हुसैन अमीर फ़रहाद
फरवरी, 2013
(उर्दू से अनुवाद- समीउर रहमान, न्यु एज इस्लाम)
फ़रहाद साहब अल्लाह शाहिद है कि दिल नहीं चाहता कि कुछ मामलों के बारे में आपसे या किसी से पूछूँ लेकिन अपने आपको इसलिए राग़िब (आकर्षित) कर लेता हूँ कि न सिर्फ मेरी खलिश दूर होगी बल्कि मेरी तरह और लोगों को भी इत्मिनान होगा कि असल मामला क्या है। आज एक क़रीबी दोस्त आया कहा एक दिन मैंने आपकी मेज़ पर बुखारी शरीफ देखी थी ज़रा दिखाना एक हदीस शरीफ देखनी है। वो तो हदीस देखकर और हवाला (संदर्भ) लिख कर चले गए मैं यूँ बिना इरादे के पन्ने पलटने लगा तो एक हदीस सामने आई। इस पर एख नज़र डालिए:
हज़रत अनस बिन मालिक रज़ियल्लाहू अन्हू से मरवी है कि हम हुज़ूर सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम की बेटी (उम्मे कुलसूम रज़ियल्लाहु अन्हु) के जनाज़े में हाज़िर थे, वो हज़रत उस्मान रज़ियल्लाहू अन्हू की बीवी थीं। (9 हिजरी में इंतेक़ाल हुआ) आप सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम कब्र पर बैठे हुए थे, मैंने देखा आपकी आंखों में आंसू भर आए थे। आपने कहा, लोगों कोई तुम में से ऐसा भी है जो आज रात को औरत के पास न गया हो? अबु तलहा ने कहा मैं हाज़िर हूँ, आपने कहा कि फिर उतरो इनकी कब्र में। और वो उनकी कब्र में उतरे। (बुखारी, जिल्द एक, हदीस 1209, पेज 576)
मैं आपसे ये पूछना चाहता हूँ कि जो दुनिया के लिए रहमत बन कर तशरीफ़ लाये थे (वमा अरसलनाका इल्ला रहमतुल लिलआलमीन) वो कोई मामूली हस्ती नहीं थे उनकी बेटी, जिगर का टुकड़ा वफात (मृत्यु) पा गयी थी, ये भी कोई मामूली हादसा था, हमारा तो अगर कोई पड़ोसी भी मर जाए तो हम उससे प्रभावित रहते हैं, बीवी की तरफ बढ़ना तो दूर की बात है हम तो टीवी भी नहीं लगाते, ये कैसे सहाबी थे कि नागा न करते थे। यहां तक कि हुज़ूर सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम को पूछना पड़ा 'लोगो कोई तुम में से ऐसा भी है जो आज रात को औरत के पास न गया हो?'' यानी हुजूर सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम को भी यक़ीन न था कि कोई इच्छित व्यक्ति मिलेगा या नहीं। लेकिन अलहमदोलिल्लाह अबु तलहा मिल गए। फ़रहाद साहब अगर जवाब हो तो ठीक है वरना कम से कम मैंने आपको भी इस दुख दर्द में शामिल कर लिया जो मुझे इस हदीस से पहुंचा था। आप बेशक बुखारी शरीफ में तस्दीक़ (पुष्टि) कर लीजिए।
सोहेल अहमद बाजोह, नज़दीक इमाम बारगाह कोट अब्दुल मालिक
बेशक, बाजोह साहब मैंने तस्दीक कर ली है, हवाला सही है। (बुखारी, जिल्द एक, अध्याय 816, हदीस 1209, पेज 576)
हक़ीक़त ये है कि इस बरकत वाले दीन के दुश्मन शुरू से ही बहुत थे। मगर नबी सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम की ज़िंदगी में उनमें इतनी हिम्मत नहीं थी कि इन पाक हस्तियों का चरित्र हनन करते उनकी हमेशा से ये कोशिश रही है कि ये दीन पनपने न पाए। इसी सिलसिले में हुज़ूर सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम को मार डालने की कोशिश भी की है लेकिन कामयाबी नहीं मिली तब दीन के उन दुश्मनों ने सोचा कि क्या किया जाए? तय ये पाया कि दीन को गारत इस तरह किया जा सकता है कि दीन के बानी (संस्थापक) के चरित्र को बिगाड़ा जाये। लेकिन उनके किरदार की तो अल्लाह तारीफ फरमाता है। वइन्नका लअला खोलोक़िन अज़ीम (68- 4) बिलाशुबहा (निस्संदेह) आप एख़्लाक की आला बुलंदियों पर फायज़ हैं।
