हसन कमाल (उर्दू से अनुवाद-समीउर रहमान, न्यु एज इस्लाम डाट काम)
इण्डोनेशिया में उग्रवादियों की हार के बाद पश्चिमी देशों के बुद्धिजीवी ये सोचने पर मजबूर हो गये कि आतंकवाद से लड़ने का वो तरीका अकेला तरीका नहीं है जो अमेरिकी अपनाए हुए है। इससे लड़ने का तरीका ये है कि सिविल सोसाइटी को साथ लिया जाये और उसे बताया जाये कि आतंकवाद और बेवजह की हिंसा किसी समस्या का हल नहीं है। इसके बिल्कुल विपरीत ये उद्देश्य को समाप्त करने वाला कार्य है। इससे ताकत की बजाए सार्वजिनक जीवन में कमज़ोरी आती है और तरक्की के रास्ते में रुकावट पैदा होती है।
इस्लामी राज्य के अलावा जिस दूसरे मुद्दे पर मुस्लिम समुदाय उलझन में था वो जिहाद है। जिहाद मुसलमानों के लिए बहुत प्रिय और पवित्र शब्द है। ये बात तो सर्वसम्मति से मानी जाती है कि नकारात्मक मनोवैज्ञानिक इच्छाओं से या अपनी वासनाओं से से जंग करना ही जिहादे अकबर औऱ असल जिहाद है। लेकिन जिहाद फी-सबीलिल्लाह के विषय पर खासी अराजकता फैलायी गयी। आतंकवादियों ने अपनी बेवजह की हिंसा को भी जिहाद का ही नाम दिया, लेकिन सामूहिक रूप से मुसलमानों के मन में ये उलझन मौजूद रही कि क्या हर लड़ाई को जिहाद कहा जा सकता है? और ये भी उलझन रही कि जिहाद का ऐलान कौन कर सकता है? बड़े बड़े मुस्लिम उलमा का कहना है कि जिहाद का ऐलान कोई व्यक्ति या कोई जमात (संगठन) नहीं कर सकती है। इस ऐलान का अधिकार उस समय के खलीफा के हाथों में या अगर खलीफा न हो तो सिर्फ रियासत या सरकार के हाथों में है, व्यक्ति या किसी गिरोह के हाथों में नहीं। जिहाद के लिए ये भी ज़रूरी समझा जाता है कि जिस के खिलाफ जिहाद का ऐलान किया जाये उसे पहले उसे सूचित कर दिया जाये और जो कुछ वो कर रहा है उससे अलग हो जाने के लिए कहा जाये। सबसे बड़ी बात ये है कि उसे सबसे पहले दावत दी जाये, जिसके कुबूल न करने की सूरत में ही कोई कदम उठाया जा सकता है, लेकिन मुसलमान देख रहे थे कि ऐसा नहीं हो रहा है। ओसामा बिन लादेन और उसके मानने वालों ने जब चाहा और जिसके खिलाफ चाहा जिहाद का ऐलान कर दिया। इस ‘जिहाद’ के सिलसिले में जिन लोगों को निशाना बनाया गया, उन्हें कभी किसी किस्म की आगाही (सूचना) नहीं दी गयी। ये बात धीरे धीरे विश्व स्तर पर मुसलमानों को समझ में आने लगी, लेकिन एक और अहम बात थी, जिसने मुसलमानों को ये सोचने पर मजबूर कर दिया कि ये कैसा ‘जिहाद’ है?
