जावेद आनंद
धर्म का पालन करने वाला कोई भी मुसलमान बिना बिस्मिल्ला हिर्रहमा निर्रहीम (शुरु आल्लाह के नाम से जो बड़ा रहम करने वाला और अत्यन्त दयालु है) के बिना कोई भी कार्य प्रारम्भ नहीं करता है। पैगम्बर मोहम्मद (सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम) के बारे में वो तुम्हें बतायेंगें कि अल्लाह ने उनको पूरे ब्रह्माण्ड के लिए दया का रूप बना कर भेजा है। आपको ये भी बताया जायेगा कि इस्लाम का अर्थ शांति है। अल्लाह, पैग़म्बर मोहम्मद (सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम) और इस्लाम सभी शांति, करुणा व दया के लिए है।
इसमें कोई शक नहीं है कि पाकिस्तान के पंजाब प्रांत के गवर्नर सलमान तासीर का हत्यारा मुमताज़ क़ादरी ख़ुद को एक पवित्र मुसलमान मानता होगा। इसमें कोई शक नहीं है कि बिस्मिल्ला हिर्रहमा निर्रहीम पढ़ने के बाद ही उसने जिस व्यक्ति को गोली मारी, आवश्यकता पड़ने पर उसके लिए अपनी जान जोखिम में डालकर उसकी रक्षा करने के लिए प्रशिक्षित किया गया था, और उसने रक्षा करने के लिए शपथ ली थी। इसमें भी कोई शक नहीं कि उसने अल्लाह के नाम पर हत्या की जो बड़ा रहम करने वाला और अत्यन्त दयालु है, और उस धर्म की रक्षा लिए हत्या की जिसका अर्थ शांति है, और पैगम्बर मोहम्मद (सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम) के सम्मान के लिए हत्या की जिन्हें अल्लाह ने पूरी मानवता के लिए दया का रूप बना कर भेजा है। शांति के लिए हत्या? मेरी समझ में ये बात नहीं आती ।
क्या उसकी निजी राय के बिना ऐसा सम्भव था। वास्तव में क़ादरी शैतान के बुरे असर का शिकार था। इस विचार को त्याग दें! पाकिस्तानी उलमा की दृष्टि में क़ादरी ग़ाज़ी बन गया है।(इस्लाम में ग़ाज़ी को एक शहीद के बराबर दर्जा प्राप्त है) यदि हमारे विचार इससे अलग हैं तो हम भी ईशनिंदा करने वाले, काफिर और वाजिबुल क़त्ल (हत्या के लिए उपयुक्त) हैं।
शांति बहाली के लिए हत्या न तो मेरे विचार हो सकते हैं और न आपके, लेकिन पाकिस्तानी उलमा इसे ही इस्लाम समझते हैं। जमात अहले सुन्नत के पांच सौ उलेमा का साझा बयान पढ़ें इसके अलावा इस संगठन ने सलमान तासीर के अंतिम संस्कार में शामिल होने वालों को मौत की धमकी दी थी। “पवित्र कुरान, सुन्नत और आम मुसलमानों की राय व उलेमा की व्य़ाख्या के अनुसार पैगम्बर मोहम्मद (सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम) की निंदा करने वाले की सज़ा केवल मौत है। इस बहादुर व्यक्ति (क़ादरी) ने 14 सौ बरसों की मुस्लिम परम्परा और पूरे विश्व के 1.5 अरब मुसलमानों के सिर को गर्व से ऊँचा बनाये रखा।“ नहीं मौत के मसीहा, मुझे इस गिनती से बाहर रखो।
एक पखवाड़े पूर्व यही बरेलवी समुदाय पाकिस्तान में शांति के लिए बहुत बड़ी आशा के रूप में देखा जा रहा था। ये देवबंदी, जमाते इस्लामी और अहले हदीस व अन्य सभी जो इस्लाम में असहिष्णुता, उग्रवाद और आतंकवाद को बढ़ावा दे रहे हैं, इनके विरुध्द एक जवाबी बल के रूप में उपयोग किये जाने का इंतेज़ार कर रहे थे। लेकिन एक ‘ग़ाज़ी’ के जानलेवा हमले ने पाकिस्तान के विभिन्न विचारधाराओं के लोगों को एक प्लेटफार्म पर खड़ा कर दिया है। इन लोगों के मध्य मतांतर चाहे जो भी हों, वो हिंसा के मामले में और अवमानना की आवाज से नफ़रत के मामले में एक हैं।