ज़रा गौर करें ऐसा शख्स जिसने हुस्ने यूसुफ रखते हुए भरपूर जवानी के आलम में मर्दाना हुस्न और जमाल और शौकते जिस्मानी के बावजूद अरब के गर्म मौसम में रह कर एक ज़्यादा उम्र वाली बेवा (विधवा) के साथ निकाह किया और उम्र गुज़ारी। जो सारी ज़िंदगी यतीमों और बेवाओं को सहारा देते रहे, यहूदी, मजूसी और ईसाई के अलावा मक्का के क़ुरैश भी उनकी किरदार के खिलाफ कोई उंगली न उठा सके। ये मोर्चा सख्त था, कोशिश की थी आप सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम की ज़िंदगी के बाद जूनिया (उम्मिया बिन्ते शराहील) का किस्सा मगर उस तरफ से कोई वार कारगर साबित नहीं हुआ। तब ये सलाह तय हुई कि बानिए (संस्थापक) दीन के कथन को बिगाड़ दिया जाए तो संस्थापक और दीन खुद ही बिगड़ जाएगा। ये थी उनकी योजना, यहां रब के सामने किसका मंसूबा (योजना) कामयाब हो सकता है। फरमाया है- वमकरू मकरा वमकरना मकरन वहुम लायशओरून (27- 50) शोएब अलैहिस्सलाम को उनके घर में मार डालने का एक मंसूबा उन्होंने बनाया और एक मंसूबा (इन्हें बचाने का) मैंने बनाया जो उन्हें महसूस तक न हुआ। दूसरी जगह अल्लाह ताला फ़रमाते हैं- वमाकरू वमाकरल्लाहो वल्लाहों खैरुल माकेरीन (3- 54) हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम के क़त्ल का एक मंसूबा उन्होंने बनाया और उसे बचाने का एक मसूंबा मैंने बनाया, भला मुझसे बेहतर मंसूबा किसका हो सकता है। भला ऐसा मसूंबा बन्दए रब जल्ले जलालहू हुज़ूर सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम को कैसे अकेले छोड़ देता?
इन मजूसियों ने अल्लाह के दीन को दफन करना चाहा, और चिरागे मुस्तफवी सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम को अपनी फूँकों से बुझाना चाहा, ये उनका मंसूबा था। रब का मसूंबा कुछ और था, आइए एक नज़र डालते हैं। योरीदूनी ऐं युत्फेऊ नूरल्लाहे बे-अफ्वाएहिम वयाबल्लाहों इल्ला ऐं योतिम्मा नरहू वलौ करेहल काफेरून(9- 32) ये लोग चाहते हैं कि अल्लाह के नूरानी चिराग़ (क़ुरान) को ये अपनी फूँकों से बुझा दें मगर अल्लाह अपनी रौशनी को मोकम्मल किए बगैर रहने वाला नहीं है, ख्वाह (चाहे) काफिरों को ये कितना ही नागवार (बुरा) क्यों न हो। इसके बाद की आयत पर एक नज़र डालिए।
होवल्लज़ी अर्सला रसूलुहू बिलहुदा वदीनिल हक़्क़े लेयुज़हेराहो अलद्दीने कुल्लेहि वलौ करेहल मुशरेकून (9- 33) वो अल्लाह ही है जिसने अपने रसूल को हिदायत और दीने हक़ के साथ भेजा है ताकि उसे सभी दीनों (धर्मों) पर ग़ालिब कर दे, चाहे मुशरिकों को ये कितना ही नागवार क्यों न गुज़रे। मगर ग़ज़ब ये हुआ कि दुश्मन भेस बदल कर हमारी सफों में घुस आए और हम में से कुछ सरल लोगों को अपने साथ मिला लिया और क़ुरान उनके हाथों से छीन कर उन्हें अपनी किताबें पकड़ा दीं। बिल्कुल उस तरह जिस तरह पेड़ ने रोकर कहा कि लकड़हारे की कहाँ ताक़त थी कि मुझे काटने की, अफ़सोस कि कुल्हाड़े में दस्ता मेरे ही पेड़ का था। दीन को भरपाई न किये जा सकने वाला नुकसान अपनों से पहुंचा।
