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Hindi Section ( 29 March 2014, NewAgeIslam.Com)

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Jaswant Singh and Muhammad Ali Jinnah जसवंत सिंह और मोहम्मद अली जिन्ना

 

 

 

 

हामिद मीर

27 मार्च, 2014

भारत के पूर्व विदेश मंत्री जसवंत सिंह ने कभी सोचा भी न होगा कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में उनकी अपनी बनाई हुई राजनीतिक पार्टी केवल मोहम्मद अली जिन्ना पर किताब लिखने के जुर्म में उन्हें मज़ाक बनाकर रख देगी। जसवंत सिंह बीजेपी के संस्थापक सदस्यों में से एक हैं। कुछ साल पहले उन्होंने 'जिन्ना' के नाम से एक किताब लिखी थी जिसमें उन्होंने ये कहा कि संयुक्त हिंदुस्तान के विभाजन के असल ज़िम्मेदार मोहम्मद अली जिन्ना नहीं बल्कि पंडित जवाहर लाल नेहरू और सरदार पटेल थे, क्योंकि इन दोनों ने धर्मनिरपेक्ष और उदार जिन्ना को साथ लेकर चलने के बजाय उन्हें अपने खिलाफ कर दिया था। इस किताब पर भारतीय जनता पार्टी का नेतृत्व बहुत नाराज़ हुआ, क्योंकि बीजेपी और कांग्रेस ने तो हमेशा जिन्ना को भारत के विभाजन का ज़िम्मेदार ठहराया था। दूसरी तरफ जसवंत सिंह का पक्ष ये था कि उन्होंने तो सिर्फ कुछ ऐतिहासिक तथ्य पेश किए हैं लेकिन उन्हें बीजेपी से निकाल दिया गया।

बीजेपी समर्थक कुछ टिप्पणी लिखने वालों का मानना ​​था कि जसवंत सिंह ने मोहम्मद अली जिन्ना को धर्मनिरपेक्ष करार देकर उनकी तारीफ नहीं की बल्कि उन्होंने अपने असली राजनीतिक विरोधी कांग्रेस की छद्म धर्मनिरपेक्षता पर से पर्दा उठाया है और कांग्रेस नेतृत्व को हिंदुस्तान के बँटवारे का ज़िम्मेदार करार देकर बीजेपी को फायदा पहुंचाया है। ये भी कहा गया कि लालकृष्ण आडवाणी दरअसल जसवंत सिंह को अपने लिए राजनीतिक खतरा समझते थे क्योंकि जसवंत सिंह पूर्व विदेश मंत्री और पूर्व रक्षा मंत्री होने के कारण प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार भी हो सकते हैं, इसलिए आडवाणी ने जसवंत सिंह को पार्टी से निकलवा दिया।

बहरहाल जसवंत सिंह दस महीने पार्टी से बाहर रहे दस महीने बाद उन्हें फिर से बीजेपी में शामिल कर लिया गया।  2014 के चुनाव में टिकटों के बँटवारे का चरण आया तो जसवंत सिंह ने राजस्थान में अपने पैतृक क्षेत्र बाड़मेर से टिकट मांगा लेकिन बीजेपी ने उन्हें टिकट देने से इंकार कर दिया जिस पर जसवंत सिंह ने कहा कि उन्हें मोहम्मद अली जिन्ना को सेकुलर करार देने की सज़ा मिली है। उन्होंने बाड़मेर से निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ने का ऐलान कर दिया। ये बात अब स्पष्ट हो चुकी है कि बीजेपी पर नरेंद्र मोदी का क़ब्ज़ा हो चुका है और उन्होंने सिर्फ जसवंत सिंह को ही नहीं बल्कि आडवाणी को भी रास्ते से हटा दिया है और अब मोदी अपनी पार्टी की तरफ से प्रधानमंत्री पद के एकमात्र उम्मीदवार हैं।

जसवंत सिंह को बीजेपी की तरफ से ठुकराए जाने के बाद कायदे आज़म मोहम्मद अली जिन्ना का व्यक्तित्व एक बार फिर भारतीय मीडिया में बहस का विषय बना है। जसवंत सिंह पहले भारतीय लेखक नहीं हैं जिन्होंने जिन्ना को धर्मनिरपेक्ष बताया है। उनसे पहले दिल्ली युनिवर्सिटी में पोलिटिकल साइंस के शिक्षक डॉ. अजीत जावेद ने भी ''सेकुलर एण्ड नेशनलिस्ट जिन्ना'' के नाम से किताब लिखी जिसमें पाकिस्तान के संस्थापक की ईमानदारी, साहस और बहादुरी को स्वीकार करने के साथ साथ ये भी लिख दिया कि पाकिस्तान बनाये जाने की मांग जिन्ना का वास्तविक उद्देश्य नहीं था बल्कि कांग्रेस पर दबाव डालने की एक राजनीतिक चाल थी। अजीत जावेद ने लिखा कि मौलाना मौदूदी ने जिन्ना की नमाज़े जनाज़ा पढ़ाने से इंकार किया और पाकिस्तान के संस्थापक के मृत्यु के दिन शुकराना की नमाज़ अदा की। उनकी किताब में किए गए कई दावे ऐतिहासिक तथ्यों के खिलाफ हैं।

