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Hindi Section ( 21 Jul 2014, NewAgeIslam.Com)

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Islamic Revolution and Journalism इस्लामी क्रांति और पत्रकारिता

 

साहबज़ादा खुर्शीद अहमद गिलानी

वर्तमान समय में पत्रकारिता को आधुनिक राज्य का चौथा स्तंभ स्वीकार किया जा चुका है, विधायिका कानून बनाती है, न्यायपालिका उसकी व्याख्या करती है, प्रशासन इसे लागू करती है और पत्रकारिता इस सारी प्रक्रिया के लिए जनमत तैयार करती है, इस दृष्टि से पत्रकारिता को राज्य का चौथा स्तंभ घोषित करने में कोई ऐतराज़ नहीं।  

किसी ज़माने में लिखने पढ़ने को सिर्फ 'मुंशी गीरी' माना जाता था और कलम पकड़ना एक 'मौलविायाना' पेशा था लेकिन आधुनिक दौर में इस पढ़त लिखत ने पत्रकारिता का रंग धारण कर लिया है और इसके सामने एक दुनिया दंग रहती है अमेरिका जैसे एकमात्र 'सुपर पावर' से लेकर मालदीव और मलाया जैसी छोटे देश तक पत्रकारिता से आंखें चार करने का साहस नहीं रखते, इसलिए कि पत्रकारिता की आधुनिक तकनीक और आवश्यकता ने हर एक से अपनी ताकत मनवा ली है।

राष्ट्रपति निक्सन से ले कर बकिंघम पैलेस तक पत्रकारिता के हमलों से कांपते नज़र आए, बेशक आज का दौर मीडिया का दौर है, विशाल ब्रह्मांड को एक इकाई में इसी मीडिया ने ही बदला है, चाहे वो इलेक्ट्रॉनिक मीडिया हो या प्रिंट मीडिया, दोनों के प्रभाव व्यापक, अमिट और अपार हैं, इस दौर में पत्रकारिता की उपयोगिता अब कोई अनोखा या नया विषय  नहीं बल्कि एक घोषित तथ्य है, लेकिन इसके विभिन्न पहलुओं को हर आदमी अद्वितीय तरीके से समझता है और इससे पृथक निष्कर्ष निकालता है। हर दौर में कलम की अस्मत की क़स्में खाई गईं, और अक्षर और शब्द की पवित्रता पर ज़ोर दिया गया, बड़े बड़े विश्व विजेता गुज़रे हैं, दारा व इस्कंदर, क़ैकबाद व कैखुसरो, जमशेद व फरीदों ने कई क्षेत्र जीते मगर इन सबके मुकाबले में अक्षर और शब्दों की जीत का दायरा व्यापक भी रहा है और स्थायी भी!

तलवार की नोक ने अस्थायी तौर पर हालात को पलट कर रख दिया मगर कलम की नोक ने दिल व दिमाग की सल्तनतों को उलट कर रख दीं, तलवार की धार चार दिन में कुंद हो गई लेकिन कलम के आसार आज तक नज़र आते हैं। लेकिन पत्रकारिता दो धारी तलवार कहा जा सकता है, ये लिखने वाले हाथ पर निर्भर करता है कि वो इस तलवार से क्या भूमिका अदा करता है? कलम ने कभी कभी अपनों को भी घायल किया है और कण को हिमालय और अंश को समंदर बना कर पेश किया है। पत्रकारिता का ये पहलू हमेशा बहस की मांग कर रहा है, लेकिन जिन लोगों ने पत्रकारिता को प्रकृति की अमानत समझकर काम किया है उन्होंने समाज में क्रांति को सिंचित किया है।

पत्रकारिता के विविध पहलू हैं, और इसकी भूमिका अलग अलग है, हम पत्रकारिता को प्रचार व प्रसार के हवाले से देखते हैं तो सच्ची बात ये है कि किसी ज़माने में जो काम मिम्बर और मेहराब ने अंजाम दिया था वही भूमिका आज पत्रकारिता अदा कर सकती है। मिम्बर और मेहराब ने दिल की दुनिया में हलचल मचाई, दिमागों को जीवन दिया, विचारों के अंदाज़ को बदला, दृष्टिकोण बदले, और नेकी और भलाई की राहें खोल दीं।