इस अभूतपूर्व अपवित्र गठबंधन का सेहरा (क्रेडिट) जमातुद दावा को जाता है, जो आतंकवादी संगठन लश्करे तैयबा का ही दूसरा नाम है, जो कई अन्य जघन्य कृत्यों के अलावा भारत में मुम्बई पर 26/11 हमले के लिए ज़िम्मेदार है। इस बात का प्रमाण इससे मिलता है कि लाहौर की रैली में (16-17 जनवरी) हज़ारों की संख्या में देवबंदी, बरेलवी और जमातुद दावा के सदस्यों ने तहरीक हुरमते रसूल के झण्डे तले इकट्ठा होकर हर उस व्यक्ति के लिए मौत की सज़ा का ऐलान कर रहे थे जो पाकिस्तान के पैगम्बर निंदा के विरुद्ध कानून में संशोधन की बात करता है।
हमारे पड़ोस में इस तरह का पागलपन हमारे लिए चिंता का विषय है। इससे भी ज़्यादा कष्टदायक बात ये है कि इस तरह के सारे संगठनों की जड़ें हिंदुस्तान में हैं। देवबंदी और बरेलवी अपने आपको देवबंद और बरेली से जोड़ते हैं, ये दोनों शहर उत्तरप्रदेश में हैं। अहले हदीस की बुनियाद भी हिंदस्तानी धरती पर ही पड़ी। मौलाना मौदूदी(अलै0 रह0) ने जमाते इस्लामी की आधारशिला अविभाजित हिंदुस्तान में रखी थी। अब ये संगठन देश के बंटवारे के समय से भी ज़्यादा मज़बूत हो गये हैं।
ऐसा क्यों है कि सलमान तासीर की अक्षम्य हत्या के विरुद्ध हो रहे उपद्रव पर इन संगठनों के किसी भी नेता ने कोई आवाज़ नही उठाई है। मुम्बई से मेरे एक उर्दू बोलने वाले दोस्त ने यही बताया कि उर्दू दैनिकों में भी इसके ख़िलाफ़ एक शब्द भी नहीं लिखा गया, केवल दैनिक सहाफ़त ने इस पर आवाज़ उठाई।
ये षड़यन्त्रकारी मौन हालांकि चौंकाने वाला है लेकिन इसमे आश्चर्य की कोई बात नहीं है। इन में से हर एक संगठन का कहना है कि इस्लामी शासन में ईशनिंदा और स्वधर्म त्याग की सज़ा मौत है, और जहां इस्लामी शासन नहीं है वहां पूरे समुदाय को इसका सामाजिक बहिष्कार करना चाहिए।
धर्मनिरपेक्ष हिंदुस्तान में कुछ वर्ष पूर्व रज़ा अकादमी (ये अधिक सहिष्णु संप्रदाय माना जाता है) ने तस्लीमा नसरीन को धमकी दी थी कि अगर उसने मुम्बई आने की हिम्मत की तो उसे ज़िंदा जला दिया जायेगा। 2008 में हैदराबाद के उर्दू प्रेस ने इत्तेहादुल मुस्लमीन के नेताओं और सदस्यों के विरुद्ध नफ़रत के ज़बर्दस्त बीज बोये, क्योंकि मौका मिलने के बावजूद भी ये लोग तस्लीमा को मारने में नाकाम रहे थे।
पूरे विश्व में इस्लामोफोबिया के फैलने पर मुसलमानों की क्या प्रतिक्रिया होनी चाहिए, जबकि सारे उलमा हत्या की मांग कर रहे हैं? पिछले हफ़्ते गूगल पर मौजूद एक ग्रुप पर एक मुस्लिम महिला ने लिखा कि “पढ़े लिखे मुसलमानों को उलमा के चंगुल से बाहर निकलना चाहिए “ एक मुस्लिम पुरुष ने लिखा कि’’अगर यही इस्लाम है, तो मुझे इससे बाहर रखें “।
तो यहां पढ़े लिखे मुसलमानों के पास विकल्प ये है कि या तो वे इस्लाम से पूरी तरह बाहर हो जाएं, या फिर किसी नये इस्लाम की तलाश करें, लेकिन नये इस्लाम की तलाश के लिए दक्षिण अफ़्रीका के फ़रीद इस्हाक़ जैसे इस्लामी विद्वान की संवेदनशीलता की ज़रूरत होगी, जिनकी सात्विक और नैतिक ईमानदारी उनके बयान से स्पष्ट है। “यदि दो विकल्प हों, एक ये कि पवित्र धार्मिक पुस्तकों के विरुद्ध हिंसा करूँ या फिर किसी व्यक्ति के खिलाफ़ हिंसा को सही साबित करने के लिए धार्मिक पुस्तकों का गलत प्रयोग करूँ, तो मैं धार्मिक पुस्तकों के विरुद्ध हिंसा को प्राथमिकता दूँगा । क्या धर्मशास्त्र अनिवार्य रूप से ईश्वर के बारे में नहीं है? हां है, लेकिन मेरा धर्मशास्त्र उस परमेश्वर के बारे में है जो न्याय करने वाला और दयालु है।“ मानो हमारे सम्मानित उलमा के ख़िलाफ़ फतवा का समय आ गया है।
लेखक, मुस्लिम फार सेकुलर डेमोक्रेसी के महासचिव हैं
(अंग्रेज़ी से हिंदी अनुवाद- समीउर रहमान, न्यु एज इस्लाम डाट काम)
स्रोत- इण्डियन एक्सप्रेस
URL for English artucle: http://www.newageislam.com/war-on-terror/how-to-murder-for-peace-/d/3979
URL: https://newageislam.com/hindi-section/how-murder-peace-/d/5193