मुफ़्ती अब्दुल कय्यूम हज़ारवी और ज़कीउर्रहमान गाज़ी
निकाह और रुखसती के वक्त सैय्यदा आयशा सिद्दीका की उम्र कितनी थी?
मुफ़्ती: अब्दुल कय्यूम हज़ारवी
अस्सलामु अलैकुम! उम्मुल मोमिनीन हज़रत आयशा सिद्दीका रज़ीअल्लाहु अन्हा का निकाह और रुखसती कि उम्र में हुआ? बराहे मेहरबानी वजाहत फरमा दें। शुक्रिया सवाल करने वाला: राशिद अली
जवाब अज कलम: मुफ़्ती अब्दुल कय्यूम हज़ारवी
हदीस का इनकार करने वालों ने इस बात को बहुत उछाला है कि हदीस शरीफ में सैय्यदा आयशा सिद्दीका रज़ीअल्लाहु अन्हा की शादी के समय 9 साल उम्र बताई गई है जो अक्ल व नकल की रु से गलत है। इससे गैर मुस्लिमों बल्कि पढ़े लिखे मुसलमानों को भी हदीस के इनकार का बहाना मिल गया। हमारी तहकीक यह है कि सैय्यदा आयशा सिद्दीका रज़ीअल्लाहु अन्हा की उम्र मुबारक शादी के समय कम से कम 17 या 19 साल थी।
दलीलें: हज़रत आयशा सिद्दीका रज़ीअल्लाहु अन्हा की बड़ी बहन सैय्यदा अस्मा बिन्ते अबी बकर रज़ीअल्लाहु अन्हा लम्बी आयु पाने वाली सहाबियात में से हैं। अब्दुल्लाह बिन जुबैर रज़ीअल्लाहु अन्हु की मां हैं। बड़ी खुदा रसीद इबादत गुज़ार और बहादुर खातून उनकी उम्र तमाम इतिहासकारों ने सौ साल लिखी है। सैय्यदा आयशा सिद्दीका रज़ीअल्लाहु अन्हा उनसे दस साल छोटी हैं। सैय्यदा अस्मा हज़रत अब्दुल्लाह बिन जुबैर की शहादत के पांच या दस दिन बाद वफात पा गईं। वफात का सन 73 हिजरी है। इस हिसाब से सैय्यदा अस्मा की उम्र हिजरत के समय 27 साल हुई और सैय्यदा आयशा सिद्दीका रज़ीअल्लाहु अन्हा उनसे दस साल छोटी हैं तो आपकी उम्र हिजरत के समय 17 साल हुई। अगर सैय्यदा आयशा सिद्दीका रज़ीअल्लाहु अन्हा की रुखसती 2 हिजरी को मानी जाए तो रुखसती के समय आपकी उम्र मुबारक 19 साल हुई। हवाला जात देखें।
اسلمت اسماء قديما وهم بمکة فی اول الاسلام... وهی آخر المهاجرين والمهاجرات موتا. وکانت هی اکبر من اختها عائشة بعشر سنين.. بلغت من العمر ماته سنة.
अस्मा मक्का में इस्लाम के शुरू में मुसलमान हुईं। मुहाजेरीन मर्दों और औरतों में सबसे बाद में वफात पाने वाली हैं। अपनी बहन सैय्यदा आयशा रज़ीअल्लाहु अन्हा से दस साल बड़ी थीं”।
(इब्ने कसीर, अल बिदाया वल निहाया 8/346 तबा बैरुत)
اسلمت قديما بعد اسلام سبعة عشر انسانا... ماتت بمکة بعد قتله بعشره ايام وقيل بعشرين يوماً وذلک فی جمادی الاولیٰ سنة ثلاث وسبعين.
मक्का में सतरह आदमियों के बाद शुरूआती दौर में मुसलमान हुईं.....और मक्का मुकर्रमा में अपने बेटे (अब्दुल्लाह बिन जुबैर रज़ीअल्लाहु अन्हु) की शहादत के दस या बीस दिन बाद फौत हुईं और यह वाकया जमादिल उला महीने सन 73 हिजरी का है”
(علامه ابن حجر عسقلانی، تهذيب التهذيب 12 ص 426 طبع لاهور، الامام ابوجعفر محمد بن حرير طبری، تاريخ الامم والملوک ج 5 ص 31 طبع بيروت، حافظ ابونعيم احمد بن عبدالله الاصبهانی م 430ه، حلية الولياء وطبقات الاصفياء 2 ص 56 طبع بيروت)
اسلمت قديما بمکة وبايعت رسول الله صلی الله عليه وآله وسلم.. ماتت اسماء بنت ابی بکرالصديق بعد قتل ابنها عبدالله بن الزبير وکان قتله يوم الثلثاء لسبع عشرة ليلة خلت من جمادی الاولیٰ سنة ثلاث وسبعين.
“सैय्यदा अस्मा बिन्ते अबू बकर सिद्दीक रज़ीअल्लाहु अन्हु मक्का में कदीमुल इस्लाम हैं। आपने रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की बेअत की। अपने बेटे अब्दुल्लाह बिन जुबैर की शहादत के कुछ दिन बाद फौत हुईं। अब्दुल्लाह बिन जुबैर रज़ीअल्लाहु अन्हु की शहादत मंगल के रोज़ 12 जमादिल उला 73 हिजरी को हुई है”।
(मोहम्मद इब्ने सौदा अल कातिबुल वाकदी 168 हिजरी 230 अल तबकात अल कुबरा जिल्द 8/255 तबा बैरुत)
کانت اسن من عائشة وهی اختها من ابيها.. ولدت قبل التاريخ لسبع وعشرين سنة.
“सैय्यदा अस्मा, सैय्यदा आयशा रज़ीअल्लाहु अन्हा से अधिक उम्र की थीं। बाप की तरफ से सगी बहन थीं। हिजरत से 27 साल पहले पैदा हुईं”।
(इमाम इब्नुल जौज़ी, असदुल गाया फी मार्फतुल सहाबा जिल्द 5 पेज 392 तबा रियाज़)
اسلمت قديما بمکة قال ابن اسحق بعد سبعة عشر نفسا.. بلغت اسماء مائة سنة ولدت قبل الهجرة لسبع وعشرين سنة.