शुरु में जब आत्मघाती धमाकों का सिलसिला शुरु हुआ तो लोगों की समझ में नहीं आया कि ये क्या हो रही है। पढ़े लिखे मुसलमानों को ये मालूम था कि आत्मघाती धमाकों या अपने शरीर पर बम बाँधकर दुशमन के घेरे में घुस जाना औऱ दुश्मन के साथ ही अपने जिस्म के भी चीथड़े उड़ा लेना, ये जापानियों की खोज थी। जापान की रेड आर्मी ने सबसे पहले ये सिलसिला शुरु किया था। इसके बाद एलटीटीई के श्रीलंकाई तमिलों ने इसे अपनाया और इसे अपना खास हथियार बना लिया, लेकिन किसी मुसलमान का इस तरह अपनी जान देना किसी की सोच से परे था। मुसलमानों का आम विश्वास यही था कि खुदकुशी हराम मौत है। इसलिए शुरु शुरु में ज़्यादातर मुसलमानों को समझ में नहीं आया कि इस पर किस तरह की प्रतिक्रिया दें। बदकिस्मती से कुछ आतंकवादियों ने कुछ तथाकथित उलमा से आत्मघाती हमलावरों के समर्थन में फतवा भी हासिल कर लिया। इससे और भी उलझन फैल गयी, लेकिन जब इन आत्मघाती हमलावरों ने अमेरिका और नाटो फौजियों के बजाये मस्जिदों, खानक़ाहों और मैय्यत के जुलूसों में घुस कर आम नागरिकों को उड़ाना शुरु कर दिया, तो सवाल उठने लगे कि क्या जिहाद मासूम नागरिकों को औऱ वो भी मुसलमान नागरिकों की जान लेने की इजाज़त देता है? ईराक़ और पाकिस्तान में कई आत्मघाती धमाके उस वक्त हुए जब लोग नमाज़ पढ़ रहे थे। ज़्यादातर की मौत उस वक्त हुई जब वो सज्दे में गिरे हुए थे। ज़ाहिर है इस जिहाद को किसी भी तरह जायेज़ और इस्लामी नहीं कहा जा सकता था। असल में 26/11 के बाद से ही पश्चिमी देशों के बुद्धिजीवी मुस्लिम उलमा से अपील करने लगे थे कि जिहाद और जिहादियों के प्रति एक स्पष्ट रुख अख्तियार किया जाये। जिहाद को स्पष्ट किया जाये और और सम्भव हो तो इस सम्बंध में फतवे जारी किये जायें। शुरु शुरु में इन अपीलों को अनसुनी किया गया, लेकिन जब मस्जिदों औऱ जनाज़े के जुलूसों पर आत्मघाती हमले बढ़ने लगे तो गंभीर उलमा के समूह को सोचने पर मजबूर होना पड़ा। इसलिए 2006 के तथाकथित जिहाद और आत्मघाती धमाकों के खिलाफ फतवे आने भी लगे। 2007 में ओसामा बिन लादेन के उस्ताद मान्वी और और एक बेहद आदर के लायक सऊदी आलिम सलमान औज़ा ने ओसामा बिन लादेन के नाम एक खुला खत लिखा, जिसमें उन्होंने दूसरी बातों के अलावा ओसामा बिन लादेन की आलोचना कि “आत्मघाती धमाकों के कल्चर को बढ़ावा देकर तुमने हत्या और जनता के लिए मुसीबतों को आम कर दिया है और पूरे मुस्लिम समुदाय की छवि बिगाड़ के रख दी है।“ छवि को बिगाड़ कर रख देने की बात ऐसी थी कि जिससे कोई भी अक्ल वाला मुसलमान इंकार नहीं कर सकता था।
