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Hindi Section ( 12 Jul 2013, NewAgeIslam.Com)

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The Essence of Fasting रोज़े का महत्व

 

ख्वाजा मोहम्मद ज़ुबैर

21 जुलाई, 2012             

रमजान के पवित्र महीने में रोज़े रखना धार्मिक काम है जो आत्मा को शुद्ध करता है और इंसान को खुदा के साथ एक स्थायी सम्बंध के लिए तैयार करता है जहां अल्लाह का खौफ़ हावी रहता है। अगर ईमानदारी और विश्वास के साथ रोज़ा रखा जाये तो रोज़ा सबसे बढ़कर एक अच्छा इंसान बनने में हमारी मदद करता है। इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है कि सभी धर्मों ने इस तरह या दूसरे तरीके से रोज़ा रखने का हुक्म दिया है। ये आमतौर पर जाना जाता है कि रोज़ा इस्लाम के पांच स्तम्भों में से एक है (अन्य चार ईमान, नमाज़, हज और ज़कात हैं)।

रमज़ान का पवित्र महीना इबादत का महीना है, सदक़े (दान) का महीना है, परहेज़गारी (धर्मपरायणता) का महीना है, कुरान का महीना है और सबसे बढ़कर ये आत्मावलोकन और खुद के सुधार का महीना है। यही वो महीना है कि जिसमें मुसलमान सभी अच्छे काम, हर ज़रिए, हर तरीके, हर जगह और उन सभी लोगों के साथ करने की कोशिश करते हैं जिनके साथ वो कर सकते हैं। तमाम नेकियाँ करो' के मक़सद के साथ आज सभी मुसलमानों को एक अच्छा इंसान बनने के लिए सामूहिक प्रयास करने, नैतिकता में बेहतरी को हासिल करने, अपने सामान्य व्यवहार में सुधार करने, असाधारण शक्ति वाली नैतिक भावना पैदा करने और एक ऐसा विश्वास हासिल करना ज़रूरी है कि जिससे वो अच्छाई और बुराई में भेद कर सकें, हालांकि सच्चाई हमेशा जल्दी हासिल नहीं होती है। ये इस समय और इस पवित्र महीने की वास्तविक ज़रूरत है।

इस्लाम के बुनियादी नैतिक मूल्य ये हैं: करुणा, दया और शांति। हमारे दिल व दिमाग़ में अल्लाह के खौफ के साथ अपनी धार्मिकता के लिए जो कि रोज़े से पैदा होती है और इस्लाम के नैतिक मूल्यों से लैस मुसलमान दुनिया को साधने के लिए चमत्कार कर सकते हैं और अपने खोए हुए गौरव को हासिल कर सकते हैं। सबसे पहले जो बात दिमाग में आती है, करुणा है और किस तरह ये हमें अच्छा इंसान बना सकती है। हमदर्दी का उसूल सभी धर्मों, नैतिकताओं और आध्यात्मिक परंपराओं का प्रमुख हिस्सा होता है, जो कि हम दूसरों से ऐसे बर्ताव की अपेक्षा करते हैं जैसा कि हम अपने लिए दूसरों से चाहते हैं। सहानुभूति हमें हमारे साथी प्राणियों के दुखों का अंत करने के लिए अथक संघर्ष करने की प्रेरणा देता है। हमे अपनी दुनिया के केंद्र से खुद को उतारने और उस जगह दूसरों को स्थापित करने की प्रेरणा देता है। और सभी इंसानों के आदर और सम्मान की प्रेरणा देता है। किसी अपवाद के बिना सभी के साथ पूर्ण न्याय, समानता और सम्मान के साथ पेश आने की प्रेरणा देता है। सार्वजनिक और निजी दोनों जीवन में निरंतर दूसरों को तकलीफ पहुँचाने से बचना ज़रूरी है। द्वेष करना, अंध देश-भक्ति या व्यक्तिगत लाभ के लिए हिंसक काम करना और किसी को उसके मौलिक अधिकारों से वंचित करना और किसी को बदनाम करके नफ़रत भड़काना, यहां तक कि दुश्मन के साथ भी ऐसा बर्ताव करना- हमारी साझा मानवता से इन्कार है।

इस्लाम में प्रेम की परंपरा के बारे में अपना अध्ययन शुरू करने के लिए सबसे अच्छी जगह निश्चित रूप से कुरान और पैगम्बर मोहम्मद सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम का जीवन है। मुसलमानों को दुनिया के सभी अजूबों में खुदा के कृपालू होने के लक्षण (आयतें) पर ग़ौर करना ज़रूरी है। क्योंकि अल्लाह की उदारता की वजह से व्यवस्था और उर्वरता है, जिसमें कि अराजकता और बंजरपन हो सकता था। जैसे उन्होंने खुदा के दया भाव की सराहना करना सीखा है। मुसलमानों के अंदर भी इसकी नकल करने का रूझान पैदा होगा। वो भी खुदा के पैदा किये सभी प्राणियों के साथ मोहब्बत से पेश आना चाहेंगे और मेहरबान और जिम्मेदारी के गुण को चरमोत्कर्ष पर ले जाते हुए, खासकर समाज के कमज़ोर और वंचित वर्ग के लिए स्नेह और नेकी के लबादे में खुद को ढालना चाहेंगे।

कुरान की तिलावत अल्लाह, रहमान और रहीम से एक दुआ के साथ शुरू होती है। कुरान का मूल संदेश व्यावहारिक दयालुता और सामाजिक न्याय के लिए एक निमंत्रण है। दौलत जमा करना गलत है और निष्पक्ष तरीके से अपने धन को खर्च करना अच्छा है, और एक ऐसे सभ्य समाज के निर्माण के लिए संघर्ष करना अच्छा है, जहां सबका सम्मान किया जाए। हुज़ूर सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम के मिशन की शुरुआत से ही गरीबों को ज़कात देने को मुसलमानों की ज़िंदगी का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बनाया गया है। ईमान (विश्वास) सिर्फ खुदा के बारे में सिद्धांतों के संकलन को तार्किक रूप से स्वीकार करना नहीं है। कुरान की प्रारंभिक सूरतों में बार बार इस बात पर ज़ोर दिया गया है कि मोमिन मर्द या औरत वो हैं जिन्होंने "इंसाफ के आमाल (कार्यों)" (सालेहात) अंजाम दिए। सभी मुसलमान इसे जानते हैं लेकिन हमें इन बुनियादी हक़ीक़तों से खुद को आगाह करने के लिए एक सचेत प्रयास की ज़रूरत है। कुरान खुद ही एक याद दिलाने वाली किताब है। ये बार बार हमें इस बात को याद दिलाती है कि इंसान मूल रूप से बुरा नहीं है बल्कि वो सिर्फ भूल का शिकार है। एक बार उनके धार्मिक, नैतिक और सामाजिक जीवन के मूल भाग में हमदर्दी बहाल कर दी गई तो वो सभी विवादैस्पद मुद्दे जो ईमान वालों के बीच विवाद पैदा करते हैं, उन्हें उचित परिपेक्ष्य में देखा जा सकता है।

ख्वाजा मुहम्मद जुबैर एक स्वतंत्र स्तंभकार हैं। ये लेख खलीज टाइम्स से लिया गया है।

स्रोत: http://www.nation.com.pk/pakistan-news-newspaper-daily-english-online/columns/21-Jul-2012/the-essence-of-fasting

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