इनके अलावा कुछ पाकिस्तानी विद्वानों और लेखकों ने भी पाकिस्तान के संस्थापक को सेकुलर साबित करने के लिए कभी तो उनके ग्यारह अगस्त, 1947 के भाषण के एक विशेष हिस्से का हवाला देते हैं, कभी अमेरिकी लेखक स्टेनले वालपर्ट की किताब ''जिन्ना ऑफ पाकिस्तान'' में लिखी गई झूठी सच्ची बातों को मज़े लेकर बताते हैं और कभी पाकिस्तान के संस्थापक  की पत्नी रत्ती जिन्ना को पारसी करार दे डालते हैं। हालांकि स्टेनले वालपर्ट ने भी ये स्वीकार किया है कि रत्ती ने शादी से पहले इस्लाम क़ुबूल किया और उनकी मौत के बाद उन्हें मुसलमानों के कब्रिस्तान में दफनाया गया। कुछ दिन पहले कराची से प्रकाशित होने वाली एक अंग्रेजी पत्रिका ने अपने टाइटल पर पाकिस्तान के संस्थापक की एक बड़ी तस्वीर छापी, इस तस्वीर में कायदे आज़म मोहम्मद अली जिन्ना के चेहरे पर सफेद दाढ़ी लगाकर एक विस्तृत लेख में ये स्यापा किया गया कि कुछ लोग जिन्ना को मौलवी बनाने की कोशिशों में लगे हुए हैं।

ये सही है कि कुछ लोग पाकिस्तान के संस्थापक के भाषणों में से केवल शरीयत तलाश करते हैं जबकि इंसाफ, बराबरी, सहिष्णुता और लोकतंत्र को नज़रअंदाज़ कर देते हैं, लेकिन जो लोग पाकिस्तान के संस्थापक को सेकुलर साबित करने पर तुले बैठे हैं वो भी बौद्धिक नाइंसाफी कर रहे हैं। सब जानते हैं कि पाकिस्तान के संस्थापक ने अपनी राजनीति की शुरुआत कांग्रेस से किया लेकिन फिर वो राजनीतिक विकास की मंज़िलें तय करते हुए मुस्लिम लीग तक पहुंचे। वो न मौलवी थे न सेकुलर थे। सांप्रदायिकता और धार्मिक पूर्वाग्रहों से मुक्त एक आम मुसलमान थे। रत्ती जिन्ना से प्रेम विवाह किया और उनका इस्लामी नाम मरियम रखा। राजनीति और वकालत की वजह से अपनी पत्नी को ज़्यादा समय नहीं दे पाए।

मियाँ बीवी में सम्बंध गर्म ठंडे होते रहे लेकिन जब पत्नी का निधन हुआ तो कायदे आज़म मोहम्मद अली जिन्ना कब्रिस्तान में फूट फूट कर रोए। उन्होंने 1929 में गाज़ी इल्मे दीन का अदालत में बचाव किया और 1931 में भगत सिंह की निंदा करने से भी इंकार कर दिया। उन्होंने सिर्फ राजनीतिक प्रतिष्ठा और लाभ के लिए बड़े बड़े नारे लगाने से परहेज़ किया और बड़ी सावधानी से आगे बढ़ते रहे। इस्लामी कानून के अध्ययन की तरफ उन्हें अल्लामा इकबाल ने आकर्षित किया। 28 मई 1937 ई. को अल्लामा इकबाल की तरफ से कायदे आज़म को लिखा जाने वाला खत पढ़ने के लायक है जिसमें एक शायर और दार्शनिक अपने कानून-दाँ दोस्त को बता रहा है कि अगर इस्लामी कानून का पालन किया जाए तो एक मुस्लिम राज्य में हर व्यक्ति के लिए रोज़गार के अधिकार को सुरक्षित बनाया जा सकता है।

