हिलाल अहमद
बीबीसी हिन्दी
21 नवंबर, 2014
दिल्ली की जामा मस्जिद के शाही इमाम अहमद बुख़ारी की तरफ़ से अपने बेटे को नायब इमाम घोषित करने का मुद्दा लगातार सुर्ख़ियों में है.
पहला विवाद इसी बात को लेकर रहा कि इसमें शामिल होने के लिए पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ को बुलाया गया है लेकिन भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को नहीं.
दूसरा, शनिवार को होने जा रही इस दस्तारबंदी को रुकवाने के लिए कई लोगों ने दिल्ली हाई कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाया है.
वैसे, यह पहला मौक़ा नहीं है जब इमाम बुख़ारी राजनीतिक कारणों से विवाद में हों.
अहमद बुख़ारी ही नहीं, उनके पिता अब्दुल्लाह बुख़ारी भी राजनीतिक कारणों से चर्चाओं में रहे.
क्या अहमद बुख़ारी लोकप्रिय पूर्वाग्रहों को मज़बूत करते हुए, अपने सियासी वजूद की खोज करते नज़र आ रहे हैं?
हिलाल अहमद का लेख विस्तार से
दिल्ली की जामा मस्जिद के शाही इमाम अहमद बुख़ारी की घोषणा के मुताबिक 22 नवंबर को उनके सबसे छोटे पुत्र 19 साला शाबान बुख़ारी की दस्तारबंदी की रस्म अदा की जाएगी.
बुख़ारी की यह घोषणा महज़ मज़हबी नहीं थी. इस आयोजन में सोनिया गाँधी, राजनाथ सिंह, मुलायम सिंह सहित विभिन्न दलों के चुनिंदा नेताओं को आमंत्रित किया गया.
यहाँ तक कि पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ को भी दावत दी गई, लेकिन मेहमानों की इस लम्बी फ़ेहरिस्त से भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का नाम ग़ायब था.
बुख़ारी कहते है, “मोदी मुसलमानों को नज़रंदाज़ कर रहे हैं इसलिए इस तक़रीब में उन्हें दावत नहीं दी गई है.”
सियासी रहनुमाई
बुख़ारी ने जामा मस्जिद के इमाम की दस्तारबंदी को मुग़ल दौर में प्रचलित ताजपोशी की रस्म की तरह पेश किया है ताकि यह साबित किया जा सके कि भारत के मुसलमान जामा मस्जिद को अपना राजनीतिक केंद्र मानते है और बुख़ारी को अपना राजनीतिक नेता.
बुख़ारी का यह दावा कोई नया नहीं है. यह राजनीति अहमद बुख़ारी के पिता अब्दुल्लाह बुख़ारी ने 1970 के दशक में शुरू की थी. तब जामा मस्जिद, दिल्ली की कई अन्य मस्जिदों की तरह दिल्ली वक़्फ़ बोर्ड की मिल्कियत थी (जामा मस्जिद क़ानूनी तौर पर आज भी वक़्फ़ सम्पत्ति है!).
मस्जिद के इमाम और दूसरे कर्मचारी वक़्फ़ बोर्ड के मुलाज़िम हुआ करते थे जिन्हें वक़्फ़ बोर्ड से बाक़ायदा तनख़्वाह मिलती थी.
अब्दुल्लाह बुख़ारी (जो 1974 तक मस्जिद के नायब इमाम थे) ने जामा मस्जिद पर अपना आधिपत्य स्थापित करने के लिए अपने राजनीतिक संबंध स्थापित करने शुरू किए.
उन्होंने इंदिरा गाँधी के परिवार नियोजन कार्यक्रम, विशेषकर नसबंदी, के समर्थन में एक “फ़तवा” जारी किया.
फ़तवा देने का हक़
अब्दुल्लाह बुख़ारी न तो हाफ़िज थे न ही मुफ़्ती, इसलिए उन्हें फ़तवा जारी करने का कोई इस्लामी हक़ हासिल नहीं था. लेकिन फिर भी तत्कालीन कांग्रेस और मीडिया ने उनके बयानों को “फ़तवा” बताकर प्रसारित किया.
हालांकि अब्दुल्लाह बुख़ारी का यह पहला राजनीतिक क़दम नाकाम साबित हुआ, लेकिन वे अपने को मुस्लिम रहनुमा साबित करने में कामयाब हो गए.
इसी उत्साह में वे दो फ़रवरी 1975 को वक़्फ़ बोर्ड के चेयरमैन और मंत्री शाहनवाज़ ख़ान से एक सार्वजनिक सभा के दौरान हाथापाई कर बैठे. परिणामस्वरूप उन्हें मीसा कानून के तहद गिरफ़्तार कर लिया गया.