सैय्यदा अस्मा रज़ीअल्लाहु अन्हा मक्का मुकर्रमा में शुरूआती मुसलमान हुईं। इब्ने इसहाक ने कहा सतराह इंसानों के बाद सौ साल उम्र पाई हिजरत से 27 साल पहले पैदा हुईं।“
(شهاب الدين ابوالفضل احمد بن علی بن حجر عسقلانی، الاصابة فی تميز الصحابة 4 ص 230 م 773ه طبع بيروت، سيرة ابن هشام م 1 ص 271 طبع بيروت، علامه ابن الاثير، الکامل فی التاريخ 4، ص 358 طبع بيروت، علامه ابوعمر يوسف ابن عبدالله بن محمد بن عبدالقرطبی 363ه، الاستيعاب فی اسماء الاصحاب علی هامش الاصابة 463ه ج 4 ص 232 طبع بيروت، حافظ شمس الدين محمد بن احمد الذهبی، تاريخ الاسلام ودفيات المشاهير والاسلام ج 5 ص 30 طبع بيروت، الروض الانف شرح سيرة ابن هشام ج 1 ص 166 طبع ملتان)
यह हकीकत भी सामने रहे कि
रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की हयाते तय्यबा में सन हिजरी का आगाज़ नहीं हुआ और सन ईस्वी या किसी और सन का अरब समाज में परिचय या चलन नहीं था।
अरब वाले किसी मशहूर एतेहासिक घटना से सालों का हिसाब करते थे जैसे असहाबे फील की घटना, से इतना अरसा पहले या बाद आदि। बाकायदा सन हिजरी का आगाज़ हज़रत उमर फारुक रज़ीअल्लाहु अन्हु से अपने दौरे खिलाफत में किया और इसका आगाज़ साल हिजरी से किया।
पहली सने हिजरी, दूसरी सने हिजरी, तीसरी सने हिजरी में कम से कम इमकानी मुद्दत। पहली सने हिजरी का आखरी दिन अर्थात 30 ज़िल्हिज्जा लें और दूसरी सने हिजरी का पहला दिन अर्थात एक मोहर्रम, दोनों में एक दिन का अंतर। दुसरे रुख से देखें पहली सने हिजरी का पहला दिन अर्थात एक मोहर्रम, दूसरी सने हिजरी का आखरी दिन अर्थात 30 ज़िल्हिज्जा, कुल मुद्दत दो साल मुकम्मल। दोनों सूरतों में सन बदल गए मगर एक तरफ एक दिन मिला और दूसरी ओर पुरे दो साल। जब तक तारीख और महीना निर्धारित न हो अंतर बाकी रह कर इबहाम पैदा करता रहेगा।
आज कल प्रिंट मीडिया कितनी तरक्की कर चुका है मगर किताबों में, अखबारों में, हद तो यह कि कुरआन करीम की तबाअत व किताबत में गलती हो जाती है, पहला दौर तो हाथों से किताबत का दौर था, संभव है “तिसआ अशर” उन्नीस साल उम्र मुबारक हो मगर किताबत की गलती से तिसआ या तिसअन रह गया और अशरा का शब्द किताबत में साकित हो गया हो, तिसआ अशरा उन्नीस साल की जगह तिसअन या तिसआ अर्थात नौ साल बाकी रह गया और आने वालों ने नक़ल करने वाले आला दर्जा के इमानदार, परहेजगार, उलूम व फुनून के माहिर, सहीह व सकीम में अंतर करने वाले, निहायत मोहतात लोग थे। वजह सुकूत कुछ भी होना संभव नहीं। तथ्य बहर हाल तथ्य होते हैं। उनके चेहरे पर गर्द व गुबार तो पड़ सकता है मगर हमेशा के लिए इसे मस्ख नहीं किया जा सकता। हदीसों की तमाम किताबों में ऐसे सहिष्णुता का निवारण किया जाना चाहिए ताकि बद अंदेश को ज़ुबाने तअन दराज़ करने की हिम्मत न रहे।
واللہ و رسولہ اعلم بالصواب۔
Source: https://www.thefatwa.com/urdu/questionID/1167
निकाह के समय उम्मुल मोमिनीन हज़रत आयशा रज़ीअल्लाहु अन्हा की उम्र का मसला
ज़कीउर्रहमान ग़ाज़ी मदनी
जामियतुल फलाह, आज़मगढ़
नबूवत व रिसालत कि तारीख पर जो शख्स भी तदब्बुर की गहरी निगाह रखता है वह अच्छी तरह से समझता है कि पिछले मिल्ल्तों का बिगाड़ और इन्हेराफ इस पहलु से अधिक नहीं था कि उनके अंदर अल्फज़े वही से एराज़ या उनके इनकार की रविश पैदा हो गई थी, बल्कि गुमराही और इन्हेराफ इन मिल्ल्तों में वही ए इलाही के मानी की बेजा तावील व तश्रीक के रास्ते से दर आया और यह तान धीरे धीरे इतनी खींची कि शारेअ हकीम के नाज़िल करदा अलफ़ाज़ को उनके मकसूद व मतलूब मुआनी से फेर कर कुछ का कुछ मफहूम बना लिया गया।
मुस्लिम उम्मत के अंदर गलत तावीलात और बे सर पैर मुआनी की पैदाइश व अफ्जाइश के ताल्लुक से इस्लाफ का ज़माना बड़ी हद तक हमारे जमाने से अलग साबित हुआ है। असलाफ के जमाने में अहले बिदअत की दौरे अज़कार का निशाना अधिकतर एतेकादी उसूल थे। जैसे सिफ़ाते इलाही की तावील, अर्श और कुर्सी की तावील, तकदीर की तावील, बअस बादल मौत और मआद की तावील, मोअजज़ात की तवील और नबूवत की हकीकत और किना की तावील आदि। गुमराह फिरकों ने इन एतेकादी उमूर को अपनी गलत तावीलात का निशाना बनाया था जिसका मुकाबला करने के लिए। अलहमदुलिल्लाह इस उम्मत के असलाफ खड़े हुए और अनथक कोशिश कर के दीन को कामिल और सालिम (Intact) बाकी रखा।
मगर असलाफ के जमाने में दीन के अमली अहकाम की तावील का दरवाज़ा नहीं खुला था। गुमराह फिरके- शरीअत के अमली अहकाम की ताज़ीम करते थे, उन्हें बजा लाते थे। मुसलमानी निस्बत रखने वाले बहुत सारे फ्लास्फा जो एतेकादियात में सिराते मुस्तकीम से बहुत दूर निकल गए थे, लेकिन शराए व अहकाम के ताल्लुक से उनका यही कहना था कि इस दुनिया में नामूस ए मुहम्मदी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम जैसा कोई नामूस आज तक नहीं आया है और नामूस से उनकी मुराद शरीअत ए मुहम्मदी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के अमली अहकाम होते थे। इमाम इब्ने तैमिया रहमतुल्लाह अलैह ने फ्लास्फा के बारे में लिखा है कि माहिरे फ्लास्फा, इब्ने सीना आदि के इस कौल का एतेराफ व इकरार करते हैं कि इस आलमे नासूत में नामूस मोहम्मदी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम से बढ़ कर कोई नामूस अब तक नाज़िल नहीं हुआ है।بل اعترف حذاقہم بما قالہ ابن سینا وغیرہ من أنہ لم یقرع العالم ناموس أفضل من ناموس محمدﷺ (मिन्हाजुल सुन्नह अल नब्विया, इब्ने तैमिया: 1/317 तहकीक: मोहम्मद रशाद सालिम)
फ्लास्फा के इस कौल से मुतरश्शेह है कि वह लोग शरीअते इस्लामिया के अह्कामी व अमली पहलु को पसंद करते थे, मगर एतेकादी उमूर में सर झुकाने के बजाए तावील व तौजीह का दरवाज़ा खोले हुए थे। इसकी वजह बिलकुल साफ़ है। असल में वह लोग उस जमाने में सांस ले रहे थे जिसमें इस्लामी रियासत की फुतुहात का दायरा रोज़ बरोज़ फैलाव पर था, राजनीतिक और कानूनी पहलु से समाज में शरीअत पर अमल हो रहा था और इलाही निज़ाम की बरकतों का मुशाहेदा वह अपने सर की आँखों से कर रहे थे। तबीआती पहलुओं के बाद से यूनानी फलसफे के बिल मुक़ाबिल उनकी शिकस्त खुर्दगी और मरउबियत केवल अकली व ज़हनी नौअय्यत की थी, स्यासी गुलामी या दस्तूरी चाकरी का शायबा भी उनके यहाँ नहीं था। यही वजह है कि यह लोग दस्तूरी और अमली पहलु से शरीअत पर कायम रहे, जो कुछ बेचैनी और बे राह रवी उनके अंदर पैदा हो पाई वह अकाएद और गैबियात के पहलु से हुई।
उस जमाने के विपरीत हमारे जमाने में नए अहले बिदअत जो कुछ जिद्दत तराज़ियाँ और बेजा तावीलें कर रहे हैं उन सब का ताल्लुक शरीअत के अमली पहलु से है और यह साफ़ साफ़ ग़ालिब मगरीबी सभ्यता व संस्कृति के प्रभाव में हो रहा है। नए मुफक्केरीन व मुजतहेदीन का ज़ोर इस्लामी अकीदों और गैबी उमूर की तौजीह व तावील पर बिलकुल दिखाई नहीं पड़ता। उनकी बेजा ताविलों और मुबतदआना रायों का तख्ता ए मश्क सिर्फ और सिर्फ शरीअत के अमली अहकाम बन रहे हैं। मसलेहत मुर्सला से मुताल्लिक उमूर व मसाइल, मकासिदे शरीअत, ताजीरात व हुदूद, सूद, पर्दा, शौहर की बीवी और फैमिली पर कव्वामियत, जिहाद, गैर मुस्लिमों से वाला व बरा का ताल्लुक, ज़िम्मियों के अहकाम, बुराई पर एहतिसाब व इनकार, मुखालेफीं दीन के साथ उम्मत का रवय्या, खालिस दुनयवी उलूम की दीनी हैसियत, कम उमरी की शादी आदि वह मौज़ुआत हैं जिन्हें आज निशाना बनाया जा रहा है और कहने की जरूरत नहीं कि यह सब इस्लामी शरीअत के अमली अहकाम हैं।
मगरिब नवाज़ मुस्लिम वर्ग की तमाम कोशिशों और काविशों का महवर व मरकज़ यह बना हुआ है कि किसी तरह इन अमली अहकाम के सिलिसले में वारिद शरई नुसूस को उनके असल मानी से फेर दें और दाएं बाएँ जुगत लगाते हुए ऐसे मुआनी पर महमूल करें जो ग़ालिब मगरीबी कल्चर और तहज़ीब के मवाफिक हों। इस गर्ज़ से नए नए तसव्वुरात व मफाहीम की टकसाल कायम कर दी गई है और हर मगरीबी तसव्वुर को शरीअत की तरफ मंसूब करने की जुरअत बेजा का मुज़ाहेरा देखने को मिल रहा है। दूर अज़कार तावीलात का दरवाज़ा नहीं, पूरा फाटक है जो खोल दिया गया है। यह मानवी साथ पर अल्लाह पर किज्ब व इफ्तेरा नहीं तो क्या है?