इसी खत में इस्लामी शरीयत का भी उल्लेख है। यही वो साल था जब 16 सितम्बर 1937 ई. को संयुक्त भारत की विधान सभा से कायदे आज़म ने एक शरीयत बिल पारित कराया। मुस्लिम पर्सनल लॉ के बारे में ये शरीयत बिल हाफ़िज़ मोहम्मद अब्दुल्ला ने विधानसभा में पेश किया तो सर मोहम्मद यामीन खान ने कहा कि मुसलमानों के हर समुदाय की शरीअत अलग है इसलिए शरीयत शब्द के उपयोग से ये बिल विवादास्पद हो जाएगा लेकिन कायदे आज़म ने विधानसभा के सभी शिया और सुन्नी सदस्यों को इस विधेयक पर एकजुट करके इसे पारित करा दिया। मुफ्ती रफी उस्मानी साहब ने मुफ्ती मोहम्मद शफी साहब के बारे में अपनी किताब 'हयाते मुफ्तिए आज़म' में कायदे आज़म के साथ अपने पिता और दूसरे धार्मिक विद्वानों की बैठकों का हवाला लिखा है। वो लिखते हैं एक तरफ कुछ धार्मिक विद्वान कायदे आज़म पर कुफ्र के फतवे लगा रहे थे, दूसरी तरफ मौलाना अशरफ अली थानवी, मौलाना शब्बीर अहमद उस्मानी और मुफ्ती मोहम्मद शफी ने कायदे आज़म के पक्ष में बोलना शुरू किया और दारुल उलूम देवबंद से अलग हो गये।

मुफ्ती मोहम्मद शफी साहब ने ये फतवा दे दिया कि कांग्रेस का समर्थन कुफ्र है। फिर 23 मार्च 1940 ई. के दिन केवल भारतीय मुसलमानों की आज़ादी का संकल्प पारित न हुआ बल्कि फ़िलिस्तीन के मुसलमानों के पक्ष में भी प्रस्ताव पारित हुआ। कायदे आज़म ने मुसलमानों में सांप्रदायिक मतभेद को समाप्त करने के लिए बरेलवी, शिया, अहले हदीस और देवबंदी उलमा को एक मंच पर इकट्ठा किया। बादशाही मस्जिद लाहौर के खतीब मौलाना गुलाम मुर्शिद के द्वारा इस्लामिया कॉलेज लाहौर के ग्राउंड में एक उलमा कांफ्रेंस का आयोजन कराया। मौलाना शब्बीर अहमद उस्मानी, पीर जमात अली शाह, पीर सेयाल शरीफ, सैयद मोहम्मद अली, हाफिज़ किफ़ायत हुसैन, मौलाना इब्राहिम सियालकोटी और दूसरे धार्मिक विद्वानों की एकता ने मुसलमानों में एक नया जोश पैदा किया और इस तरह 14 अगस्त 1947 को पाकिस्तान बन गया। ये भी सुन लीजिए कि कायदे आज़म और मुस्लिम ब्रदरहुड के संस्थापक शेख हसन अलबना के बीच सम्बंध स्थापित थे।

दोनों के बीच एक मुलाकात भी हुई और 14 नवंबर 1947 को शेख हसन अलबना ने पाकिस्तान की स्थापना पर कायदे आज़म को बधाई पत्र भेजा जिसके बाद मुस्लिम ब्रदरहुड के एक प्रतिनिधिमंडल ने पाकिस्तान आकर कायदे आज़म से मुलाकात की। पहली जुलाई 1948 ई. ​​को कायदे आज़म ने स्टेट बैंक के उद्घाटन समारोह में इस्लामी सिद्धांतों के अनुसार बैंकिंग की ज़रूरत पर जोर दिया लेकिन इसका मतलब ये नहीं था कि वो पाकिस्तान को एक धार्मिक देश बनाना चाहते थे। पाकिस्तान को एक इस्लामी कल्याणकारी राज्य बनाना चाहते थे जिसमें गैर मुसलमानों को वही अधिकार देना चाहते थे जो नबी करीम सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम ने मीसाक़े मदीना में यहूदियों को दिए थे। कायदे आज़म का ग्यारह अगस्त 1947 का भाषण और मीसाक़े मदीना में गैर मुसलमानों को दिए गए अधिकार की तुलना करें तो कोई फ़र्क नज़र नहीं आता इसलिए ग्यारह अगस्त के भाषण से न तो कायदे आज़म को सेकुलर साबित किया जा सकता है और न ही ईद मिलादुन्नबी सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम के अवसर पर कायदे आज़म के संदेशों और भाषणों से उन्हें मौलवी साबित किया जा सकता है। वो एक साधारण से मुसलमान थे। न सेकुलर थे न मौलवी थे।

27 मार्च, 2014 स्रोत: रोज़नामा जंग, कराची

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