हिफ़्ज़ुर्रहमान कास्मी
26 अगस्त, 2012
(उर्दू से अनुवाद- समीउर रहमान, न्यु एज इस्लाम)
द्वितीय विश्व युद्ध के अनुभव और परिणाम से प्रभावित होकर संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 10 दिसंबर 1948 को विश्व स्तर पर मानवाधिकारों (Human Rights) के सुरक्षा के संबंध में एक विधेयक पास किया जिसको Universal Declaration of Human Rights नाम दिया गया। इस प्रस्ताव में सभी इंसानों के जन्मजात अधिकारों को सुनिश्चित करने के लिए जो प्रावधान पेश किए गए हैं वो मुख्य रूप से तीन विचारों पर आधारित हैं: (1) मानवता (2) व्यक्ति का सम्मान (3) लोकतांत्रिक मूल्यों पर आधारित सामाजिक व्यवस्था।
इस प्रस्ताव के बाद पूरी दुनिया और खासकर पश्चिमी देशों में Human Rights (ह्युमन राइट्स) का शब्द इतना आम हुआ कि सभी राजनीतिक और सामाजिक संगठनों के नारों के लिए ये उसका ज़रूरी हिस्सा बन गया। यहां तक कि मानवाधिकार की पूरी कल्पना को ही सेकुलर और गैर धार्मिक संदर्भ में देखा जाने लगा है। कई मुस्लिम देशों सहित पूर्वी और पश्चिमी देशों में भी मानवाधिकार के अलमबरदार ये समझते और कहते हैं कि मानवाधिकार की कल्पना केवल धर्मनिरपेक्ष माहौल और गैर धार्मिक संदर्भ में ही ज़िंदा रह सकती है, धार्मिक फ्रेमवर्क में इसके लिए कोई जगह नहीं है। यही वजह है कि पाकिस्तान और बांग्लादेश जैसे मुस्लिम देशों में भी कई धर्मनिरपेक्ष मानसिकता वाले लोग मानवाधिकार का समर्थन करने वाली टिप्पणियाँ करते हुए सुने जाते हैं, मानवाधिकार और इस्लाम जैसे मुद्दों पर बात करना निरर्थक है, क्योंकि धार्मिक रूप से इस्लाम ने हमेशा ऐसे मूल्यों और परंपराओं को बढ़ावा दिया है जो 'मानवाधिकार के वैश्विक प्रस्ताव’ के मूल विचारों से समायोजित नहीं हैं, लेकिन जो लोग मानवाधिकार के उपरोक्त प्रस्ताव को मानवाधिकार और समानता का सबसे उच्च और आदर्श घोषणापत्र समझते हैं और मानवाधिकारों के सिद्धान्त और इस्लामी शिक्षाओं के बीच मतभेद मानते हैं, उनके लिए आवश्यक है कि एक बार फिर इन सिद्धांतो और इंसानियत के सम्बंध में कुरान की शिक्षाओं का निष्पक्ष दृष्टिकोण से तुलनात्मक अध्ययन करें।
जब हम 'मानवाधिकार और इस्लाम’ या ‘मानव अधिकार और कुरान’ के विषय पर बात करते हैं तो वास्तव में हमारा मतलब ये होता है कि इन मानवाधिकारों को अल्लाह ने प्रदान किया है, किसी राजा या कानून बनाने का अधिकार रखने वाली सभा के द्वारा प्रदान नहीं किया गया है। जो अधिकार किसी राजा या विधान सभा की तरफ से प्रदान किए जाते हैं, वो कभी रद्द भी हो सकते हैं। इसी तरह जब किसी समय कोई तानाशाह जब सुखद मूड में होता है तो जनता के लिए कई अधिकारों की घोषणा कर देता है, लेकिन जब वो इन सुखद भावनाओं के घेरे से निकलकर नकारात्मक भावनाओं का शिकार होता है तो एस साथ सभी अधिकार छीन लेता है, लेकिन इस्लाम और कुरान ने इंसान को जो अधिकार दिए हैं वो वास्तव में अल्लाह की तरफ से दिये गये हैं, इसलिए दुनिया की किसी भी सरकार, विधायिका और न्यायपालिका को इन अधिकारों में संशोधन या रद्द करने का कोई अधिकार नहीं है। इसके अलावा ये कि इस्लाम में प्रदान किये गये प्राथमिक मानवाधिकार न तो सिर्फ दिखावे के लिए हैं जो दिखावे के बाद व्यावहारिक जीवन में निरर्थक हो जाते हैं और न ही दार्शनिक विचारों पर आधारित हैं, जो व्यवहारिकता से खाली होते हैं।