सलफ के जमाने के फिरके जिन्हें अकाएद व गैबियात की तावील पर इसरार था ताकि इस्लाम को यूनानी फलसफे के मवाफिक बना लिया जाए, वह हमारे जमाने के इस कुम्माश के अरबाबे फ़िक्र व नज़र दोनों बराबर अहले बिदअत हैं और दोनों अल्लाह के दीन में नई चीजें इजाद करने वाले हैं और दोनों शरीअत के साथ गैर शरई तसव्वुरात व मुआनी का जोड़ लगाने वाले हैं। बिदअत की हकीकत इसके अलावा क्या है? लेकिन इन दोनों गिरोहों में हद्दे फासिल यह है कि असलाफ के जमाने में जो अहले बिदअत थे उन्हें यूनानी मॉडर्निटी (जदीदियत) का चस्का लगा था, इसलिए वह एक तरफ इस्लामी अकीदों और गैबी उमूर और बिल मुक़ाबिल यूनानी मैथालोजी और फलसफे के बीच मवाफिकत की सबील निकालना चाह रहे थे। जबकि हमारे जमाने के अहले बिदअत का मामला यह है कि यह लोग इस वक्त अमेरिका की ज़ेरे कयादत ग़ालिब मगरीबी तहज़ीब और कल्चर पर निसार हो चुके हैं और उनकी तमाम मसाई का नुक्ता ए इर्त्काज़ यह बन गया है कि इस्लामी शरीअत के अमली अहकाम को तोड़ मरोड़ कर मगरीबी जौक और मिजाज़ के मुताबिक़ बना दिया जाए। इस्लाम का कोई भी हुक्म ऐसा बाकी न रहने पाए जिस पर मगरीबी इंसान चीं ब जबीं हो या जो उसके नाज़ुक तबीअत और जौके लतीफ पर बार पड़ता हो। गोया तावीलात की दलदल में कूदने का उनका मोहरिक साबका अहले बिदअत की तरह शरीअत में पेवंदकारी है, बल्कि निशाना अजदाद व अख्लाफ दोनों का जुदागाना है
इसी संदर्भ में एक आपत्ति कम उमरी की शादी पर किया जाता है और हज़रत आयशा रज़ीअल्लाहु अन्हा के निकाह पर निशाना साधा जाता है। हालांकि अम्मां जान रज़ीअल्लाहु अन्हा ने खुद अपने बारे में बताया है कि मैं छः साल की थी तो अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम से मेरा निकाह हुआ और नौ साल की हुई तो रुखसती हुई।“[تزوجنی رسول اللّٰہ لست سنین وبنی بی وأنا بنت تسع سنین] (सहीह बुखारी: 5133_ सहीह मुस्लिम: 1422) सहीह मुस्लिम की एक रिवायत में शादी के समय उम्र सात साल बताई गई है। दोनों रिवायतों में तत्बीक की सूरत यह है कि वह छः साल की हो चुकी थीं और सातवां साल चल रहा था। (देखें अल साबतह: 8/232)
चौड़ा सौ साल तक उम्मत को हज़रत आयशा रज़ीअल्लाहु अन्हा की शादी की उम्र पर न कोई एतेराज़ हुआ और न कोई अजीब और ना मानूस बात नज़र आई। मगर जदीद दौर में जब मगरिब की साम्राजी ताकतों ने आलमे इस्लाम के हिस्से बखरे कर के मुसलमानों पर अपने राजनीतिक असर व नुफुज़ के साथ तहज़ीबी व समाजी तसल्लुत भी कायम करना चाहा तो मुसलमानों ही में से कुछ लोगों को आगे बढाया जो इस कारे बद में उनका भरपूर मदद कर सकते थे। इसलिए ऐसे नए विचारकों ने पश्चिमी सभ्यता व संस्कृति से टकराने वाले तमाम इस्लामी अहकाम की तौजीह व तावील शुरू कर दी और उन्हें मगरीबी फ़िक्र व मिजाज़ के मवाफिक ढालना शुरू कर दिया।
जल्द ही अहकाम से गुज़र कर यह लोग तवारीख व वकाए तक जा पहुंचे। इसलिए रज्म की सज़ा का इनकार इस अजीमुश्शान दलील के साथ किया गया कि अल्लाह के रसूल मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम रह्मतुल्लिल आलमीन थे और रज्म करना संगदिली का मज़हर है, इसलिए आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ऐसा नहीं कर सकते। बाकी तारीख व हदीस की मुत्तफक अलैह सैंकड़ों रिवायतें, कर्ने अव्वल से फुकहा ए दीन का इस पर अमल; यह सब दरिया बुर्द करने के लायक ठहरा।
इसी तरह इन महारथियों ने हज़रत आयशा रज़ीअल्लाहु अन्हा की शादी की उम्र पर एतेराज़ उठाया। दावा किया गया कि निकाह के वक्त उम्मुल मोमिनीन की उम्र अठारह साल। जो पश्चिमी देशों में भी शादी की उम्र मानी जाती है। थी और वाफाते नबवी के वक्त उम्र अठाईस साल थी। इस सिलसिले में कुछ दिलचस्प आंकड़े उन हज़रात ने पेश किये जो तमाम तर इस नुक्ते पर आधारित हैं कि हज़रत आयशा रज़ीअल्लाहु अन्हा और उनकी बहन हज़रत अस्मा रज़ीअल्लाहु अन्हा के बीच उम्र में कितने साल का फर्क था।
इस सिलसिले में पहली बात तो यह समझ लें कि कम उमरी की शादी पर जिन लोगों को एतेराज़ है वह डायरेक्ट अल्लाह से बहस व मुबाहेसा करें क्योंकि उसी ने जवाज़ का यह रखना पैदा किया है। अल्लाह पाक का इरशाद है: وَاللَّائِیْ یَئِسْنَ مِنَ الْمَحِیْضِ مِن نِّسَائِکُمْ إِنِ ارْتَبْتُمْ فَعِدَّتُہُنَّ ثَلَاثَۃُ أَشْہُرٍ وَاللَّائِیْ لَمْ یَحِضْنَ}(طلاق،۴ “और तुम्हारी औरतों में से जो हैज़ से मायूस हो चुकी हों उनके मामले में अगर तुम लोगों को कोई शक लाहिक है तो (तुम्हें मालुम हो कि) उनकी इद्दत तीन महीने है और यही हुक्म उनका है जिन्हें अभी हैज़ न आया हो।“
हज़रत अब्दुल्लाह बिन अब्बास की तरफ मंसूब कौल के अलावा ताबईन रहमतुल्लाह अलैह में से सुद्दी रहमतुल्लाह अलैह, कतादा, ज़हाक और मकातिल बिन सुलेमान ने कुरआनी अलफ़ाज़ “लम यह्जुन” से मुराद कम उम्र लड़कियां ली हैं जो हैज़ की उम्र को न पहुंची हों। इमाम इब्ने जरीर तबरी, इमाम कुर्तुबी, इमाम बैज़ावी, इमाम बगवी, इमाम इब्ने कसीर, इमाम सुयूती, इमाम राज़ी, इमाम अबू हयान उन्द्लुसी, इमाम इब्ने अतिया, इमाम बकाई, इमाम अबुल सऊद, अल्लामा इब्नुल जौज़ी, अल्लामा ज़मख्शरी, अल्लामा मुरागी, अल्लामा मजहरी, अल्लामा सिद्दीक हसन खान, अल्लामा तंतावी जौहरी, अल्लामा अल जज़ायरी और सैयद क़ुतुब शहीद रहमतुल्लाह अलैहिम अज्मईन और उनके अलावा असंख्य मुफ़स्सेरीन इस आयत से मुराद वह बच्चियां ली हैं जिन्हें छोटी उम्र होने की वजह से हैज़ न आया हो।
