ग़ुलाम रसूल देहलवी, न्यु एज इस्लाम
(अग्रेज़ी से हिंदी अनुवाद: वर्षा शर्मा)
नरेन्द्र नाथ दत्त का जन्म 1863 में कोलकाता में हुआ। संत बन जाने के बाद इन्हें स्वामी विवेकानंद का नाम दे दिया गया। वह प्रभावशाली भारतीय आध्यात्मिक गुरुओं में से एक थे जो भारतीय समाज की मूल्यवान सेवा, ईश्वर की एकता, वैश्विक भाईचारे और धार्मिक सद्भाव के जबरदस्त समर्थक थे। राम कृष्ण परमहंस का खास शिष्य होने के कारण उन्होंने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर दो आध्यात्मिक अभियान शुरू किए जिन्हें "रामकृष्ण मठ" और "रामकृष्ण मिशन" के नाम से जाना जाता है। उनके मानव कल्याण और सामाजिक सेवा के विचारों से प्रभावित होकर दोनों संगठन एक सदी से भी अधिक समय से पूरी सक्रियता से मानवता के कल्याण और सेवा भाव के विभिन्न कार्यों में व्यस्त हैं।
स्वामी जी, धार्मिक पूर्वाग्रह के सख्त विरोधी थे। उनका मानना था कि भगवान तक पहुंचने के रास्ते तंग, अवरुद्ध, बंद या किसी एक विचारधारा तक सीमित नहीं हैं। हालांकि वह हिन्दू थे, मगर उन्होंने जाति व्यवस्था पर आधारित हर वर्चस्व की कड़ी निंदा की और सामाजिक समानता और सांप्रदायिक सद्भाव का सिद्धांत अपनाया।
विवेकानंद का मानना था कि सभी धर्म अपने अंतिम लक्ष्य में एक हैं। उदाहरण के तौर पर जैसे हिंदू दर्शन के अनुसार मोक्ष के माध्यम निर्वाण ( दु:ख से मुक्ति या ब्रह्मा से मिलाप) जीवन का वास्तविक और अंतिम लक्ष्य है। बिल्कुल उसी तरह इस्लामी अध्यात्मिकता(सूफीवाद) के अनुसार मनुष्य की सबसे बड़ी सफलता वेसाले इलाही )अल्लाह के साथ अंतरंग संबंध( है।
दुर्भाग्य से, हिंदू और मुसलमान दोनों समुदायों के कुछ धार्मिक कट्टरपंथी अपने गलत उद्देश्यों को पूरा करने के लिए हिन्दुस्तान के दो सबसे बड़े धर्मों के सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक संबंधों को खराब कर रहे हैं। वह सांप्रदायिक आग को हवा देते हुए हिन्दुस्तान के आध्यात्मिक गुरुओं की छवि बिगाड़ने की हद तक चले जाते हैं। अपने इस खतरनाक उद्देश्य की प्राप्ति के लिए वह यह अफवाह भी फैला रहे हैं कि स्वामी विवेकानंद इस्लाम के जबरदस्त विरोधी थे। जबकि वास्तविकता इसके बिल्कुल विपरीत है। स्वामी जी इस्लाम के बुनियादी मूल्यों के बहुत बड़े प्रशंसक थे जिनके बारे में उनका विश्वास था कि पूरी दुनिया में इस्लाम के अस्तित्व का एकमात्र कारण उस के अंदर छुपे जबरदस्त आध्यात्मिक नैतिक मूल्य हैं। इस विषय में अपना मत व्यक्त करते हुए उन्होंने अपने एक भाषण में सवालिया अन्दाज में यह बयान दिया कि '' तुम पूछते हो कि पैगंबर मुहम्मद सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम के धर्म में क्या गुण है? अगर उन के धर्म में कोई गुण या अच्छाई नहीं होती तो यह धर्म आज तक कैसे जीवित रहता? केवल अच्छाई ही जीवित रहती है, अगर उनकी शिक्षाओं में कोई अच्छाई नहीं होती तो इस्लाम कैसे जीवित रहता? उनके धर्म में अच्छाई है।''