बहुत जल्द मुसलमानों में ये एहसास आम होने लगा कि ओसामा बिन लादेन अपने मकसद में लाख मुखलिस हों, लेकिन एक तो अगर उनको सऊदी शासकों से शिकायत थी और वो समझते थे कि सऊदी अरब के शासक मुस्लिम समुदाय के हितों की रक्षा के बजाये अमेरिका की गुलामी कर रहे हैं, तो उन्हें सऊदी शासकों के खिलाफ संघर्ष की शुरुआत सऊदी अरब में रह कर ही करनी चाहिए थी उनके पास संसाधन और लोगों की कमी नहीं थी। दुनिया के इतिहास में इतना मालदार और दौलतमंद ‘क्रांतिकारी’ कभी पैदा नहीं हुआ। इसमें शक नहीं कि ये “वत्वासौ बिल्हक़्क़े वत्वासौ बिस्सब्र” की कड़ी आज़माइश से गुज़रने का दौर होता, लेकिन रसूलुल्लाह (स.अ.व.) के मानने वालों के लिए ये कोई मुश्किल काम नहीं था। बिन लादेन का संघर्ष अहिंसा की राह पर भी हो सकता था। वो अगर हिंदुस्तानी गाँधी को न मानते तो उनके सामने लीबियाई गाँधी उमर मुख्तार की मिसाल मौजूद थी। ऐसा ही संघर्ष शाह ईरान रज़ा शाह पहेल्वी के खिलाफ इमाम खुमैनी ने शुरु किया था और इसके लिए देशनिकाला तक को स्वीकार कर लिया था। इससे अलग ओसामा बिन लादेन दुनिया भर के मुससलमानों से जिहाद में शामिल होने की बात कह रहे थे, लेकिन खुद उनके घर का कोई सदस्य उनके जिहाद में शामिल नहीं था। उनके बेटे तो बूढ़ी फ्रांसीसी महिलाओं से शादी कर रहे थे या उनका अरबों डालर का कारोबार संभाले हुए थे। ऐसा लगता है कि वो चाहते थे कि मुसलमानों के बच्चे तो सिर पर कफन बाँधे और उनके अपने बच्चों के सिर पर सेहरे बँधते रहें। आम मुसलमानों को जब ये सच्चाई पता चली तो उनके मन में भी ओसामा बिन लादेन की नीयत पर शक होने लगा। उनके मानने वालों ने जब शरीअत के नाम पर मुस्लिम औरतों को निशाना बनाना शुरु कर दिया, लड़कियों के स्कूल बंद और कुछ हालात में बर्बाद कर दिये, औरतों को नौकरियों में यहाँ तक कि बाज़ारों में जाने से महरूम कर दिया गया, तो ये शक यक़ीन में बदल गया कि ये जिहादी नहीं हैं। इनके मन में शरीअते मोहम्मदी की गलत तस्वीर है। औरतों पर अत्याचार इस्लाम का हिस्सा हो ही नहीं सकता, जिसने सबसे पहले दुनिया से औरतो के अधिकार कुबूल करवाए। इनका मकसद किसी न किसी तरह सत्ता पर कब्ज़ा करना है। नतीजा ये हुआ कि ओसामा बिन लादेन, अलक़ायदा और उनके सहयोगियों का भरम बड़ी तेज़ी से टूटने लगा।
विश्व स्तर पर मुसलमान आज भी परेशान हैं। हिंदुस्तान समेत दुनिया के कई देशों में वो अत्याचार और अन्याय का शिकार हैं, लेकिन उनमें ये एहसास बढ़ता जा रहा है कि बेवजह की हिंसा उसकी समस्या का हल बिल्कुल भी नहीं है। अमेरिका में बराक ओबामा की जीत और ’बुशवाद’ की हार से वो पूरी तरह संतुष्ट न भी सही लेकिन आशावान जरूर हैं। वो देख रहा है कि इज़राईल के तमाम अत्याचारों के बावजूद आज उसका वो दबदबा नहीं हैं जो कल तक था, उसकी पकड़ ढ़ीली पड़ने लगी है। मुसलमान उसका खेल समझने और दूसरों को समझाने में सफल हो रहे हैं, और सबसे बड़ी बात ये कि मुसलमान पहली बार इज़राईल को डरा हुआ देख रहा है। वो ईरान से भयभीत दिख रहा है। मुसलमान आजकल के मुकाबले में ज़्यादा ऊर्जावान और विश्वास से भरा नज़र आ रहा है। वो देख रहा है कि उम्मत ने बेहतरीन डॉक्टर, इंजीनियर और वैज्ञानिक पैदा करना शुरु कर दिया है। इनकी सामूहिक सोच ने अपनी मंज़िल तय कर ली है। ये मंज़िल सिर्फ तालीम हासिल करने की राह पर चल कर मिल सकती है।
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