बज़ाहिर तो ये हदीस बड़ी बेज़रर (नुकसान न पहुँचाने वाली) हदीस नज़र आती है, लेकिन ग़ौर किया जाए तो बहुत कुछ कह गए। सहाबा इकराम रज़ियल्लाहू अन्हू क्या उस क़बीले के लोग थे कि वो कोई रात खाली नहीं जाने देते थे। मगर इस हदीस से ये साबित करने के कोशिश की गई है कि सहाबा इसी क़िस्म के लोग थे। कि सरकारे दो आलम सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम की बेटी के जनाज़े जैसे अहम काम के लिए भी नापाक चले गये। यहां तक कि हुज़ूर सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम को पूछना पड़ा कि है कोई? ..... अगर कोई बीवी के पास गया भी तो पानी हर तरह की निजासत को पाक देती है फिर क्या कबाहत थी कि हुज़ूर सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम को पूछना पड़ा? अगर उनका किरदार इस क़िस्म का था तो हम उनसे बेहतर हुए। कि हम पड़ोसी के जनाज़े में पाक साफ जाते हैं यहां तक कि वज़ू करके जाते हैं। अगर हम उनसे बेहतर होते तो अल्लाह हमें उस बाबरकत दौर में पैदा करता। हक़ीक़त ये है कि वो हमसे बेहतर थे अल्लाह उनकी शहादत (गवाही) देते हैं। वस्साबेकूनल अव्वलूना मेनल मोहाजेरीना वल-अंसारे वल्लज़ीना उत्तबाऊहुम बेएहसाने रज़ियल्लाहू अन्हुम वरादू अनेहो वअद्दा लहुम जन्नाते तजरी तहतहल अन्हारों खालेदीना फीहा अबदन ज़ालेकल फौज़ुल अज़ीम (9- 100) जिन लोगों ने सबक़त (बढ़त) की मोहाजिरीन (आप्रवासियों) और अंसार में से भी और जिन्होंने नेकोकारी के साथ उनकी पैरवी की अल्लाह उनसे राज़ी है और वो अल्लाह से और उनके लिए बागात हैं जन्नत के। जिसके नीचे नहरें बहती हैं। जिससे रब राज़ी हुआ उसे और क्या चाहिए। लेकिन वो ऐसे नहीं होते जिनकी तस्वीर हदीसों की किताबें पेश करती हैं। और अल्लाह के रसूल फरमाते हैं। सहाबी कुलनजूम। मेरे असहाब मिस्ले नजूम 'आसमान के चमकते सितारे' हैं अब अगर कोई उनके किरदार पर कीचड़ उछाले तो वो गंदगी खाता है, जहन्नम में अपना ठिकाना बनाता है, चाहे उसका नाम मुसलमानों जैसा हो या ईसाइयों और यहूदियों की तरह, चाहे वो मक्का मदीना का रहने वाला हो या कहीं और का।
हक़ीक़त ये है कि ये सब अजमी मजूसी अफसाने हैं सहाबा इकराम हमसे लाख दर्जे बेहतर थे, हम भला कहाँ उन तक पहुँच सकते हैं। उन्हें तो रब ने दुनिया में जन्नत की बशारत दी थी। नबी सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम के सहाबा के बारे मैं रब फरमाते हैं। रज़ियल्लाहो अन्हुम वरदू अन्हो वओ अद्दा लहुम जन्नातिन तजरी तहतोहल अन्हारो खालेदीना फीहा अब्दा ज़ालेकल फौज़ुल अज़ीम (9- 100) अल्लाह उनसे राज़ी है और वो अल्लाह से और उनके लिए बागात हैं जन्नत के । जिसके नीचे नहरें बहती हैं। वो ऐसे नहीं होते कि हुज़ूर सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम की बेटी के जनाज़े में नापाक चले आते।