स्वामी विवेकानंद का उक्त बयान "स्वामी विवेकानंद की शिक्षा" के नाम से लिखी गई एक किताब में ’’मुहम्मद और इस्लाम‘‘ के एक सुंदर अध्याय का एक अंश है। यह पुस्तक ब्रिटिश लेखक क्रिस्टोफर एशरोवुड (Christopher Isherwood ) के 30 पृष्ठों के प्रकथन(परिचय) पर आधारित है। यह अध्याय अमेरिकी दर्शकों के सामने किए गए विवेकानंद के भाषण के चुनिंदा अंश का एक संग्रह है। बिना किसी टिप्पणी के मैं पाठकों के सामने उनमें से कुछ अंश को इस आशा के साथ नकल करता हूँ कि पाठक इस्लाम और पैगंबर मुहम्मद (सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम) से संबंधित स्वामी विवेकानंद के ऐतिहासिक बयान के वास्तविक महत्व को खुद बखूबी समझेंगे:
"मुहम्मद (सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम) ने अपने जीवन के द्वारा इस बात का प्रदर्शन किया कि मुसलमानों के बीच सही संतुलन होना चाहिए। पीढ़ी, जाति, रंग या लिंग का कोई सवाल ही पैदा नहीं होता। तुर्की का सुल्तान अफ्रीका के बाजार से एक हबशी खरीद सकता है, और जंजीरों में उसे जकड़ कर तुर्की ला सकता है, लेकिन वह हबशी अपनी कम क्षमता के बिना सुल्तान की बेटी से भी शादी कर सकता है। इसकी तुलना इस तथ्य के साथ करें कि हबशियों और अमेरिकी भारतीयों के साथ देश (संयुक्त राज्य अमेरिका) में कैसा व्यवहार किया जाता है। "
"जैसे ही एक व्यक्ति मुसलमान हो जाता है, इस्लाम के सभी अनुयायी किसी प्रकार का कोई भेदभाव किए बिना उसे एक भाई के रूप में स्वीकार कर लेते हैं, जो कि किसी अन्य धर्म में नहीं पाया जाता । अगर कोई अमेरिकी भारतीय मुसलमान बन जाता है तो, तुर्की के सुल्तान को उसके साथ खाना खाने में कोई आपत्ति नहीं होगी। अगर उसके पास बुद्धि है तो वह किसी तरह से वंचित नहीं होगा। इस देश में, मैंने अभी तक ऐसा कोई चर्च नहीं देखा जहां सफेद पुरुष और हबशी कंधे से कंधा मिला कर भगवान की पूजा के लिए झुक सकें।"
"यह कहना उचित नही है जो हमें बराबर बताया जाता है कि, मुसलमान इस बात पर विश्वास नहीं करते कि महिलाओं के पास भी आत्मा होती है। मैं मुसलमान नहीं हूँ, लेकिन मुझे इस्लाम का अध्ययन करने के भरपूर अवसर मिले। मुझे कुरान में एक भी आयत ऐसी नहीं मिली जो यह कहती है कि महिलाओं के पास कोई आत्मा नहीं है बल्कि वास्तव में कुरान यह सिद्ध करता है कि उनके पास आत्मा है।"
“भारत का इस्लाम किसी भी अन्य देश के इस्लाम से पूरी तरह अलग है। कोई अशांति या फूट तभी होती है, जब अन्य देशों से मुसलमान आते हैं और हिंदुस्तान में अपने धर्मों पर उनके साथ न रहने का प्रचार करते हैं जो उनके धर्म के नहीं हैं।"