आज दुनिया में भलाई की जो भी चर्चा है वो किसी बादशाह का कारनामा नहीं बल्कि मिम्बर और मेहराब से जुड़े लोगों का योगदान है। अच्छाई और बुराई में भेद की चेतना सत्ताधारी लोगों की विरासत नहीं बल्कि मिम्बर और मेहराब से जुड़े लोगों के कारण है। सही और गलत के बीच रेखा किसी मीर व वज़ीर ने नहीं खींची बल्कि मिम्बर और मेहराब के वारिस किसी फकीर ने बनाई है। क्योंकि सौ दो सौ साल पहले मीडिया का स्रोत मिम्बर व मेहराब थे, लोगों तक अपनी बात पहुंचाने का साधन मिम्बर और मेहराब थे, मिम्बर और मेहराब के प्रभाव हालांकि बहुत व्यापक हैं, लेकिन पत्रकारिता के जैसे आधुनिक संचार माध्यम बहुत दूर तक और बड़ी देर तक अपने प्रभाव फैलाता और स्थापित करता है। वर्तमान सदी में जहां पत्रकारिता ने कई मैदान जीते हैं, नए विचारों को बढ़ावा दिया है, नई आर्थिक प्रणाली को परिचित कराया है, राजनीतिक क्रांतियों का मार्ग प्रशस्त किया है, स्वतंत्रता के आंदोलनों को बल दिया है, उपनिवेशी पकड़ को तोड़ा है, गुलाम और पराजित जनता को स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए प्रेरित किया है, विचारों के नए क्षितिज तलाशें हैं, राजनीतिक अंतर्दृष्टि और क्रांतिकारी चेतना के नए द्वीपों की खोज की है, अत्याचार की स्थिर व्यवस्था को कमज़ोर किया है और कमज़ोरों के अधूरे सपनों को पूरा किया है, वहीँ इस्लामी दुनिया में पत्रकारिता ने धर्म प्रचार के दायित्व को भी निभाया है, और लाखों मुसलमानों में नये सिर से ईमान की भावना को पैदा किया है, खुदा की बंदगी का शौक उभारा है, इस्लाम को लागू करने के जोश को ताज़ा किया है, और सकारात्मक परिवर्तन के लिए मजबूत नींव प्रदान की है।

आज इस्लामी दुनिया में चारों ओर जो इस्लामी क्रांति का बोलबाला है, उसमें और भी कई कारक सक्रिय होंगे लेकिन बहुत बड़ा हिस्सा पत्रकारिता का है जो दिल व दिमाग की ज़मीन को इस फसल के लिये बनाता और तैयार करता है।

सैयद जमालुद्दीन अफगानी रहमतुल्लाह अलैहि ने जिस जोश से 'पैन इस्लामिज़्म' के आंदोलन को चलाया कि यूरोप आज तक इस शब्दावली से घबराता है, 'अलउरवतुल वुस्क़ा' सिर्फ एक पत्रिका नहीं थी बल्कि धर्म की ओर बुलाने की संस्था थी जिसने एक साथ ज्ञान के आंदोलन, रूहानी ख़ानक़ाह, राजनीतिक प्रशिक्षण स्थल और जनमत के मार्गदर्शन का कर्तव्य निभाया। 'अलउरवतुल वुस्क़ा' का विश्लेषण औपनिवेशिक ताक़तों के बखिए उधेड़ता था, लेख में मन बनाये जाते थे, और संपादकीय राजनीति का रुख तय करते थे। सैयद जमालुद्दीन अफगानी रहमतुल्लाह अलैहि एक व्यक्ति थे लेकिन अपने अंदर एक क़ौम की जितनी शक्ति रखते थे, वो एक व्यक्ति थे लेकिन पूरे इस्लाम का प्रतिनिधित्व करते थे, एक अकेले कलमकार थे लेकिन मिल्लते इस्लामिया का विवेक थे। अफग़ानी रहमतुल्लाह अलैहि की पत्रकारिता के ढंग ने लोगों को धर्म की दावत देने की नयी शैली दी।