सैयद मौदूदी रहमतुल्लाह अलैह लिखते हैं: हैज़ चाहे कम सिनी की वजह से अन आया हो या इस वजह से कि कुछ औरतों को बहुत देर में हैज़ आना शुरू होता है और शाज़ व नादिर ऐसा भी होता है कि किसी को उम्र भर हैज़ नहीं आता। बहर हाल तमाम सूरतों में ऐसी औरत की इद्दत वही है जो आइसा औरत की इद्दत है, अर्थात तलाक के वक्त से तीन महीने। इस जगह यह बात मलहूज़ रखनी चाहिए कि कुरआन मजीद की तसरीह के मुताबिक़ इद्दत का सवाल उस औरत के मामले में पैदा होता है जिससे शौहर खिलवत कर चुका हो, क्योंकि खिलवत से पहले तलाक की सूरत में सिरे से कोई इद्दत है ही नहीं। (सुरह अहज़ाब: 49) इसलिए ऐसी लड़कियों की इद्दत बयान करना जिन्हें हैज़ आना शुरू न हुआ हो सरीहन इस बात पर दलालत करता है कि इस उम्र में न केवल लड़की का निकाह कर देना जायज़ है बल्कि शौहर का उसके साथ खिलवत करना भी जायज़ है। अब यह बात ज़ाहिर है कि जिस चीज को कुरआन ने जायज़ करार दिया हो उसे ममनूअ करार देने का किसी मुसलमान को हक़ नहीं पहुँचता।“ (तफ्हीमुल कुरआन: 5/571)
मगर इसका मतलब यह नहीं है कि इस्लाम कमसिनी की शादी की वकालत करता है या इसे एक नेक काम मानता है। यह केवल जवाज़ और अबाहत की बात है। कुछ लड़कियों को कम उमरी से हिस्टीरिया के दौरे पड़ने लगते हैं जिनके इलाज के लिए शादी करना जरूरी हो जाता है। मगर आम हालात में इस्लाम ने शादी के जोड़े की सिने विसाल में बाहम कुर्बत व मुताबिकत को मुस्तहब और मसनून करार दिया है। इसलिए इसकी बख्शी वुसअत और जवाज़ को किसी माद्दी तहज़ीब की नक्काली में नाजायज करार देना एक कुफ्रिया हरकत है। अफ़सोस के साथ कहना पड़ता है कि जदीद नाम निहाद मुफक्केरीन आज यही नापाक हरकत कर रहे हैं। यह तो कमसिनी की शादी का मसला हुआ। अब उम्मुल मोमिनीन हज़रत आयशा रज़ीअल्लाहु अन्हा की उम्र की तरफ आइये।
गौर करने की बात यह है कि शादी के समय हज़रत आयशा रज़ीअल्लाहु अन्हा के सिन की तहदीद कोई शरई मसला है या एक एतेहासिक घटना है? और इज्तेहाद क्या केवल शरई मसलों में होता है या इसके जरिये से एतेहासिक घटना और हादसों में भी रद्द व बदल किया जा सकता है? यकीनन एक तारीखी घटना है और अक्ल और शरअ दोनों के नज़दीक घटनाओं को जूं का तूं बयान किया जाना चाहिए है। उनमें जोड़ तोड़ नहीं की जाती और न नाकिल की पसंद व नापसंद का ख्याल किया जाता है क्योंकि अगर ऐसा किया गया तो यह तहरीफ़ कारी है। उम्मुल मोमिनीन हज़रत आयशा रज़ीअल्लाहु अन्हा की उम्र का मसला एक साबित शुदा तारीखी घटना है जिसे इज्तेहाद का विषय नहीं बनाया जा सकता है। फिर कई पहलुओं से इसकी सेहत व सदाकत खुल कर सामने आती है।
1- पहली दलील यह है कि खुद साहबे मामला (अर्थात हज़रत आयशा रज़ीअल्लाहु अन्हा) ने यह बात बयान की है। ऐसे में किसी दुसरे की बात पर एतेबार करने का क्या जवाज़ रह जाता है? सहीह बुखारी और सहीह मुस्लिम में मरवी उनकी यह हदीस गुज़र चुकी है कि वह छः साल की थीं जब आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने उनसे शादी की और नौ साल की हुईं तो उनसे खिलवत में मिले। इस पर कहने वाले कहते हैं कि यह तो उन पर बड़ा ज़ुल्म हुआ। मगर तरफा ए तमाशा यह है कि जिस पर ज़ुल्म होने का दावा किया जा रहा है, अर्थात अम्मां जान हज़रत आयशा रज़ीअल्लाहु अन्हा, उनसे कोई नहीं पूछ रहा। दुसरे शब्दों में हज़रत आयशा नौ साल की उम्र में रुखसती पर राज़ी और खुश, उनके वालिद बुज़ुर्ग वार हज़रत अबू बकर रज़ीअल्लाहु अन्हु इससे राज़ी और खुश, उनकी मां उम्मे रुमान इस रिश्ते से राज़ी और खुश, खानदाने टीम या उनके करीबी लोगों में से किसी फर्द को इस पर एतेराज़ नहीं, खुद अल्लाह के आखरी नबी मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम इससे राज़ी और खुश। मगर जदीद दौर के फिकरी दीवानों को इस पराई शादी में ज़ुल्म व सितम नज़र आता है।
2- अम्मां जान रज़ीअल्लाहु अन्हा का यह बयान इन दो हदीस की किताबों में आया है जिन्हे अल्लाह की किताब के बाद दुनिया की सहीह तरीन किताबें होने का शर्फ़ हासिल है और जिनकी इस हैसियत को मुस्लिम उम्मत ने मजमुई तौर पर स्वीकार किया है। इमाम बुखारी रहमतुल्लाह अलैह और इमाम मुस्लिम रहमतुल्लाह अलैह अगर किसी हदीस को कुबूल करने पर मुत्तफिक हो जाएं तो इसके मुस्तनद व मोतबर होने में कोई शक बाकी नहीं रह जाता है। सहीहैन कुतुबे हदीस में से मुस्तनद और मोतबर किताबें हैं। इमाम बुखारी और इमाम मुस्लिम रहमतुल्लाह अलैह ने इन किताबों में आला दर्जे की शिः हदीसे यकजा कर के दीन की अज़ीम खिदमत की है और मिल्लत पर बहुत बड़ा एहसान किया है जिसकी यह उम्मत हमेशा मकरूज़ रहेगी। अल्लाह पाक हमें अपने मोह्सिनों की शुक्रगुजारी की तौफीक दे और इन किताबों से उम्मत को जो फायदा पहुंचा है उस पर शेखैन को ज़्यादा से ज़्यादा अज्र व सवाब अता करे। (फी रिहाबुल क़ुतुब अल सुन्नह: पेज 97- अल हदीस वल मुहद्दीसून: पेज 399-403 क़ुतुब अल सुन्नह दरासतुस तौसीकीया, रफअत फौज़ी)
जो लोग सहीहैन में होने के बावजूद इस हदीस का इनकार कर रहे हैं और हज़रत आयशा रज़ीअल्लाहु अन्हा के निकाह को ज़ालिमाना बता रहे हैं, बज़ाहिर उनकी बात नए ज़माने की हवा के मुताबिक़ और खुशनुमा है, लेकिन क्या यह इल्मी भी है? हम बिना तकल्लुफ कहें गे कि यह लोग मरउबाना जज़्बात की रौ में बह रहे हैं। उनकी शिकस्त खुर्दा मानसिकता ने उन्हें अपने कौल के अवाकिब व मुज्मिरात का पूरा इदराक नहीं होने दिया। वह दिरायत व तफक्कोह के नाम पर एक हीस सहीह रद्द कर रहे हैं हालांकि यह ऐसा ही है जैसे फिकह के कई मसले को इल्म हैयत के कवाएद से रद्द किया जाए। फुकहा व मुजतहेदीन का मैदान वह नहीं है जो फने रिवायत के इमामों का है। हदीस केवल फने रिवायत ही के जवाबित से रद्द या कुबूल की जा सकती है। बड़े से बड़े फकीह यहाँ तक कि इमाम अबू हनीफा और इमाम शाफई को भी यह इख्तियार हासिल नहीं है कि केवल रिवायत के मज़मून की बुनियाद पर किसी रिवायत को सहीह या गलत करार दें। बल्कि उन्हें कवाएद ए फन का ततबेअ करना होगा और दिरायत केवल उसी हद तक मोअतबर होगी जिस हद को आइन ए फन ने आखरी हद करार दे दिया है।