"व्यावहारिक अद्वितीय (वैदिक दर्शन की एक विचारधारा) को हिंदुओं के बीच वैश्विक स्तर पर बढ़ावा देना अभी बाकी है........ इसलिए हम इस बात के जबरदस्त समर्थक हैं कि वेदांत की विचारधारा चाहे अपने आप में जितनी सुंदर और शानदार हों, वह व्यावहारिक इस्लाम की सहायता के बिना बिलकुल बेकार और बड़े पैमाने पर इंसानों के लिए निष्फल हैं ... हमारे अपने देश के लिए दो महान विचारधाराओं की प्रणाली इस्लाम और हिंदू धर्म का संगम – वेदांत का दिमाग और इस्लाम का शरीर - ही सिर्फ एक उम्मीद है ...मैं तब अपनी कल्पना में हिंदुस्तान का भविष्य पूर्ण, मतभेद और अराजकता और विवाद व संघर्ष से मुक्त, शानदार और अपराजय देखता हूँ जब वेदांत का दिमाग और इस्लाम का शरीर दोनों मिल जाएगें।"
विवेकानंद ने ऐसे मुसलमानों की निसंदेह आलोचना की जो खुद मुसलमानों या गैर मुसलमानों के खिलाफ क्रूरता और अत्याचार करते हैं , लेकिन उन्हें इस बात पर विश्वास था कि मुसलमानों की वर्तमान परिस्थिति इस्लाम के सार्वभौमिक संदेश से बिल्कुल विपरीत है। उनका मानना था कि इस्लाम ने गैर मुसलमानों के साथ बेहतर बर्ताव और सौहार्दपूर्ण संबंध की वकालत की है, लेकिन बहुत से मुसलमान इस्लाम के सार्वभौमिक अवधारणा की सही अनुभूति करने में असमर्थ हैं, और इसलिए वह अन्य धर्मों के अनुयायियों के प्रति असहिष्णु हो गए हैं। हालांकि, स्वामी जी गैर मुसलमानों के साथ उनकी बदसलूकी के मुख्य कारणों से भी परिचित थे अर्थात् इस्लाम के धार्मिक सूत्रो का गलत अर्थनिरुपण। उनका कहना था कि: ''मुसलमानों के बीच जब भी कोई विचारक पैदा हुआ, वह निश्चित रूप से उनके बीच जारी क्रूरता का विरोध करता रहा। अपने इस प्रक्रिया में उसने परमात्मा की मदद और सच के पहलू को उजागर किया। उसने अपने धर्म के साथ कभी खिलवाड़ नहीं किया। बल्कि उसने अपनी बातों के द्वारा सीधे रास्ते से सच्चाई का पर्दा उठाया।"
उपरोक्त शब्द "अपने धर्म के साथ खिलवाड़" उन अतिवादियों की ओर इशारा करते हैं जो इस्लामी पुस्तकों व सूत्रो की गलत व्याख्या करके गैर मुसलमानों और खुद मुसलमानों के प्रति अपमानजनक व्यवहार करते हैं।
गुलाम रसूल देहलवी सूफीवाद से जुड़े एक इस्लामी विद्वान हैं। उन्होंने भारत के प्रसिद्ध इस्लामी संस्था जामिया अमजदिया (मऊ, उत्तर प्रदेश) से आलिम और फ़ाज़िल की सनद हासिल की, जामिया इस्लामिया, फैजाबाद, उत्तर प्रदेश से कुरानी अरबी में विशेषज्ञता प्राप्त की और अलअज़हर इंस्टिट्यूट आँफ इस्लामिक स्टडीस, बदायूं , उत्तर प्रदेश से हदीस में प्रमाण पत्र प्राप्त किया है। इसके अतिरिक्त, उन्होंने जामिया मिलिया इस्लामिया, नई दिल्ली से अरबी (ऑनर्स) में ग्रेजुएशन किया है, और अब वहीं से धर्म के तुलनात्मक अध्यन (Comparative Religion) मे M.A कर रहे हैं।
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