवादी संगठनों के सहयोग से हिंदुस्तान के खिलाफ ज़हर उगलने के लिए मोर्चा खोल रखा है तो दूसरी तरफ सिपाहे सहाबा और लश्करे झांगवी जैसी मसलकी संगठनों ने शिया मुसलमानों के खिलाफ एक अभियान सा छेड़ रखा है। ये संगठन खुल्लम खुल्ला ये ऐलान करते हैं कि वो एक शिया को भी पाकिस्तान में रहने नहीं देंगे। पिछले महीनों में बलूचिस्तान के हजारा नस्ली के शियों को चुन चुन कर मारा गया। कराची सहित पूरे पाकिस्तान में शिया विरोधी अभियान तेज हो गया है। एक रुझान ये भी देखने में आ रहा है कि शिया समुदाय के डॉक्टरों, इंजीनियरों और अन्य क्षेत्रों से जुड़े विशेषज्ञों को खास तौर से निशाना बनाया जा रहा है। कुछ साल पहले से शियों को इसी तरीके से मारा जा रहा है जिसके परिणामस्वरूप कई प्रसिद्ध डॉक्टरों ने पाकिस्तान को हमेशा के लिए अलविदा कह दिया है।
इन सभी गतिविधियों पर राजनीतिक पार्टियां आतंकवाद और अराजकता फैलाने वाले लोगों के खिलाफ एक शब्द भी बोलना नहीं चाहतीं। पूर्व क्रिकेट कप्तान इमरान खान भी अपने बयानों के द्वारा अप्रत्यक्ष रूप से आतंकवादी संगठनों को प्रोत्साहित ही कर रहे हैं। सुनने में ये आ रहा है कि प्रोत्साहन सेना और एजेंसियों के लोग कर रहे हैं। यह करीने क़यास भी है क्योंकि इमरान खान की रैलियों में जो भीड़ दिखती है, वह उन्हीं क्षेत्रों की है जो आतंकवादियों और धार्मिक अतिवादियों के प्रति सहानुभूति रखते हैं। पाकिस्तान के कुछ अख़बारों ने ये इशारा भी किया है कि इमरान खान की रैलियों में भीड़ जुटाने में पर्दे के पीछे से खुफिया एजेंसियां भरपूर सहयोग करती हैं। इमरान खान ये दावा भी कर रहे हैं कि अगर वो सत्ता में आ गए तो आतंकवाद का नामोनिशान मिट जाएगा। इनका बड़ा सीधा सा लेकिन अजीब तर्क ये है कि 'ड्रोन हमले बंद हो जायें या आतंकवाद के खिलाफ अमेरिका के नेतृत्व में लड़ी जाने वाली जंग से पाकिस्तान अलग हो तो आतंकवाद अपने आप बंद हो जाएगा।
ये सिर्फ इमरान खान ही बात नहीं हैं, दूसरी बड़ी पार्टियां भी आतंकवादियों के खिलाफ किसी तरह का बयान देने या उनकी निंदा करने से कतराती हैं और जब कहीं आतंकवादी घटना पेश आती है तो ये कह देते हैं कि ये सब कुछ सिर्फ इसलिए हो रहा है कि पाकिस्तान आतंकवाद के खिलाफ युद्ध में अमेरिका का सहयोगी है। पंजाब राज्य में स्थिति कुछ ज्यादा ही खराब है। आजकल जमातुद्दावा और अन्य आतंकवादी संगठनों की रैलियाँ एक के बाद एक हो रही हैं और रैलियों में हाफिज़ सईद समेत अन्य आतंकवादी नेता हिंदुस्तान के खिलाफ खूब ज़हर उगल रहे हैं। इन संगठनों को हिंदुस्तान के खिलाफ ज़हर उगलने के लिए एक नया बहाना ये मिल गया है कि कुछ महीने पहले पाकिस्तान सरकार ने ये फैसला किया था कि आपसी व्यापार के लिए हिंदुस्तान को मोस्ट फेवर्ड नेशन यानी एम.एफ.एन. का दर्जा दिया जाएगा। इस फैसले के खिलाफ सईद खास तौर से बहुत सक्रिय हो गए हैं और पाकिस्तान की मौजूदा सरकार के खिलाफ बाकायदा मोर्चा खोल लिया है।
'देफाए (रक्षा) पाकिस्तान' के नाम पर हिंदुस्तान के खिलाफ खूब इशेतआल-अंगेज़ी हो रही है और सभी राजनीतिक पार्टियां खामोश तमाशाई बनी हुई हैं। संजीदा मोबस्सिरीन (गंभीर पर्यवेक्षकों) का मानना है कि इसमें शक नहीं कि आतंकवादी संगठनों को सेना और एजेंसियों का समर्थन हासिल है लेकिन राजनीतिक पार्टियों की मसलहेत आमेज़ चुप्पी भी कुछ कम खतरनाक नहीं है। हाल के दिनों में पंजाब में जो रैलियाँ हुई हैं उनके बारे में केंद्र सरकार का कहना है कि पंजाब की सरकार आतंकवादी संगठनों के प्रति नरम व्यवहार करती है। ये सही भी है क्योंकि अधिकतर आतंकवादी संगठन इसी प्रांत में सक्रिय हैं और उनके अड्डे