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Hindi Section ( 7 March 2012, NewAgeIslam.Com)

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Islam, Muslims and Education इस्लाम, मुसलमान और तालीम


ख़ालिद शेख़ (उर्दू से अनुवाद- समीउर रहमान, न्यु एज इस्लाम)

वर्ली पर दूर-दर्शन केन्द्र के सामने जो गली है वह आमतौर पर सुनसान होती है। गली के दोनों तरफ बड़ी कंपनियों के दफ्तर हैं और थोड़े थोड़े फास्ले पर पेड़ों की कतारें हैं जिनकी वजह से गली में ठंडक और छाया रहती है। शाम के वक्त अगर कभी आपका गुज़रना गली से हो तो स्ट्रीट लाइट के नीचे आपको छात्रों के समूह पढ़ते या बातचीत करते हुए नज़र आएंगे। शिक्षा के प्रति इन बच्चों की दिलचस्पी और लगन देखकर सुखद आश्चर्य और प्रसन्नता होती है। बच्चों का संबंध शायद उन गरीब या मध्य वर्ग के घरानों से होता है जो कोचिंग क्लासेज़ के खर्च को बर्दाश्त न कर पाने वाले होते हैं। वर्ली के आसपास की  आबादी हिन्दुओं और दलितों की है। छोटे छोटे कमरों में रहने वाले ये बच्चे जगह की तंगी और माहौल के शोर शराबे से बचने के लिए यहां पढ़ाई के लिए आते हैं और यह सिलसिला लगभग साल भर जारी रहता है। उन्हें देख कर हमें अपना वक्त याद आ गया। हम औसत दर्जे के छात्र रहे हैं और इम्तेहान के मौक़े पर ही पढ़ाई की तरप तवज्जोह देते थे इसके लिए कभी हम मुंबई सेंट्रल स्टेशन के खाली प्लेट फार्म पर तो कभी रानी बाग में या फिर किसी दोस्त के घर डेरा जमाते थे। आज भी स्टेशन के प्लेटफार्म पर छात्र पढ़ाई में लगे हुए नज़र आते हैं लेकिन करीब में ही मुसलमानों की बड़ी आबादी के बावजूद वहां हमें कोई मुस्लिम छात्र नज़र नहीं आता।

कुछ साल पहले हमने अपने दोस्तों के साथ घोघारी मुहल्ले के मदरसे फ़ैज़ उलूम की दो मंज़िला इमारत में एक स्टडी सेंटर स्थापित किया था ताकि आस पास की घनी आबादी और शोर-शराबे से दूर इलाके के स्कूल और कॉलेज के छात्र वहां आकर इत्मिनान और सुकून के साथ पढ़ाई कर सकें। हमने एक हैंड बिल भी वितरित किया और मुफ्त गाइड बॉक्स और कोचिंग की व्यवस्था की थी। और आस-पास के स्कूलों के प्रिंसिपल साहेबान से मिलकर अनुरोध किया था कि बच्चों को सुविधाओं का लाभ उठाने के लिए प्रेरित करें। पहले चार दिन लगभग 20 छात्र इकट्ठा हुए। उसके बाद उनकी संख्या धीरे कम होती गई और महीने भर के भीतर ही हमें वह सेंटर बंद करना पड़ा। ये उस धर्म के मानने वालों का हाल है जिसके मर्द और औरतों को इल्म हासिल करना फर्ज़ क़रार दिया गया है। इस्लाम में इल्म हासिल करने की अहमियत का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि कलाम पाक के नोज़ूल की शुरुआत ही इक़रा और कलम' से हुआ है जो इल्म हासिल करने की कुंजी है।

इस्लाम ने दीनी व दुनियावी इल्म को हासिल करने में कोई कैद नहीं रखी है बल्कि हर उस इल्म को फायदेमंद क़रार दिया है जो इंसानियत के लिए सूदमंद और इस्लामी मूल्यों के खिलाफ न हो। दीनी तालीम इंसान को अच्छा इंसान बनाती है तो समकालीन शिक्षा इसके लिए दुनियावी तरक्की का रास्ता खोलती है। इसलिए कहते हैं कि इस्लाम में दीन व दुनिया के कामों में जब खुदा के एहकाम पर अमल होता है तो वो दीन बन जाता है, इस वक्त का खाना पीना, उठना बैठना, सोना जागना, यहाँ तक कि हर अमल दीन के मुताबिक हो जाता है। कम वक्त में इस्लाम की क़ुबूलियत और मक़बूलियत के पीछे यही रहस्य कारफरमा था। अहदे रिसालत और दौरे सहाबा से लेकर मध्यकाल तक मुसलमान इल्मो-फन और तारीख के मीरे कारवां थे। उन्होंने ऐसे ऐसे इल्मी और तहक़ीक़ी कारनामे अंजाम दिए जिसने जदीद फलसफे और साइंस की बुनियाद रखी। हमारे असलाफ ने दीन व दुनिया के बीच ऐसा आदिलाना तवाज़ुन क़ायम किया कि दोनों को एक दूसरे से अलग करना मुश्किल था। जब तक ये तवाज़ुन रहा दुनिया मुसलमानों के आगे सरंगों होती रही लेकिन जहां उनके कदम डगमगाए दुनिया की क़यादत व सियासत उनसे छिन गई।

