हसन कमाल
(उर्दू से हिंदी अनुवाद- समीउर रहमान, न्यु एज इस्लाम डाट काम)
मशहूर अंग्रेज़ी दैनिक ‘हिंदुस्तान टाइम्स’ की एक पत्रकार आरफ़ा जौहरी ने इस अखबार में एक दिलचस्प लेख लिखा है। आरफ़ा के मुताबिक मुम्बई शहर में पिछले चार साल के दौरान उन स्कूलों की तादाद 16 से बढ़कर 33 फीसद यानि दोगुना से भी ज़्यादा हो गयी, जहाँ A से अल्लाह और B से बिस्मिल्लाह पढ़ना सिखाया जाता है। ये मुसलमानों के वो तालीमी इदारे हैं जहाँ तालीम का ज़रिया (मीडियम) तो अंग्रेज़ी है, जहाँ उन्हें दीनी तालीम भी दी जाती है। स्कूल में पढ़ने वाले बच्चे भी इस खुशगवार तब्दीली से न सिर्फ खुश हैं बल्कि मुतमइन हैं। शहर के मुसलमानों की ज़हनी तब्दीली और आधुनिक शिक्षा में उनकी दिलचस्पी हर लिहाज़ से काबिले तारीफ है।
ये इदारे कुछ लोगों की आर्थिक मदद से खोले गये हैं और इनकी तादाद में रोज़-बरोज़ इज़ाफ़ा हो रहा है। ये इदारे रवायती मदरसों से भी अलग हैं और आम अंग्रेज़ी मीडियम स्कूलों से भी भिन्न हैं। ज़्यादातर इदारे एक एनजीओ इक़रा ने शुरू किये हैं। इन इदारों के पीछे दो कारण हैं- आम अंग्रेज़ी मीडियम स्कूलों के दरवाज़े हर मुसलमान के लिए खुले नहीं पाये जाते, चाहे वो आर्थिक रूप से सम्पन्न मुसलमान ही क्यों न हों। मुसलमान बच्चों को किसी न किसी बहाने से दाखिला देने से इंकार कर दिया जाता है। कुछ इंग्लिश स्कूलों ने एक नया तरीका ईजाद किया है, चूंकि इन स्कूलों में दाखिले के वक्त बच्चे के मां-बाप का इंटरव्यु किया जाता है। इसका मकसद वैसे तो बच्चे के समाजी पसेमंज़र (पृष्ठभूमि) जानना होता है लेकिन ये भी एक तरह की फिरकापरस्ती और नस्लवाद की शक्ल है।
दूसरे आम इंग्लिश स्कूलों में मुसलमान बच्चों को, अगर वो नमाज़ पढ़ना चाहते हैं, तो इसकी भी इजाज़त नहीं दी जाती है। कुछ मां-बाप के लिए ये सूरतेहाल नाकाबिल बर्दाश्त है कि उनके बच्चे दीन और कल्चर से कट कर रह जायें। इक़रा ने बड़ी हद तक उन मां-बाप की मुश्किल बड़ी हद तक दूर कर दी है। इन इदारों का एक और सकारात्मक पहलू ये भी है कि इन्होंने ये पालिसी अख्तियार की है कि अगर कोई ग़ैर मुस्लिम बच्चा या बच्ची भी दाखिला चाहे तो उसके लिए इस्लामियात की तालीम ज़रूरी न समझी जायेगी। हमें यक़ीन है कि इन इदारों ने एक अच्छा मेयार (स्तर) कायम किया तो बहुत जल्द गैरमुस्लिम भी इनकी तरफ आकर्षित होंगे और ये एक अच्छी बात होगी।
बरसों पहले हमने गुलबर्गा में एक ऐसा ही स्कूल देखा था, जिसका मेयार इतना ऊँचा था कि गैरमुस्लिम मां-बाप को इस पर भी ऐतराज़ नहीं था कि उनके बच्चों को इस्लामी तालीम भी सीखना पड़ेगी, वो बस किसी भी क़ीमत पर अपने बच्चों का इस स्कूल में दाखिला चाहते थे। मुम्बई के ये स्कूल भिण्डी बाज़ार के रवायती मुस्लिम इलाके से लेकर मीरा रोड तक फैले हुए हैं। ये स्कूल किराये की इमारतों में भी हैं और पुरानी इमारतों में भी। इनमें ली जाने वाली फीस तीन सौ रुपये महीने से लेकर दो हज़ार रुपये महीन तक है। पिछले कुछ बरसों में मुस्लिम मिडिल क्लास भी बढ़ा है और उसकी क़ूवते खरीद (क्रय शक्ति) में भी इज़ाफ़ा हुआ है। इसलिए इन स्कूलों में दाखिला लेने वाले बच्चों की कोई कमी नहीं है। कमी टीचरों की ज़रूर पड़ सकती है, जो अंग्रेजी जानते हों और साथ ही दीनी तालीम देने की भी सलाहियत रखते हों।
लेकिन हमारी खुशी की वजह कुछ और भी है, जब इस लेख में हमने ये पढ़ा कि इस स्कूल को शुरू करने वाले एक मैकेनिकल इंजीनियर मोहम्मद रियाज़ और एक लेडी डॉक्टर शहनाज़ शेख़ जैसे लोग हैं, तो हमारी खुशी की इंतेहा न रही। खुशी की वजह ये थी कि ये ख्वाब पूरा होता दिखाई देने लगा कि मुसलमानों की क़यादत (नेतृत्व) मज़हबी हाथों से निकल कर जदीद तालीम याफ्ता, बाशऊर, बाखबर मुसलमानों के समाजी, मआशी (आर्थिक) और तालीमी मसलों की पूरी समझ रखने वालों के हाथों में मुन्तक़िल (स्थानान्तरित) हो जाए। अब कम से कम ऐसा लग रहा है कि मुसलमानों की तालीमी क़यादत बड़ी तेज़ी से ऐसे ही हाथों में मुन्तक़िल हो रही है। हम ये भी जानते हैं कि मुसलमानों को सिर्फ सियासी क़यादत दरकार नहीं है, फिलवक्त बड़ी हद तक नामनिहाद (तथाकथित) मजहबी कायेदीन और उनके सियासी दलालों के हाथों में है। मुसलमानों को तालीमी और आर्थिक मैदानों में भी कयादत दरकार है, जो रियाज़ और शहनाज़ जैसे लोग ही दे सकते हैं । इस सिलसिले में बीबी उज़मा नाहीद का नाम का नाम न लिया जाना अन्याय होगा, जिन्होंने सबसे पहले मुस्लिम बच्चियों की अच्छी तालीम के लिए जद्दोजहद की थी। बहरहाल इन स्कूलों की स्थापना निहायत ही अच्छा क़दम है।
स्रोतः सहाफत, लखनऊ
URL for English and Urdu article:
http://www.newageislam.com/urdu-section/مسلمانوں-کی-تعلیمی-کیفیت-میں-تبدیلی/d/3595
URL: https://newageislam.com/hindi-section/changes-educational-status-muslims-/d/5431