तफसील इस इजमाल की यह है कि अगर कसी तथाकथित अल्लामा ए दहर या खुद शैखे वक्त की बात मां ली जाए कि हदीस के नफ्से मज़मून की बुनियाद पर किसी ऐसे रावी को झुटलाया जा सकता है जिसकी सकाहत व अदालत पर तमाम फन के इमाम इत्तेफाक कर चुके हों और जिसका हफज़ व ज़ब्त इस्तकरा से साबित हो चुका हो तो फिर तमाम हदीसें, यहाँ तक कि सहीह बुखारी व सहीह मुस्लिम की रिवायत से भी अमान उठ जाएगा। एक रावी को झुटलाना लाज़िमन यह मानी रखता है कि रावियों को जांचने की वह कसौटी नाकिस और ना काबिले एतेमाद है जो रिवायत करने वाले इमामों ने इतनी एहतियात, तदब्बुर, ज़र्फ़ निगाही, मुशक्कत और इखलास से बनाई है कि इससे अधिक इंसानी दस्तरस में नहीं है। फिर आखिर उन्हीं रिवायतों का क्या एतेबार होगा जो अहकाम व अकाएद के बाब में वारिद हुई हैं।
अगर तुम कहो कि यह रिवायतें अक्ल के मुताबिक़, दीन की मजमुई हैयत से हम आहंग और बाहम एक दुसरे की हम मिजाज़ हैं, तो हम कहेंगे कि दीन की मजमुई हैयत और मिजाज़ और ढाँचे की तशकील तो तुमने रिवायाते सहीहा के ही खाम मवाद और अजजाए तरकीबी से की है। अगर आज यह राज़ खुले कि सफे अव्वल का एक रावी गलत साबित हो गया तो फिर यह मजमुई ढांचा ही कहाँ लायके एतेमाद रहेगा जो उसे मेयार और मुस्तदल बनाया जाए? फिर तो यह इमकान पुरी कुव्वत से सर उभारेगा कि जिन रिवायात और हदीसों को असल मान कर हम ने अपने अहकाम व अकीदे की सूरत गरी की है और उसूल से फरोअ का इस्तमबात किया है उनमें ही न जाने कहाँ कहाँ नक्स और खलल वाकेअ हो गया है।
महज़ यह बात कि फलां रिवायत अक्ल के मुताबिक़ और कयास से हम आहंग है सेहत की कोई दलील नहीं है। वकुअ के लिए दलीले वकुअ चाहिए न कि दलीले इमकान। अक्ल व कयास के मुताबिक़ तो यह भी संभव है कि ज़ैद जुमे के दिन दिल्ली से मुंबई गया हो। मगर क्या यह जरूरी है कि वह गया ही हो? ठीक उसी तरह हदीसों से साबित शुदा तमाम उसूली अहकाम अक्ल व कयास की दलील पर नहीं, बल्कि नकल व रिवायत की शहादत पर माने जा सकते हैं। अगर यह जायज़ है कि मज़मून हदीस को अपनी दानिस्त में नामुनासिब पा कर हम आला दर्जे के रावियों को झूटा करार दे सकें तो फिर दीन के लिए कोई जाए पनाह नहीं बचेगी। सहीह बुखारी व सहीह मुस्लिम आदि किताबें सब अफसानों का मजमुआ बन जाएंगी।
इन लोगों के ज़िक्र किये गए मोकफ ने केवल एक रावी को मजरुह नहीं किया, बल्कि यहाँ कई रावी ज़द में आ गए। इमाम बुखारी रहमतुल्लाह अलैह ने कई सनदों से (मुत्तहिदुल मानी) मत बयान किये हैं और इमाम मुस्लिम रहमतुल्लाह अलैह ने भी अलग अलग सनदें पेश की हैं। अगर कोई ख़ास और निर्धारित कर के नहीं बता सकता कि किस किस रावी पर गलत बयानी का शक है तो फिर इन सनदों का हर हर रावी हत्ता कि हज़रत आयशा रज़ीअल्लाहु अन्हा और हज़रत उरवा बिन जुबैर भी मुशतबह हो जाते हैं। और अगर वह ख़ास और निर्धारित करके बता देता है तो फिर उसे यह बहर हाल मानना होगा कि सहीह हदीसों के दोनों सबसे बड़े अमीन इमाम बुखारी और इमाम मुस्लिम ने भी अपनी किताबों में जो रिवायतें पेश की हैं उन पर भरोसा नहीं किया जा सकता। बुखारी रहमतुल्लाह अलैह और मुस्लिम रहमतुल्लाह अलैह के जिन रावियों पर अहले फन ने जिरह की है उनका यहाँ हवाला देना बेकार होगा। क्योंकि उन्होंने यह जिरह भी फन ही के रुख से की है। हम ज़िक्र उस कसौटी और मेयार का कर रहे हैं जिसकी सेहत पर जिरह करने वाले भी इत्तेफाक कर चुके हैं। ज़ेरे तज़किरा हदीस रद्द करने का हासिल उस मुत्तफक अलैह कसौटी की शिकस्त और कदह है जो फिल असल एतेमाद अलल हदीस के खात्मे के सिवा किसी और अंजाम पर मुन्तज नहीं होगा।
फुकहा व मुजताहेदीन दुनिया ए मुआनी के शहसवार हैं, उन्हें अपने ही दायरे में जौहर दिखाने चाहियें और उन्होंने वह दिखाए भी हैं। क्या इमाम अबू हनीफा ने नहीं फरमाया है कि “إذا صح الحدیث فہو مذہبی” क्या सहीह रिवायत के सामने कयास का तर्क एक तय शुदा मामला नहीं है? फिर आखिर यह कयास के सिवा क्या है कि हज़रत आयशा रज़ीअल्लाहु अन्हा का निकाह के समय अपनी उम्र के बयान को सहीह न माना जाए? सहीह और गलत को हम से अधिक अल्लाह और उसका रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम जानता है।
हम बस यह देखने के मजाज़ और मुकल्लफ़ हैं कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फलां बात कही है या नहीं कही है, फलां काम कुया है या नहीं किया है। अगर संभावित उपलब्ध माध्यम से जने ग़ालिब हो जाए कि ऐसा हुआ है तो फिर कयास व मंतिक और दिरायत व सकाह्त को उसकी तावील हुस्न में खर्च करना चाहिए, न कि इस कसौटी को मुश्तबा बनाने में जिसका एतेमाद ख़त्म हो जाए तो फिर हमारी दुनिया में कोई उजाला नहीं, क्योंकि हम यकीन के साथ जान ही नहीं सकेंगे कि मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने क्या किया था और क्या नहीं किया था।
3- फिर यह रिवायत किसी एक रावी या एक सिलसिला ए सनद से हम तक नहीं पहुंची है, बल्कि कई तरक से नकल हुई है। हालांकि इल्म हदीस से बैर रखने वाले जाहिलों ने बे सर पैर का दावा किया है कि यह तमाम तरक एक रावी हज़रत उरवा बिन जुबैर रहमतुल्लाह अलैह या हज़रत हश्शाम बिन उरवा पर जा कर इकठ्ठा हो जाते हैं और अखीर उम्र में उन्हें दिमागी खलल लाहिक हो गया था और यह रिवायत उसी आखरी दौर से संबंध रखती है। मगर यह सब वाहियात और बेबुनियाद दावे हैं जिनकी ताईद में कोई सहीह हदीस तो दूर, कोई जईफ रिवायत या हिकायत भी पेश नहीं की जा सकती है। फिर उन लोगों का यह तर्ज़े अमल किस कद्र मजह्काना है कि एक तरफ सिलसिला ए सनद व रिवायत का इनकार कर के अपनी अक्ल को सुप्रीम अथारिटी बावर कराते हैं, चाहे वह सिलसिला सनद सहीहैन के सिका रावियों पर आधारित क्यों न हो, और दूसरी तरफ किसी भी जईफ या बे सनद रिवायत को खबर ए मुतवातिर या हुज्जते कातेआ बना कर पेश करने लग जाते हैं। हमारा कहना है कि भाई! तुम खुदा हो या रसूल हो या क्या हो कि तुम जिस रिवायत पर ऊँगली रख दो उसे हम कुबूल कर लें और जिस रिवायत को घूर कर देखो वह मरदूद व नामकबूल समझी जाए। दीन में सख्सी पसंद और ना पसंद केवल अल्लाह और उसके रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की मोतबर है और हुज्जत व दलील है। वरना हर एरे गैरे की यह हैसियत और कद्र व कीमत नहीं कि बे दलील व हुज्जत, बस उसकी पसंद और नापसंद की बुनियाद पर दीन की सूरत गिरी की जाए