संयुक्त राष्ट्र की ओर से जारी मानवाधिकारों के चार्टर और अल्लाह की तरफ से प्रदान किये गये मानवाधिकार के कुरानी घोषणापत्र के बीच दूसरा अंतर ये है कि जिसका ज़िक्र पहले किया गया वो किसी भी इंसान को पालन की राह नहीं दिखाता जबकि जिसका विवरण बाद में दिया गया वो, मुसलमानों को इसके पालन पर मजबूर करता है। कुरान के द्वारा पेश मानवाधिकारों के सिद्धान्त इस्लाम धर्म का मूल हिस्सा हैं। प्रत्येक मुद्दई इस्लाम के लिए चाहे वो हाकिम हो या शासित इन उसूलों पर अमल और इनका लिहाज़ रखना ज़रूरी है। जो मुसलमान इन अधिकारों से इन्कार करता है या इसमें संशोधन करता या व्यवहारिक रूप से इनका उल्लंघन करता है तो उसके लिए कुरान का फैसला है। “जो लोग अल्लाह के द्वारा उतारी गयी किताब के मुताबिक फैसला नहीं करते, वो काफ़िर हैं। (सूरे मायदा: 44)
कुरान इंसानी ज़िंदगी को इतनी प्रतिष्ठा प्रदान की है कि वो एक व्यक्ति के जीवन को पूरे समाज के बराबर समझता है। इसलिए कुरान के अनुसार ये आवश्यक है कि हर व्यक्ति के साथ मोहब्बत और प्यार और बहुत देखभाल वाला व्यवहार किया जाए। अब नीचे मिसाल के लिए कुछ बुनियादी शीर्षकों के तहत इन अधिकारों की व्याख्या की जाती है जो कुरान ने इंसानों को प्रदान किए हैं।
(1) जान और माल की सुरक्षा का अधिकारः हज्जतुल विदा के मौके पर संबोधित कहते हुए नबी करीम सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम ने इरशाद फ़रमाया 'तुम्हारी जान और माल एक दूसरे के लिए हराम है यहां तक कि क़यामत के दिन तुम अपने रब से मिलो'। याद रहे कि ये बात सिर्फ मुसलमानों के संबंध में नहीं है बल्कि गैर मुसलमानों के लिए भी है जो इस्लामी राज्य में रहते हैं, उनके बारे में भी अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम ने इरशाद फ़रमाया कि'' जो व्यक्ति एक ज़मी का कत्ल करता है वो जन्नत की खुश्बू भी नहीं पाएगा।
(2) आत्मसम्मान की रक्षा का अधिकारः आज जो लोग संयुक्त राष्ट्र के घोषणा पत्र के तहत मानवाधिकार का नारा लगाते हैं उनकी निगाह केवल इंसान की ज़िंदगी पर केंद्रित है। इससे आगे की बात नहीं करते जबकि कुरान ने आज से चौदह सौ साल पहले मानव जीवन के साथ उसके आत्मसम्मान को कितना महत्व दिया है इसका अंदाज़ा कुरान के इन फरमानों से होता है। इरशाद है: (1) ऐ ईमान वालो! कोई राष्ट्र किसी दूसरे राष्ट्र का मजाक नहीं उड़ाए। (2) एक दूसरे को बदनाम न करे। (3) गलत नाम लगाकर किसी का अपमान न करे। (4) एक दूसरे की बुराई न करे।
(3) निजता की सुरक्षा का अधिकारः कुरान मानव की निजता (Privacy) को उसका बुनियादी और जन्मजात अधिकार स्वीकार करता है और उसकी सुरक्षा के लिए नियम परिभाषित करता है। (1) एक दूसरे की टोह में न पड़ो। (2) किसी के घर में दाखिल न हो जाओ, अलावा इसके कि परिवार से इजाज़त मिल जाये।
(4) अत्याचार के विरोध का अधिकारः इस्लाम इंसानों को ये अधिकार देता है कि वो सत्तारूढ़ वर्ग के अत्याचार और भ्रष्टाचार के खिलाफ विरोध के लिए आवाज़ उठाये। कुरान का इरशाद हैः अल्लाह इस बात को पसंद नहीं करता कि कोई किसी का खुले तौर पर बुरा कहे, सिवाय इसके कि वह पीड़ित लोगों में से हो।