भारतीय उपमहाद्वीप में मौलाना अबुल कलाम आज़ाद रहमतुल्लाह अलैहि ने अल-हिलाल' और 'अल-बलाग़' के माध्यम से क़ुरान की तरफ लोगों को बुलाया और शेखुल हिन्द मौलाना महमूद हसन रहमतुल्लाह अलैहि जैसे बुज़ुर्ग को स्वीकार करना पड़ा कि 'इस नौजवान ने हमें भूला हुआ सबक याद दिलाया है।' अल-हिलाल' सही मायनों में पत्रकारिता की पत्रिका नहीं थी बल्कि धर्म प्रचार से सम्बंधित थी। इज्तेहादी शान की ये पत्रिका दिलों के खामोश समंदर में एक अर्से तक लहरें पैदा करती रही, उसी तरह 'अल-बलाग़' ने मीडिया के नए प्रयोग किए और वो हर लिहाज़ से सुखद अनुभव साबित हुए।

मौलाना मोहम्मद अली जौहर रहमतुल्लाह अलैहि ने 'कामरेड' और 'हमदर्द' के माध्यम से समकालीन राजनीति के साथ धर्म की दावत का भरपूर काम किया, जब 'तुर्क नादान' ने खिलाफत के लिबास को अपने हाथों से चाक कर दिया और मुसलमानों के रहे सहे हौसले को भी पस्त कर दिया तो वो मौलाना जौहर रहमतुल्लाह अलैहि थे जिन्होंने अपने बेबाक क़लम से खिलाफत के विषय पर पूरी मिल्लते इस्लामिया की भावनाओं का एक क्षेत्र बना दिया यहां तक ​​कि इराक के शिया मुज्तहिदीन को खिलाफत के पुनरुद्धार और खिलाफत की सुरक्षा के बारे में फतवा जारी करना पड़ा।

ख्वाजा हसन निज़ामी रहमतुल्लाह अलैहि ने 'दरवेश' के माध्यम से एक आध्यात्मिक क्रांति की नींव रख। क़ुदरत ने ख्वाजा हसन निज़ामी रहमतुल्लाह अलैहि को इंशा परवाज़ी का हुस्न इस शान से दिया था कि हकीमुल उम्मत अल्लामा इक़बाल रहमतुल्लाह अलैहि को कहना पड़ा 'अगर मुझे ख्वाजा हसन निज़ामी रहमतुल्लाह अलैहि की तरह गद्य और पद्य पर पकड़ हासिल होती तो मैं शायरी को कभी अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम नहीं बनाता।'

ख्वाजा हसन निज़ामी रहमतुल्लाह अलैहि ने इंशा परदाज़ी से नैतिक और आध्यात्मिक और सामाजिक दावत का काम लिया, छोटे वाक्यांशों, सुंदर वाक्यों, दिलचस्प उपमाओं और मोहक कहानियों से जीवनी का निर्माण और चरित्र के गठन  का दायित्व अंजाम दिया। मुल्ला वाहिदी रहमतुल्लाह अलैहि अपनी शैली के लेखक थे, उन्होंने 'मुनादी' को अधिकार और नैतिकता की आवाज़ बना दी। मौलाना अब्दुल माजिद दरियाबादी रहमतुल्लाह अलैहि आसान गद्य लिखने वाले थे और उनकी गद्य में शब्दों की तुलना में विचार अधिक होते थे। उन्होंने भी 'सदक़' और 'सच' को पारम्परिक पत्रकारिता का हिस्सा नहीं बनाया बल्कि नाम के हिसाब से सच्चाई को बढ़ावा दिया। इसी अध्याय में कई नाम हैं, उन सब को इसमें शामिल करना मक़सद नहीं केवल ये बताना है कि पत्रकारिता से धर्म के प्रचार और प्रसार का काम इस्लाम ने कैसे लिया और आज क्यों इस सुखद कर्तव्य से अपने को अलग किया जा सकता है?