हकीकत यह है कि अम्मां जान हज़रत आयशा रज़ीअल्लाहु अन्हा की यह हदीस कई तरक व सलासिल से मनकूल हुई है जिसकी तफसील इस मसले पर लिखी गई तहकीकी किताबों में आसानी से देखी जा सकती है। जैसे शैख़ अहमद शाकिर की किताब “तह्कीके सिने आयशा रज़ीअल्लाहु अन्हा”, डॉक्टर मोहम्मद अम्मारा की किताब “الرد علی من طعن فی سن زواج عائشۃؓ”, एमन बिन खालिद की किताब “السہام الرائشۃ للذب عن سن زواج السیدۃ عائشۃ” और फहद अकीली की किताब “السنا الوہاج فی سن عائشۃ عند الزواج” का इस विषय के हवाले से मराजेआ किया जा सकता है।
4- शादी के समय उम्मुल मोमिनीन हज़रत आयशा रज़ीअल्लाहु अन्हा की उम्र की सराहत ऐनी शाहिदीन और ऐसे लोगों ने भी की है जो उस वक्त जिंदा थे और काफी बाद तक जिन्दा रहे। अगर हज़रत आयशा रज़ीअल्लाहु अन्हा की बात गलत होती तो यह लोग उसकी तरदीद फरमाते, मगर उनकी खामोशी इस बात की दलील है कि हज़रत आयशा रज़ीअल्लाहु अन्हा का बयान अपनी उम्र के ताल्लुक से उन लोगों के नज़दीक सहीह है।
इमाम अहमद रहमतुल्लाह अलैह ने अपनी मुसनद में बसनद “محمد بن بسر قال حدثنا محمد بن عمرو قال حدثنا أبو سلمۃ ویحییٰ” नकल किया है कि जब हज़रत खदीजा रज़ीअल्लाहु अन्हा की वफात हो गई तो हज़रत उस्मान बिन मज़उन रज़ीअल्लाहु अन्हु की अहलिया हज़रत खौला बिन्ते हकीम रज़ीअल्लाहु अन्हा आईं और अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम से कहा: “आप शादी क्यों नहीं कर लेते?” आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने पूछा: “किस से?” उन्होंने बताया: “अगर कंवारी शरीके हयात मतलूब है तो बताएं और शौहर दीदा मतलूब है तो बताएं।“ आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने बाकरह के बारे में पुचा तो उनहोंने कहा कि दुनिया में जो आपको सबसे ज़्यादा महबूब है यानी हज़रत अबू बकर रज़ीअल्लाहु अन्हु की बेटी आयशा रज़ीअल्लाहु अन्हा।‘‘[لما ہلکت خدیجۃ جائت خولۃ بنت حکیم امرأۃ عثمان بن مظعون قالت یا رسول اللّٰہ ألا تزوج قال من قالت إن شئت بکرا وإن شئت ثیبا قال فمن البکر قالت ابنۃ أحب خلق اللّٰہ إلیک عائشۃ بنت أبی بکر] (मुसनद अहमद: 25801)
आगे इसी रिवायत में दूसरी तफसीलात के ज़िम्न में यह भी ज़िक्र हुआ है कि निकाह के वक्त वह छः साल की और खिलवत के वक्त नौ साल की दोशेज़ा थीं। “सैरुल आलामुल नबला” [2/113] में इमाम ज़हबी रहमतुल्लाह अलैह ने इस रिवायत को मुर्सल कहा है। जब कि इमाम इब्ने कसीर रहमतुल्लाह अलैह ने “अल बिदाया वल निहाया” [3/129] में लिखा है कि बज़ाहिर यह मुर्सल रिवायत है, मगर असल में मुत्तसिल है। इमाम हैस्मी रहमतुल्लाह अलैह ने “मजमउल ज़वायद” [9/228] में लिखा है कि इसका बेशतर हिस्सा मुर्सल है, इसकी सनद में मोहम्मद बिन अम्र बिन अलकमा हैं जिनकी तौसीक कई मोहद्देसीन ने की है, उनके अलावा बकिया तमाम रुवात सिका और रिजाल सहीह है। अल्लामा शुएब रहमतुल्लाह अलैह ने मुसनद अहमद [6/210] की तहकीक करते हुए इस सनद को हसन दर्जे की माना है।
5- सहीहैन की रिवायत में उम्मुल मोमिनीन हज़रत आयशा रज़ीअल्लाहु अन्हा ने अपनी आयु के बारे में जो कुछ फरमाया है, तमाम तारीखी माखज़ में और जुमला रावियाने हदीस की तरफ से इस पर इत्तेफाक किया गया है। तवारीख व सीर और तज़किरा व तराजिम की किसी भी किताब में इसके खिलाफ कोई एक रिवायत, बल्कि कोई एक कौल भी नहीं मिलता। फिर यह मामला इज्तेहादी नौअय्यत का नहीं है कि अपने मन से किसी की आयु घटा और बढ़ा दी जाए। जब साहबे मामला ने खुद अपने बारे में एक बात की सराहत कर दी है तो दोसरों को इस बारे में तखमीने और अंदाज़े लगाने की क्या जरूरत ह रह जाती है।
6- जुमला तारीखी मसादिर व मराजेअ में मुत्तफेका तौर पर यह बात मिलती है कि अम्मां जान हज़रत आयशा रज़ीअल्लाहु अन्हा की विलादत बेअसते नबवी के बाद हुई। चार साल या पांच साल; इसमें मतभेद हुआ है जैसा कि अल्लामा इब्ने हज़ज्र रहमतुल्लाह अलैह का कहना है। इस एतेबार से हिजरत के समय उनकी आयु आठ या अधिक से अधिक नौ साल होने चाहिए। और यही सूरते वाकेआ है जो सहीहैन में मजकुर उनके बयान से मेल खाती है।
7- इसी तरह तमाम तारीखी मसादिर में बिला इस्तिसना यह ज़िक्र मिलता है कि वाफाते नबवी के वक्त हज़रत आयशा रज़ीअल्लाहु अन्हा की उम्र केवल अठारह साल थी। इस एतेबार से हिजरत के वक्त उनकी उम्र नौ साल होनी चाहिए जो सहीहैन और दुसरे तारीखी मसादिर में मौजूद मालूमात के मवाफिक है।
8- सीरत, तारीख और तराजिम की किताबें बताती हैं कि उम्मुल मोमिनीन हज़रत आयशा रज़ीअल्लाहु अन्हा की वफात तिरसठ साल की उम्र में सन 57 हिजरी में हज़रत मुआविया रज़ीअल्लाहु अन्हु की दौरे खिलाफत में हुई। इस लिहाज़ से भी हिसाब लगाएं तो उनकी उम्र हिजरत के वक्त छः या सात साल बनती है। अरबों की आदत थी कि इज़ाफ़ी अय्याम को साल मां कर उम्र जोड़ देते थे, अगर इस एतेबार से उम्र देखें तो हिजरत के समय उनकी उम्र अधिक से अधिक आठ साल बनती है। हिजरत के आठ माह बाद ही उन्हें शर्फे खलवत नसीब हुआ, ऐसे में खुद कार अंदाज़ में उनकी उम्र निकाह व रुखसती के समय क्रमशः छः और नौ साल बन जाती है।