इस्लामी दृष्टिकोण से हर तरह की शक्ति और सत्ता विशुद्ध रूप से अल्लाह का अधिकार है। इंसान इस शक्ति और सत्ता का सिर्फ मोतावल्ली (ट्रस्टी) और समाज में व्यवस्था पैदा करने के लिए इस शक्ति के इस्तेमाल का अधिकार रखता है। इसलिए जिस व्यक्ति के हाथ में सत्ता आती है वो अपनी जनता के सामने जवाबदेह हो जाता है और जनता उससे पूछ ताछ कर सकने का अधिकार रखती है। हज़रत अबु बकर सिद्दीक़ रज़ियल्लाहू अन्हू ने इस बात को ध्यान में रखते हुए खलीफा बनने के बाद अपने पहले आम भाषण में कहा थाः यदि किसी मामले में मेरा दृष्टिकोण सही हो मेरा सहयोग करें और अगर गलत हो तो मुझे सुधार दें, मेरी उसी वक्त तक माने जब तक कि मैं अल्लाह और उसके प्यारे नबी सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम के आदेश का पालन करता रहूँ और मैं अगर सीधे रास्ते से हट जाऊँ तो मुझसे अलग हो जाओ।
(5) न्याय का अधिकारः कुरान ने सभी को न्याय का अधिकार दिया है। इसलिए न्याय हासिल करने के अधिकार और न्याय करने के बारे में अल्लाह ने ज़ोर देकर, इरशाद फ़रमाया है। न्याय के संदर्भ में कुरान आमतौर पर दो शब्दों का उपयोग करता है, न्याय और एहसान। इन दोनों ही शब्दों द्वारा न्याय के स्थापना की शिक्षा दी गई है और दोनों के दोनों दृष्टिकोण संतुलन की सलाह देते हैं, लेकिन अर्थ की दृष्टि से दोनों में कुछ अंतर है। एहसान आम है जबकि न्याय व्यक्ति के गुणों के स्वीकार करने से सम्बंधित है। कुरान की शिक्षा ये है कि खूबी का निर्धारण पारिवारिक हैसियत, लिंग, धन और दुनियावी कामयाबी से नहीं होता बल्कि खूबी का मानक तक़वा है जो ईमान और नेक अमल दोनों का संग्रह है।
(6) अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकारः इस्लामी राज्य में रहने वाले सभी इंसानों को इस्लाम विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता प्रदान करता है, बशर्ते इस अधिकार का उपयोग सच्चाई और अच्छाई को बढ़ावा देने के लिए हो, इसका उद्देश्य बुराई को बढ़ावा देना और फित्ना पैदा करना न हो। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की कल्पना जो इस्लाम में मौजूद है वो पश्चिमी कल्पनाओं से बहुत उच्च और बेहतर है। इस्लाम किसी भी हालत में बुराई और फित्ना को बढ़ावा देने के लिए इस अधिकार के प्रयोग की इजाज़त नहीं देता। इस्लाम क्योंकि हर समस्या में उदारता और संतुलन को पसंद करता है, इसलिए ये आलोचना के नाम पर किसी भी व्यक्ति को गंदी और अनैतिक भाषा के इस्तेमाल की अनुमति नहीं देता। नबी करीम सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम के ज़माने में सहाबा रज़ियल्लाहू अन्हू का तरीका था कि वो किसी भी बात के लिए नबी करीम सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम से पूछते थे कि इस मामले में अल्लाह का कोई फरमान नाज़िल हुआ या नहीं। यदि नबी करीम सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम का जवाब नकारात्मक होता तो सहाबा रज़ियल्लाहू अन्हू इस विशेष समस्या में तुरंत अपनी राय को स्पष्ट कर दिया करते थे।
मुख्य रूप से इस्लाम में अभिव्यक्ति की आज़ादी के अधिकार का मतलब सच बोलने का हक है और सच्चाई के लिए कुरान का शब्द 'हक़' है जो अल्लाह का विशेष गुण है और सच बोलने की आज़ादी न सिर्फ ये कि हर इंसान का अधिकार है बल्कि मुसलमानों की जिम्मेदारी है कि हर हाल में सच बोलें चाहे अत्याचारी शासक के सामने बोलना पड़े। कुरान मुसलमानों को हक़ के लिए साबित कदम रहने का आदेश देता है और समाज को इस बात से रोकता है कि किसी भी व्यक्ति को सच बोलने के इल्ज़ाम में तकलीफ न दें।