अब्दुल्लाह बुख़ारी की गिरफ़्तारी की ख़बर का पूरा फ़ायदा उठाते हुए, अहमद बुख़ारी (जो उस वक़्त तक राजनीतिक तौर पर काफी सक्रिय हो चुके थे) ने स्थानीय मुसलमानों को पुलिस के ख़िलाफ़ भड़काना शुरू किया. नतीजा साफ़ था, एक हफ़्ते तक चले पुलिस दमन में जामा मस्जिद इलाक़े के पाँच लोग मारे गए और कई घायल हुए.
सरकार ने सारी औपचारिकताओं को नज़रअंदाज़ करते हुए अब्दुल्लाह बुख़ारी को रिहा किया. उनके ख़िलाफ़ सारे मुकद्दमे वापस ले लिए गए. तब तक अब्दुल्लाह बुख़ारी राष्ट्रीय नेता बन चुके थे.
नई छवि का फ़ायदा
अपनी इसी नई छवि को भुनाते हुए उन्होंने एक नई 'शाही राजनीति' शुरू की. अब्दुल्लाह बुख़ारी ने 1977 में जनता पार्टी के लिए, 1980 और 1984 में कांग्रेस के लिए और 1989 में जनता दल के लिए राजनीतिक फ़तवे जारी किए.
अहमद बुख़ारी उनसे एक क़दम आगे निकल गए और उन्होंने 2004 में मुसलमानों से भाजपा के हक़ में वोट डालने की अपील की.
इस शाही राजनीति का एक अन्य स्वरूप भी है. यह राजनीति मुसलमानों से जुड़े पूर्वाग्रहों से निकलती है. दस्तारबंदी से सम्बंधित वर्तमान विवाद भी दो स्थापित पूर्वाग्रहों पर टिका है.
नवाज़ शरीफ़ को दस्तारबंदी में बुलाने से अहमद बुख़ारी का यह कदम, कई हलकों में, हिन्दुस्तानी मुसलमानों को एक बार फिर पाकिस्तान के विचार से जोड़ने के तौर पर देखा जाएगा.
हालांकि बुख़ारी ने यह साफ़ किया कि उन्होंने शरीफ़ को अपने निजी संबंधों की वजह से आमंत्रित किया है, लेकिन उनके वक्तव्य से यह सन्देश भी निकलता लगता है कि जैसे कि आज भी पाकिस्तान, भारतीय मुसलमानों के लिए राजनीतिक प्रेरणा हो...
यही बात हिन्दुत्ववादी वर्षों से करते चले आए हैं. फिर चाहे कश्मीर हो, कारगिल हो या फिर भारत-पाक क्रिकेट मैच, भारत के मुसलमानों की राष्ट्रीय निष्ठा पर हमेशा सवाल उठता रहा है.
बुख़ारी इसी लोकप्रिय पूर्वाग्रह के बहाने अपने सियासी वजूद को स्थापित करते से नज़र आते हैं.
सेक्युलर बनाम सांप्रदायिक
बुख़ारी की इस मीडिया-केंद्रित राजनीति का दूसरा पहलु हमारे सेक्युलर बनाम सांप्रदायिक विमर्श से निकलता है.
सभी ग़ैर-भाजपा दल पिछले एक वर्ष से यह दावा कर रहे हैं कि मोदी मुस्लिम-विरोधी हैं इसलिए मुसलमान उन्हें सख़्त नापसंद करते है.
बुख़ारी भी अपने को सेक्युलर ख़ेमे का प्रतिनिधि बताते हैं और मोदी को दस्तारबंदी में न बुलाने के पीछे वैचारिक कारणों की दुहाई देते हैं.
सेंटर फॉर स्टडी ऑफ़ डेवलपिंग सोसाइटीज़ (सीएसडीएस)-लोकनीति सर्वेक्षण के अनुसार राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा मुसलमान मतदाताओं की पहली पसंद नहीं है, लेकिन इस बार के लोकसभा चुनावो में पार्टी को पिछले चुनावों की तुलना में तीन प्रतिशत ज़्यादा मुस्लिम मत मिले हैं.
इमाम का यह दावा की मुसलमान भाजपा को विकल्प नहीं मानते इसी आधार पर बेबुनियाद कहा जा सकता है. उनके द्वारा 2004 में भाजपा को दिया गया राजनीतिक समर्थन भी उनकी राजनीति के वैचारिक खोखलेपन को दर्शाता है.
इमाम की इस शाही राजनीति का मूल केंद्र मीडिया है. बुख़ारी उन छवियों का राजनीतिकरण करते हैं जो इस धारणा पर टिकी हैं कि हिन्दुस्तानी मुसलमान एक ऐसा समुदाय है जो जड़ है, पुरातनपंथी है और जिसकी राजनीती पर सिर्फ और सिर्फ उनका क़ब्ज़ा है.
स्रोतः बीबीसी हिन्दी, 21 नवंबर, 2014
URL: https://newageislam.com/hindi-section/jama-masjid-politics-imamat-/d/100115