9- यही हकीकत है जो हज़रत अस्मा रज़ीअल्लाहु अन्हा और उनकी उम्र के तफावुत पर भी सादिक आती है। इमाम ज़हबी रहमतुल्लाह अलैह के मुताबिक़ बड़ी बहन उनसे तेरह से उन्नीस साल तक बड़ी थीं। उन्होंने “बिज़आ अशर” के अलफ़ाज़ इस्तेमाल किये हैं। (सैर आअलामुल नबला, 2/188) हज़रत आयशा की विलादत बेअसत ए नबवी के चार या पांच साल बाद हुई है। इमाम अबू नईम रहमतुल्लाह अलैह ने “मोअतरफतुस्सहाबा” [3253/6] में हज़रत अस्मा रज़ीअल्लाहु अन्हा का बयान नकल किया है कि वह बेअसते नबवी से दस साल पहले मुतवल्लद हुई थीं। इस लिहाज़ से दोनों काबिले एहतेराम बहनों की उम्र का फर्क चौदा या पंद्रह साल रह जाता है। यही इमाम ज़हबी रह्मुतुल्लाह अलैह के कौल “बिज़आ अशर” से मुराद है और इसी पर तमाम तारीखी मसादिर मुत्तफिक हो जाते हैं।
आयशा रज़ीअल्लाहु अन्हा की उम्र के मसले पर अल्लामा सैयद सुलेमान नदवी रहमतुल्लाह अलैह ने एक लेख में लिखा था जो उनकी किताब “सीरते आयशा रज़ीअल्लाहु अन्हा” में बतौरे जमीमा शामिल है। इस रिसाले में उन्होंने अपने समकालीन में से हदीस का इनकार करने वालों और मुजतहेदीन के उन मज़उमा दलीलों की खूब खबर ली है जिनकी बुनियाद पर दावा किया जाता है कि निकाह के वक्त हज़रत आयशा रज़ीअल्लाहु अन्हा की उम्र बड़ी थी। हदीस का इनकार करने वालों और मुजतहेदीन ने इस मसले के बारे में साहबे मिश्कात वलीउद्दीन खतीब रहमतुल्लाह अलैह के एक रिसाले “अला कमाली फी अस्माउर्रिजाल” की एक इबारत को दलील के तौर पर पेश किया है जिसके मुताबिक़ हज़रत आयशा रज़ीअल्लाहु अन्हा अपनी बहन हज़रत अस्मा रज़ीअल्लाहु अन्हा से दस साल छोटी थीं। (सीरते आयशा रज़ीअल्लाहु अन्हा: पेज 316) इस इबारत के बारे में अल्लामा नदवी रहमतुल्लाह अलैह का कहना है कि साहबे मिश्कात ने इस राय को “कीला” के सेगे से पेश कर के इसके मजहूल और जईफ होने की जानिब इशारा कर दिया है, लेकिन इनकार करने वाले और इज्तीहाद करने वालों ने इसी कौल को अपने हक़ में दलीले कातेअ बना लिया है। वरना साहबे मिश्कात वलीउद्दीन खतीब रहमतुल्लाह अलैह की अपनी राय इस बाब में वही है जो आम उलमा की राय है कि उम्मुल मोमिनीन हज़रत आयशा रज़ीअल्लाहु अन्हा का निकाह छः साल की उम्र में हवा और रुखसती नौ साल की उम्र में हुई थीं। (सीरते आयशा: पेज 317)
10- हज़रत आयशा रज़ीअल्लाहु अन्हा की उम्र का मसला इकलौता नहीं है, अगर यह गलत है तो इसके साथ बहुत सरे शरई अहकाम भी गलत साबित होते हैं। बच्चियों का गुड़ियों से खेलना, गुड़ियों का इंसानों और जानवरों की शक्ल पर होने, कम उम्र बीवी से निकाह करना आदि वह मसले हैं जिनका स्रोत हज़रत आयशा रज़ीअल्लाहु अन्हा की जाते गिरामी ही है। अगर मां लिया जाए कि निकाह के वक्त हज़रत आयशा की उम्र अठारह साल थी, तब क्या यह माना जाएगा कि अठारह साल की जवाब लड़की गुड़ियों का खेल खेलती थी, उसके खिलौनों में परों वाले घोड़े होते थे, उसके शौहर बच्चियों को उसके साथ खेलने के लिए उसके पास भेजते थे। क्या उम्मुल मोमिनीन के साथ इससे भोंडा कोई मज़ाक हो सकता है?
अल्लामा सैयद सुलेमान नदवी रहमतुल्लाह अलैह ने लिखा है कि हदीस में सिर्फ नौ का अदद नहीं है जिसके बारे में यह दावा किया जा सके कि यह उन्नीस था और रावियों या कातिबों ने इसे नौ समझ लिया, बल्कि हज़रत आयशा रज़ीअल्लाहु अन्हा ने अपने निकाह के वक्त के अहवाल भी बयान किये हैं कि वह हिंडोले में झूलती थीं, गुडिया खेलती थीं और एक रिवायत में “जारियतुल हदीसतुल सिन” के अलफ़ाज़ भी हैं, अर्थात तरह तरह के अलफ़ाज़ और कराईन से निकाह के वक्त उनके छोटे होने की तस्दीक होती है। (सीरते आयशा रज़ीअल्लाहु अन्हा: 341)
यह सब वह दलीलें हैं जिन पर उम्मत एतेकाद रखती आई है। उनमें भी पहली दलील ही सबसे मजबूत और फैसला कुन है, बाकी सब दलीलें ताकीदी व तौसीकी नौअय्यत के हैं। दलील सहीह और इज्मा ए उलमा ए उम्मत से यही हकीकत साबित होती है।
वास्तव में इस्लामी इतिहास में यह हेर फेर करने की आवश्यकता कुछ लोगों को इसलिए पड़ रही है क्योंकि मगरीबी प्रोपेगेंड के ज़ेरे असर यह तथाकथित विचारक बावर कर बैठे हैं कि नबी अकरम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का कम उम्र लड़की से शादी करना एक बड़े आर या ऐब की बात है और अब इस धब्बे को धोने और मिटाने का काम अल्लाह पाक ने मुद्दईयाने इल्म व तहकीक के सुपुर्द कर दिया है। हालांकि इसमें आर और खराबी की कोई बात है ही नहीं। जजीरतुल अरब एक गरम आबो हवा का खित्ता है और गरम देशों में आम तौर से बच्चे सिने बुलुग को जल्द पहुँच जाते हैं और नतीजे में उनकी शादी भी जल्द करनी पड़ती है। माज़ी करीब तक जजीरतुल अरब में जल्द शादी करने का रिवाज आम था। अल्लामा सैयद सुलेमान नदवी रहमतुल्लाह अलैह फरमाते हैं कि अरबों में न केवल कमसिन बच्चियों के निकाह का रिवाज था बल्कि, शीरख्वार बच्चों का भी वह निकाह कर देते थे, बल्कि उन बच्चों का भी उनके यहाँ निकाह कर दिया जाना आम था जो अभी हालते हमल में होते थे। सुनन अबू दाउद में तो बाकायदा एक बाब “बाब फी तरवीज मिन लम युलद” के उनवान से मौजूद है जिसमें उन बच्चियों के निकाह का ज़िक्र है जो अभी पैदा नहीं हुई थीं। सैयद साहब ने इमाम राज़ी रहमतुल्लाह अलैह से नकल किया है कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने हज़रत उम्मे सलमा रज़ीअल्लाहु अन्हा के कमसिन लड़के सलमा का निकाह हज़रत हमज़ा रज़ीअल्लाहु अन्हु की नाबालिग लड़की से पढ़ाया था। सैयद साहब रहमतुल्लाह अलैह ने अल्लामा ऐनी रहमतुल्लाह अलैह से नक़ल किया है कि हज़रत कदामा बिन मज़उन ने हज़रत जुबैर बिन अवाम की नौ मौलूद लड़की से निकाह पढ़वाया था। (मरजअ साबिक: पेज 339)