बाजोह साहब! आप हों या आपके दोस्त अहबाब या सौतुल हक़ के दूसरे पाठक लोग हों। हदीस की परख के लिए ये सही है या ग़लत मैंने एक कसौटी का चुनाव किया है इससे आप साहेबान भी काम ले, वो ये कि हर वो हदीस जो किसी भी पैग़म्बर की शान के खिलाफ हो, स्वाभाविक क़ानून के खिलाफ हो, हुज़ूर सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम की बीवियों के खिलाफ हो या सहाबा इकराम रज़ियल्लाहू अन्हुम की शान के खिलाफ हो, स्वाभाविक क़ानून के खिलाफ हो, तो ये सब क़ुरान पाक के इरशादात के खिलाफ है। इसलिए क़ुरान के खिलाफ बात चाहे कोई कहे वो सही नहीं है गलत है, हर मुसलमान उसको न माने। जब हुज़ूर सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम का इरशाद है कि मैं भी इंसान हूँ मेरी बात गलत भी हो सकती है। एक नज़र डालिए- हदीसे मुस्लिम।
हुज़ूर सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम का वाज़ेह इरशाद है। हज़रत राफ़े रज़ियल्लाहू अन्हू बिन खदीज फरमाते हैं कि नबी सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम मदीना तशरीफ़ लाये तो हम खजूर की पेवंदकारी (प्रत्यारोपण) कर रहे थे, कहा अगर तुम ऐसा न करो तो शायद बेहतर हो। इसलिए लोगों ने उसे छोड़ दिया लेकिन उत्पादन में कमी हो गई। तो लोगों ने आप सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम से ज़िक्र किया, तो आप सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम ने फरमाया कि मैं बंदा बशर हूँ अगर मैं तुम्हारे दीन के बारे में कोई बात बतलाऊँ तो उसे लाज़िम पकड़ो और अगर अपनी राय से कोई बात कहूँ तो याद रखो, मैं एक बशर ही हूँ जिसकी राय सही भी हो सकती है और गलत भी। (मुस्लिम, जिल्द तीन, अध्याय नंबर 296, हदीस संख्या 1598, पेज 599)
बाजोह साहब! सरकारे दो आलम के इरशाद पर एक नज़र डालिए, ईमान होना चाहिए माअनज़लल्लाहो पर, इंसानों की लिखी किताबों पर नहीं। और अल्लाह के सामने उनकी शिकायत भी ये है। या रब्बे इन्ना क़ौमित्तख़ज़ू हाज़ल क़ुराआना महज़ूला। आयत का तर्जुमा ये है कि हुज़ूर सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम कहेंगे कि ऐ मेरे रब मेरी कौम ने क़ुरान को महजूर बनाया। महजूर का आम तौर पर तर्जुमा कर दिया जाता है कि क़ुरान को छोड़ रखा था लेकिन महजूर उस जानवर को कहते हैं जिसका सींग रस्सी से बांध कर उसके खुर में से रस्सी गुजारी जाए, इस तरह वो सिर झुका कर घास तो चर सकता है लेकिन आज़ादी से हरकत नहीं कर सकता। इस तरह हुजूर सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम की शिकायत ये होगी कि ये मेरी कौम है जिसने क़ुरान को अपने अपने मफाद (हितों) की रस्सियों से जकड़ रखा था। आप सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम ये शिकायत नहीं करेंगे कि ऐ मेरे रब मेरी कौम ने बुखारी को छोड़ रखा था, मुस्लिम को हाथ नहीं लगाते थे, तिर्मिज़ी को दूर कर दिया था, अबु दाऊद से बेएतेनाई बरतते थे। नहीं आपकी शिकायत ये होगी कि उन्होंने क़ुरान को महजूर कर रखा था।
फरवरी, 2013, स्रोतः माहनामा सौतुल हक़, कराची
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