फ़ाइज़ा मिर्ज़ा
20 अगस्त, 2012
(उर्दू से अनुवाद- समीउर रहमान, न्यु एज इस्लाम)
मैं खौफ़ और डर में पली बढ़ी। मेरे आसपास हर चेहरे से सिर्फ खौफ़ ही झलकता था। मुझे यक़ीन है कि मेरे जन्म पर कंधकोट में रहने वाले मेरे माँ बाप के चेहरे पर खुशी नहीं बल्कि खौफ ही छाया रहा होगा क्योंकि मैं तो एक लड़की थी जो हिंदू परिवार में पैदा हुई थी।
आख़िर क्यों मैं अपने माँ बाप की ज़िंदगी में इतना खौफ लेकर आई थी? मैं बचपन में सोचती थी कि मुझमें ऐसा क्या है जो मेरे माँ बाप को हमेशा खौफ का शिकार रखता है। लेकिन मुझे कभी समझ नहीं आया। कितनी नादान थी मैं।
जल्द ही स्कूल जाने का वक्त आ गया। स्कूल का ज़माना तो काफी आरामदेह और शांतिपूर्ण था लेकिन कभी कभी मैं खुद को दूसरों से अलग थलग महसूस करती थी। मैं एक ऐसी लड़की थी जिसे दूसरों से घुलने मिलने में कठिनाई पेश आती थी।
उनकी व्यंग भरी बातें और भेदभावपूर्ण बर्ताव ने मुझे ये यक़ीन दिलाया था कि मैं ‘उनमें’ से नहीं हूँ। मेरे साथ खाना खाने और जिस गिलास से मैं पानी पीती, उसको मुंह लगाने से इन्कार किया जाता, ऐसे व्यवहार मुझे आज भी याद हैं।
घर पर भी हालात कुछ ज़्यादा अलग न थे। मेरी माँ मुझसे मेरे स्कूल के बारे में पूछती तो थीं लेकिन वो मेरी बातों में ऐसे जवाब ढूँढ़ती थी, जो उन्हें उनके अनजाने खौफ से मुक्ति दिला सके।
और मैं चूंकि उन्हें निराश नहीं करना चाहती थी, इसलिए मैं बहुत जल्दी समझ गई कि वो कभी भी मेरी विशवासपात्र नहीं बन सकतीं।
इसी वजह से मेरा बचपन कठिनाइयों का सामना करते करते गुज़रा। फिर एक दिन मेरी माँ और उन जैसी कई हिंदू माँओं का अपनी बेटियों के लिए डर मेरे सामने ज़ाहिर हो गया।
एक दिन मैं कंधकोट की एक बड़ी बाजार में गई तो वहां मेरा अपहरण कर लिया गया। मुझे अपहरण करने वाला व्यक्ति कोई और नहीं बल्कि हमारे मंदिरों और सामान की हिफाज़त करने वाला चौकीदार था।
चूंकि मैं पहले से ही जानती थी इसलिए मैं बिना कुछ कहे उसके साथ गाड़ी में बैठ गई। लेकिन वो मुझे मेरे घर ले जाने के बजाय एक अनजान रास्ते पर ले गया।
आगे क्या होने वाला था मैं इससे अनजान थी, मैंने खौफ और अनिश्चितता की स्थिति में ज़ोर ज़ोर से चिल्लाना शुरू कर दिया। वो व्यक्ति मुझ पर ज्यादा जोर से चिल्लाने और मुझे धमकाने लगा।
मैं उस वक्त इतनी हैरान थी कि हालात की संगीनी को समझ ही नहीं पाई। जब तक उस व्यक्ति ने मुझे गाड़ी से निकलने को न कहा मैं बस सहम कर गाड़ी में बैठी रही। वो मुझे एक सुनसान घर में ले आया था।