यह दौर उलूम व फनून और ईजादात व इंकिशाफ़ात का है किसी ज़माने में उन पर मुसलमानों का राज था। आठवीं शताब्दी से चौदहवीं सदी तक साइंस, फ़लसफ़ा, मंतिक़, रेयाज़ी (गणित), तिब (चिकित्सा), कीमिया (रसायन विज्ञान), फलकियात, अरज़ियात (भूविज्ञान) इल्म का कोई क्षेत्र ऐसा नहीं था जिसे दुनिया से पहचान कराने में मुसलमानों की कोशिशें शामिल न रही हों। पश्चिम को भी इसका एहसास है इसलिए डॉक्टर लेन पूल लिखते हैं कि यूरोप ज़लालत व जेहालत के अंधेरों में खोया था तब उन्दुलुस पूरी दुनिया में इल्मो-फन और तहज़ीब व सक़ाफत का अलमबरदार था। रॉबर्ट ब्रीफाल्ट अपनी किताब 'तामीरे इंसानियत में लिखते हैं हैं कि यूरोप की तरक्की का कोई शोबा और गोशा ऐसा नहीं जिसमें इस्लामी तमद्दुन (संस्कृति) का दखल न हो। इस तमद्दुन के साइंसी तर्ज़े फिक्र ने यूरोप की ज़िंदगी पर बहुत विशाल और विभिन्न प्रकार से प्रभाव डाले हैं।

इसकी शुरूआत तब हुई जब इस्लामी तहज़ीब व तमद्दुन की पहली किरणें यूरोप पर पड़नी शुरू हुईं।'' नोबेल पुरस्कार विजेता पाकिस्तानी वैज्ञानिक मगहूम अब्दुल सलाम अपनी इजादात के लिए कुरान करीम से तहरीक हासिल करते थे। फ्रांसीसी सर्जन डा. मोरेस बोकाये जिन्होंने अपनी मशहूर रचना ''कुरान बाइबल और साइंस में वैज्ञानिक तथ्यों के बारे में दोनों शास्त्रों का तुलनात्मक विश्लेषण किया है। वो इस ऐतराफ पर मजबूर हुए कि कुरान एक इल्हामी किताब है और इसमें और साइंस में पूरी तरह समन्वय है। हम ये बता दें कि कुरानी इल्म को सीखने और समझने के लिए डॉक्टर बोकाये ने अरबी भाषा सीखी अरब देशों का दौरा किया और तफ़ासीर का अध्ययन किया। इस्लाम में इल्म हासिल करने का महत्व इससे भी जाहिर होता है कि कुरान हकीम की सभी 6666 आयात में जहां 250 आयतें शरई कानून से संबंधित हैं वहीं 756 आयात यानी कुरान का नवां हिस्सा मुसलमानों को बार बार मज़ाहिरे कुदरत पर गौर फिक्र की दावत देता है इसलिए कई स्थानों पर याक़ोलून,  यतज़क्करून, यतफक्करून और योकदब्बरून जैसे शब्द आए हैं जिनमें गौर फिक्र औऱ  तदब्बुर व तफक्कुर से काम लेने की हिदायत की गई है। इन हालात में मुसलमानों की दीनी व दुनियावी इल्म से बे-रग़्बती अफसोसनाक ही नहीं, इबरतनाक भी है और उनके हर तरह के पिछड़ेपन का सबसे बड़ा कारण है। राष्ट्रों के उत्थान व पतन में इल्म व जेहाल का फर्क है जिसकी जड़ें माहौलियाती और सामाजिक बिगाड़ से जा मिलती हैं। मुसलमानों के दीनी व तालीमी अदारे इल्म हासिल करने के लिए तालिबे इल्मों की ज़हेन साज़ी, साइंसी तर्ज़े फिक्र और उसका ज़ौक़ पैदा करने में नाकाम रहे हैं। यह दौर सख्त मुक़ाबले और इल्म पर आधारित समाज का है जो इल्म और मुकाबले की दौड़ में पीछे रह जाने वालों का इंतेज़ार नहीं करता, कुचल कर आगे निकल जाता है।

अगर मुसलमानों ने शिक्षा के क्षेत्र में अपनी क्षमताएं इस्तेमाल में नहीं लाईं तो पिछड़ापन हमेशा के लिए उनका मुक़द्दर बन जाएगा। उन्नीसवीं सदी में मुसलमान इससे भी अधिक बुरे हालात का शिकार थे। 1857 की पहली जंगे आज़ादी की नाकामी के बाद वो टूट चुके थे, उस वक्त उलेमा के एक समूह ने मुसलमानों की धार्मिक पहचान और दीनी सरमाये की हिफाज़त के लिए देवबंद में दारूल उलूम की नींव डाली तो दूसरी ओर विद्वानों के एक वर्ग ने जिसके प्रमुख सर सैय्यद थे धार्मिक पहचान बनाए रखते हुए राजनीतिक, प्रशासनिक और आर्थिक क्षेत्र में विकास और साझेदारी के लिए पश्चिमी शैली की शिक्षा को अपनाया, इस तरह अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के निमार्ण की आधारशिला पड़ी। दोनों अदारे दीनी व असरी तालीमके आज भी रास्ता दिखाने वाले अहम केन्द्र हैं लेकिन इसके लिए जिस आंदोलन, लगन और ध्यान की जरूरत है वो मौजूदा अकाबेरीन में नहीं है।

स्रोतः इंक़लाब, नई दिल्ली 

URL: https://newageislam.com/urdu-section/islam,-muslims-education-/d/6411

URL for this article: https://newageislam.com/hindi-section/islam,-muslims-education-/d/6806


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