(7) विश्वास और धर्म की आज़ादी का अधिकारः कुरान ने एक आम सिद्धांत बयान किया है, “दीन में जब्र (ज़बरदस्ती) नहीं है।“ इसकी वजह ये है कि कुरान इस तथ्य से भली भाँति परिचित है कि विश्वास का संबंध दिल से और दिल पर किसी तरह का जब्र काम नहीं करता है। इसके विपरीत सर्वसत्तावादी समाजों (Totalitarian Societies) में व्यक्ति की हर तरह की स्वतंत्रता को छीन लिया जाता है और मानवता को एक नई तरह की गुलामी के शिकंजे में जकड़ दिया जाता है। किसी समय में गुलामी का मतलब एक व्यक्ति का दूसरे व्यक्ति पर पूरी तरह अधिकार से था। अब इस प्रकार की गुलामी कानूनी तौर पर रद्द करार दे दी गई है, लेकिन इसकी जगह पर तानाशाही ने इंसानों पर एक नई गुलामी थोप दी है।
(8) धार्मिक भावनाओं की सुरक्षा का अधिकारः आस्था और ज़मीर (अंतःमन) की आज़ादी के अलावा इस्लाम ने इंसानों की धार्मिक भावनाओं की भी कद्र की है। इसलिए कुरान मुसलमानों को ऐसी बातें कहने से मना करता है जिससे दूसरे धर्मों के मानने वालों की भावनाएं आहत हों। कुरान की कई आयतें इस बात को स्पष्ट करती हैं कि नबी करीम सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम की जिम्मेदारी सिर्फ पैगामे हक़ पहुंचाना था किसी को ईमान पर मजबूर करना नहीं था। इसलिए कुरान ने हर उस व्यवहार पर प्रतिबंध लगा दिया जो किसी भी गैर मुस्लिम को इस्लाम स्वीकार करने पर मजबूर करे। ऐसा संभव था कि कोई गैर मुस्लिम इस्लामी राज्य में रहता हो तो उसकी भावनाओं को आहत किया जाए ताकि वो मजबूर होकर इस्लाम को स्वीकर कर ले, लेकिन कुरान ने इन सभी ख़ुराफ़ातों की जड़ें ही काट डाली। खुदा का इरशाद हैः उन लोगों को गाली मत दो जो अल्लाह के अलावा दूसरे खुदा को पुकारते हैं।
(9) आत्म स्वतंत्रता का अधिकारः मानव जन्मजात रूप से स्वतंत्र है और आज़ादी उसका प्राकृतिक अधिकार है। मनुष्य के इस अधिकार की सबसे बड़ी गारंटी इस्लाम में ये है कि सिवाय अल्लाह के इस स्वतंत्रता को कोई भी व्यक्ति सीमित नहीं कर सकता और ये नज़रिया कुरान की इस आयत से लिया गया है जिसमें अल्लाह का इरशाद है कि मारूफ और मुन्किर का फैसला करने का अधिकार केवल अल्लाह को है। इसलिए न तो इस्लामी राज्य की न्यायपालिका और न ही विधायिका किसी भी नागरिक को बेजा ताबेदारी पर मजबूर कर सकती है। यही वजह थी कि सार्वजनिक मामलों में कुरान ने नबी करीम सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम को जनता से मश्विरा करने का हुक्म दिया।
(10) शिक्षा का अधिकारः शिक्षा मानव के विकास के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। यही वजह है कि आज सभी देश शिक्षा को नागरिकों के मौलिक अधिकारों में से मान रहे हैं, लेकिन कुरान ने अपने अवतरण की शुरुआत से ही शिक्षा हासिल करने पर जोर दिया है। इसलिए सबसे पहली आयत अपने सम्बोधित लोगो को शिक्षा हासिल करने की हिदायत देती है। कुरान के अनुसार शिक्षा ही वो तत्व है जो एक नेक, शांतिपूर्ण समाज का गठन कर सकता है। इसलिए कुरान इंसान को संबोधित करता है, कि तालीम हासिल करो, क्योंकि जानने वाले और न जानने वाले बराबर नहीं हो सकते।
ये कुछ बातें थीं जो मिसाल के तौर पर पेश की गयीं। तथ्य ये है कि कुरान ने खुले शब्दों में मनुष्य को वो सभी अधिकार दिए हैं जो उसे इंसान के रूप में मिलने चाहिए। इसके बावजूद अगर कोई इंसान पश्चिमी दृष्टि से कुरान पढ़े तो उसे वास्तव में कुरान पर आपत्ति होगी, लेकिन इससे कुरान की अहमियत कम नहीं होगी, इसलिए कि चमगादड़ को अगर दिन में कुछ नज़र न आए तो इसमें सूरज की किरणों का कोई गिनाह नहीं है।
26 अगस्त, 2012 सधन्यवाद: सहाफत, नई दिल्ली
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