फिर इस हवाले से समकालीन दुनिया की सिथिति का जायज़ा भी लेना चाहिए। विभिन्न देशों में लड़की से रज़ा मंदी का संबंध (The Age of Consent) कायम करने के लिए अलग उम्र को कानूनी हैसियत दी गई है। उत्तरी अमेरिका, फ्लिपिंस और अंगोला में यह कानूनी उम्र बारह [12] साल है। जापान, ईरान, नाइजीरिया और अर्जेंटीना में यह उम्र कानूनी तौर पर तेरह [13] साल है।जर्मनी, आस्ट्रेलिया बुल्गारिया, हंगरी,पुर्तगाल, मकदूनिया, इस्टोनिया, अल्बानिया, बोस्निय, इस्राइल, चीन, बांग्लादेश आदि देश वगैरा में यह उम्र [14] साल है। पन्द्रह [15] और सोलह [16] साल की कानूनी उम्र तो आधी से अधिक दुनिया में प्रचलित है। (Minimum age of sexual consent, http:www.unicef.org/lac/2-20160308) यह तो आज की सभ्य दुनिया के हालात हैं, जबकि विभिन्न कौमों की तारीख उठा कर देखी जाए तो मालुम होता है कि इस कानूनी उम्र का निर्धारण भी अच्छे खासे संघर्ष और पश्चिमी ताकतों के दबाव का परिणाम है।
गुलामी के बारे में हदीस की किताबों में जो रिवायत नकल हुई हैं, अगर उनका तुलनात्मक अध्ययन आज के तसव्वुर ए आज़ादी से किया जाए गा तो फिर हर कस व नाकस को इस्लाम पर एतेराज़ और तान करने का मौक़ा मिलेगा, लेकिन अगर हदीसों में व्व्रिड गुलामी के तसव्वुर का उसी दौर की समकालीन कौमों में प्रचलित निजामे गुलामी से तुलनात्मक अध्ययन किया जाए तो गुलामों के सिलसिले में इस्लाम का मोकफ सबसे बड़ी नेमत और सर टा रहमत मालुम होगा।
इस मसले का एक पहलु यह है कि इस दौर में निकाह और शादी ब्याह के बारे में कल्चर और रस्म व रिवाज क्या था, और दूसरा पहलु यह है कि आज के रस्मों और रिवाजों और संस्कृति और कल्चर इस बारे में क्या है। ज़ाहिर सी बात है कि दोनों में फर्क है और होना चाहिए। बताने का मकसद यह है कि एक ही चीज को देखने के कई ज़ाविये हो सकते हैं। एक ही ज़ाविये से किसी बात को देख कर उस पर कोई कतई हुक्म लगा देना मुनासिब नहीं है। देखने का एक जाविया यह है कि जिस दौर की बात है उस दौर के हालात में उतर कर इस बात के बारे में कोई सकारात्मक या नकारात्मक टिप्पणी किया जाए।
हज़रत आयशा की उम्र के मसले पर कुछ वह लोग भी दीन की बदनामी का हवाला देते हैं जिनकी खुद की जिंदगियों से दीनी अलामत व शेआर तक गायब हैं। उन्हें देखना चाहिए कि यह एशिया, अफ्रीका और उत्तरी अमेरिका में बारह, तेरह, और यूरोप में चौदा साल की उम्र में राष्ट्रीय कानून व दस्तूर के ज़ेरे साया हो रहा है, क्या यह लोग भी इस पर भी सवाल या एतेराज़ की जुरअत कर सकते हैं कि इतनी कम उमरी में शादी कैसे संभव है। तेरह या चौदा साल की लड़की शादी के काबिल कहाँ होती है? अगर होती है तो कौन अपनी बेटी का निकाह इस उम्र में करना पसंद करेगा? यह वह बात करने का तरीका है जो आम तौर पर इस हदीसे पाक पर एतेराज़ करने वाले अपनाते हैं। हालांकि अल्लाह की कसम, अगर आज हबीबे किब्रिया मोहम्मद मुस्तफा सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम होते तो आज भी लाखों उम्मती अपनी कम उम्र की बेटी को आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के निकाह में देना अपनी सआदत समझते।
तुम्हें एक आम इंसान और नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम में फर्क समझना होगा। एक उम्मती का नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम से जो इमानी ताल्लुक है, उसे किसी मुर्शद और पीर से जज़बाती ताल्लुक पर कयास नहीं किया जा सकता। हज़रत आयशा रज़ीअल्लाहु अन्हा जो खुद अपनी कम उमरी की शादी का ज़िक्र करती हैं, उन्होंने कभी इस पर अफ़सोस का इज़हार नहीं किया कि वह नौ साल की उम्र में क्यों अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की जौजियत में आईं। आज कोई भी मुद्दई ए इस्लाम अपने गिरेबान में झाँक कर खुद से सवाल करे कि अगर मां लिया जाए अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम मुझसे मेरी बेटी मांग लेते तो मेरी प्रतिक्रिया क्या होगी। फिर यह अम्र भी मल्हुज़ रखो कि तुम्हारा ईमान किसी भी दर्जे में हज़रत अबू बकर रज़ीअल्लाहु अन्हु और हज़रत आयशा रज़ीअल्लाहु अन्हा के ईमान का हम पल्ला नहीं है। जिसका ईमान अबुबकर जैसा हो उसका रद्दे अमल क्या होगा? सच्ची बात यह है कि कुछ सवालों का जवाब केवल इमानी होता है जो केवल ईमान से दिया जा सकता है और ईमान ही की रौशनी में समझा जा सकता है।
(देखें मुकालमा, डॉक्टर हाफ़िज़ मोहम्मद जुबैर: पेज 766-763)
फिर एक बात यह भी है कि कुछ औरतें अपनी जिस्मानी साख्त और कुदरती काठी और हयातियाती नाशोनुमा में अलग होती हैं। कुछ बच्चियों का जिस्म फ़रबा और सेहतमंद होता है और कम उमरी के बावजूद वह बिलकुल जवानुल उम्र मालुम होती हैं। अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की दूसरी तमाम बीवियों के हाल पर गौर करो। तुम पाओगे कि अल्लाह के नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने हज़रत आयशा के सिवा किसी कंवारी खातून से शादी नहीं की। आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की हर पाक बीवी शौहर दीदा थी। यह इस बात की दलील है कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के निकाह शहवानी जज़्बात की तस्कीन या निस्वानी हुस्न व जमाल से हज़ उठाने के लिए नहीं हुए थे। यह पस्त मकासिद जिस आदमी के पेशेनज़र होते हैं और अपनी तमाम बीवियों में, या अक्सर बीवियों में ज़ाहिरी हुस्न व जमाल के पहलु को तरजीह देता है और जिंसी अपील से भरपूर कंवारियों से अपना हरम भरता है। यह वह माद्दी और फना पज़ीर पैमाने हैं जो ऐसे शख्स के सामने रह सकते हैं, मगर अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की पुरी ज़िनदगी और आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की तमाम शादियाँ उन मफरूजात की खुली तरदीद कर रही हैं।
वसल्लल्लाहु तआला अला खैरे खल्किही मोहम्मद व अला आलीही व अज्वाजिही व असहाबिही वासल्लिम तस्लीमन कसीरन कसीरा।
व आखिरू दअवाना अनिल हम्दुलिल्लाही रब्बिल आलमीन।
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Source: हज़रत आयशा रज़ीअल्लाहु अन्हा की उम्र का मसला
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