भी यहीं हैं। ये भी सही है कि नवाज़ शरीफ के मुस्लिम लीग ने अक्सर चुनाव में लश्करे झांगवी और सिपाहे सहाबा जैसे संगठनों से समझौते भी किए हैं लेकिन हाल ही में पंजाब जैसी रैली कराची में हुई थी और चरमपंथियों ने ऐसी और रैलियों के आयोजन की घोषणा की है। जबकि सिंध प्रांत में पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी की सरकार है और वो भी आतंकवादियों के सामने खुद को इतना ही असहाय पाती है जितनी पंजाब सरकार। कुछ अखबारों ने कहा है कि राजनीतिक पार्टियां एक दूसरे को स्थिति बिगड़ने का ज़िम्मेदार करार देती हैं लेकिन वास्तविकता ये है कि अधिकतर राजनीतिक दल रणनीतिक रूप से चुप रहते हैं।
आतंकवाद और धार्मिक उग्रवाद के सवाल पर पाकिस्तानी न्यायपालिका की भूमिका भी संजीदा लोगों के बीच भी आलोचना का निशाना बन रही है। और ये कहा जा रहा है कि वर्तमान मुख्य न्यायाधीश इफ़्तिख़ार मोहम्मद चौधरी के सामने सिर्फ एक एजेंडा है कि हर मामले में वर्तमान सरकार की पकड़ की जाये। कानून के कुछ विशेषज्ञ ने तो ये तक कहा है कि न्यायपालिका सरकार के खिलाफ बदले की कार्रवाई करने में व्यस्त है और इस सिलसिले में कानून के विशेषज्ञ इस बात का हवाला विशेष रूप से दे रहे हैं कि पंजाब के गवर्नर सलमान तासीर के हत्यारे को जब एक अदालत ने फांसी की सजा सुनाई तो उस जज का जीना हराम कर दिया गया। यहां तक कि न्यायाधीश को भाग कर दूसरे देश में शरण लेना पड़ा। आश्चर्यजनक बात ये थी कि इस जज के खिलाफ खुद कुछ वकीलों ने मोर्चा बनाया और उसके कार्यालय पर हमले भी किए लेकिन इन सभी गैरकानूनी गतिविधियों के बावजूद पाकिस्तान की सुप्रीम कोर्ट बिल्कुल चुप रही और खुद से (सू मोटो) किसी तरह का नोटिस नहीं लिया। हालांकि कुछ वकीलों की गतिविधियां बाकायदा तौर पर अदालत की तौहीन की श्रेणी में आती हैं। यहाँ तक कि आतंकवादी संगठनों और अतिवादी धार्मिक लोगों से निपटने में कोई भी गंभीर नज़र नहीं आता है। सेना तो खैर इन संगठनों का समर्थक और संरक्षक है। लेकिन राजनीतिक पार्टियां, न्यायपालिका और कानून पर अमल कराने वाली एजेंसियां भी इस मामले में आपराधिक उपेक्षा का प्रमाण देती हैं। यही वजह है कि अब तक कोई प्रभावी कानून नहीं बन सका, जिसके तहत आतंकवाद की रोकथाम हो सके।
आतंकवाद से संबंधित जो मौजूदा कानून है, इसमें कुछ इतनी खामियाँ हैं कि हत्यारे साफ बच निकलते हैं। इसका एक ताज़ा प्रमाण ये है कि आतंकवाद की भयानक घटनाओं में लिप्त संदिग्ध लोगों को लाहौर की आतंकवाद निरोधक अदालत ने 'सबूत की कमी' के कारण रिहा कर दिया। अखबार एक्सप्रेस ट्रिब्यून ने सरकारी आंकड़ों के हवाले से अपनी एक रिपोर्ट में कहा है कि 2011 में सबसे भयानक घटनाओं में शामिल आतंकवादियों के प्रमुख नेता अदालत से बरी दिए गए। रिहा होने वालों में प्रतिबंधित संगठनों जैसे लश्करे झांगवी, सिपाहे सहाबा, तालेबान पाकिस्तान और हरकतुल मुजाहिदीन के बड़े नेता शामिल हैं। पंजाब पुलिस के अतिरिक्त महानिदेशक (जांच-शाखा) मोहम्मद असलम तरीन ने इस स्थिति पर अफसोस जताते हुए कहा है कि अगर इस तरह के खतरनाक घटनाओं में कानून में थोड़ा सा संशोधन किया जाए तो आतंकवाद से निपटने में कुछ हद तक सफलता मिल सकती है। उन्होंने यह प्रस्ताव पेश किया कि जो आरोपी पुलिस के सामने बयान देते हैं, उस बयान को अदालत के सामने दिए गए बयान के बराबर समझा जाए। यह एक उचित प्रस्ताव है, लेकिन राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी के कारण ये उम्मीद की जा सकती है कि ऐसा संशोधन संभव होगा?
स्रोतः जदीद मेल, नई दिल्ली
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