वर्तमान समय में जब भी इस्लामी आंदोलनों की समीक्षा की जाएगी और इस्लामी व्यवस्था की मंज़िल के मुसाफिरों का नाम लिया जाएगा तो बहुत ही स्पष्ट रूप से जमाते इस्लामी और मौलाना मौदूदी रहमतुल्लाह अलैहि का उल्लेख होगा, केवल उपमहाद्वीप पर क्या बल्कि दुनिया भर में चलने वाले इस्लामी आंदोलनों में शायद सबसे अधिक संगठित और प्रभावशाली संगठन 'जमाते इस्लामी' है। इसकी राजनीति के वर्तमान अंदाज़ से मतभेद के बावजूद इसकी सेवाओं से इंकार असम्भव है। जमाते इस्लामी जैसे संगठित और वैश्विक आंदोलन मौलाना मौदूदी रहमतुल्लाह अलैहि की पत्रकारिता के क्षेत्र में उनके दावती किरदार की देन है। मौलाना मरहूम ने 'तर्जुमानुल कुरान' के माध्यम से इस्लाम मानने वालों को इस्लाम की क्रांतिकारी दावत से अवगत कराया। सीमित धार्मिकता के मुक़ाबले में धर्म की सार्वभौमिक स्थिति को उजागर किया। इबादत और रस्मों के दायरे से निकालकर इस्लाम को एक जीवन पद्धति के रूप में पेश किया। इस्लाम को सांस्कृतिक, राजनीतिक, सामाजिक और कानूनी समस्याओं के समाधान द्वारा साबित किया।

इस दौर में और भी अखबार और पत्रिकाएं प्रकाशित होती थीं और भरपूर तरीक़े से राजनीतिक और सामाजिक विश्लेषण पेश करते थे लेकिन 'तर्जुमानुल कुरान' की दावती शैली इतनी प्रभावी और कामयाब हुई कि 'तर्जुमानुल क़ुरान' में पेश किये गये विचारों के आधार पर 'जमाते इस्लामी' जैसे आंदोलन उठ खड़े हुए।

जिस जिस दौर की ये मिसालें हैं वो निस्संदेह उथल पुथल वाले और मुसलमानों के लिए विशेषकर परेशानी वाले थे लेकिन औधुनिक दौर तो इस्लामी दुनिया और इस्लाम के मानने वालों के लिए क़यामत बना हुआ है। एकध्रुवीय विश्व में इस्लामी दुनिया को सांस लेने की इजाज़त भी बड़ी मुश्किल से मिल रही है। इस्लामी दुनिया पर पश्चिमी सभ्यता के हमले, पश्चिमी राजनीति व्यवस्था का वर्चस्व, साम्राज्यवादी प्रभाव का वर्चस्व, इसका आर्थिक घेराव, और वैचारिक सीमाओं की असुरक्षा ऐसे मुद्दों ने इस्लामी दुनिया को अत्यंत परेशान कर रखा है। पिछले दौर की तुलना में आज पत्रकारिता को धर्म के प्रचार प्रसार का साधन बनाने की बहुत ज़रूरत है। 'ज्वलंत मुद्दों' और 'करेंट अफेयर्स' पर टिप्पणी और विश्लेषण सही लेकिन राय बनाने, विचारधारा के प्रसार, चरित्र निर्माण पर अधिक ध्यान देने की ज़रूरत है।

आज कम से कम इस्लामी दुनिया में पत्रकारिता को अपनी परम्परागत शैली से हटकर क्रांतिकारी बुनियादों पर धर्मोपदेशक की भूमिका निभानी चाहिए। आज की स्थिति साफ पता दे रही है कि इक्कीसवीं सदी में इससे कहीं बढ़कर इस्लाम और इस्लामी दुनिया को चुनौतियाँ पेश होंगी। इन खतरों का मुकाबला औपचारिक और पारम्परिक पत्रकारिता नहीं कर सकेगी और औधुनिक दौर के टकसाल में ढले हुए सिक्के इक्कीसवीं सदी के बाजार में उपयोगी नहीं रहेंगे बल्कि इसके लिए पत्रकारिता को नया रूप देना होगा, जो एक साथ दुनिया के राजनीतिक और आध्यात्मिकता की खाली जगह को पूरा कर सके। राजनीति और आध्यात्मिकता के बीच आज जो दूरी नज़र आती है वो वास्तव में इसानों के बीच की दूरी है, और अगर ये दूरी इसी तरह बढ़ती रही तो भविष्य में राजनीतिक व सामाजिक और वैचारिक संकट जो भी पैदा होंगे उन सबसे बढ़कर बेगानगी और अजनबीयत का संकट उठेगा तो इस संकट का मुकाबला किसी पारंपरिक प्रक्रिया से नहीं हो सकेगा। पत्रकारिता की दावती भूमिका के माध्यम से आध्यात्मिकता और राजनीति की खाई को पाटने की ज़रूरत है ताकि भविष्य की इंसानी दुनिया गंभीर हादसों से सुरक्षित रहे।

मई 2014 स्रोतः मासिक सौतुल हक़, कराची

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