हम उस घर में दाखिल हुए तो मुझे एक बड़ा कमरा नज़र आया जिसमें न तो कोई फर्नीचर था और न तो कोई दूसरा घरेलू सामान। बस जमीन पर एक कालीन बिछा हुआ था। मुझे उस व्यक्ति ने वहीं ज़मीन पर बिठा दिया।
मैंने पिछले कुछ हफ़्तों में ये खबरें सुनीं थीं कि कुछ हिंदू लड़कियों का अपहरण कर उनसे ज़बरदस्ती इस्लाम स्वीकार करवाया गया है। ये सोचते हुए मैं कांप उठी और मैंने भी अपनी सारी ज़िंदगी उन बेचारी हिंदू लड़कियों की तरह देखना शुरू कर दिया जिनको अपहरण कर जबरदस्ती इस्लाम स्वीकार करा दिया जाता था।
मुझे अपनी माँ का खौफ, पिता की चेतावनी, तन्हाई जो मैंने महसूस किया, वो ख्वाहिश कि मैं भी सहेलियों के एक ग्रुप का हिस्सा बनूँ, एक बहुत ही निष्ठावान दोस्त की तलाश, मेरी नज़रों में घूमने लगी।
मेरे सारे बदतरीन खदशात उस समय सच साबित हो जब एक पगड़ी पहने व्यक्ति को कमरे में दाखिल होते देखा। वो मुझे एक ऐसा धर्म सीखाने आया था जिसके बारे में मैं बचपन से सुनती तो आई थी लेकिन मुझे उसे अपनाने का कोई शौक नहीं था।
वह व्यक्ति मुझे घंटों तक इस्लाम की दावत देने की कोशिश करता रहा, लेकिन मुझे किसी भी तरह से राज़ी नहीं कर सका। फिर उसे लगा कि उसका तरीका कारगर साबित नहीं हो रहा इसलिए वो ये कहते हुए कमरे से चला गया मैं उसकी बातों की रोशनी में सच्चे धर्म पर विचार करूँ।
उसके चले जाने के बाद मेरे अंदर किसी परिवर्तन की कोई इच्छा नहीं जागी, हाँ मैं ये ज़रूर सोचने पर मजबूर हो गई कि मेरे माँ बाप ने मौका मिलने के बावजूद पाकिस्तान से पलायन क्यों नहीं किया? उन्होंने खौफ में जीना क्यों कुबूल किया? और मैंने कैसे सोच लिया कि मैं उन सारी लड़कियों से अलग हूँ जिनको अपहरण कर ज़बरदस्ती धर्म परिवर्तन करवाया गया हो?
हर गुजरते दिन के साथ मेरी परेशानी बढ़ रही थी। ये तब्लीग़ की रस्म न जाने कितने दिनों तक चलती रही लेकिन जब मुझ पर कोई असर न हुआ तो मुझे अपहरण करने वाला धमकियों पर उतर आया।
अब ये रोज़ाना का मामला बन गया, रोज़ मुझे या तो धमकियां मिलती, या फिर मुझे जन्नत की हसीन ज़िंदगी और खुदा का खौफ दिला कर इस्लाम स्वीकार करने के लिए सहमत करने की कोशिश की जाती।
लेकिन उनकी बातों ने मुझे तो सिर्फ यही सोचने पर मजबूर किया कि हम सब एक ही खुदा की इबादत नहीं करते?
वो खुदा जो हर चीज में ज़ाहिर है, चाहे वो प्रकृति हो, रंग या फिर खुशियां और प्यार क्यों न हो?
आखिर खुदा मुझे हिंदू होने पर सज़ा क्यों देगा?
आखिरकार मुझे सहमत करने के प्रयास और मेरे परिवार को नुक्सान पहुँचाने की धमकी ने काम दिखाया और मैंने अपने घुटने टेक दिए।
मेरी सहमति के बाद एक छोटे से समारोह का आयोजन किया गया जिसमें मुझे इस्लाम स्वीकार करवाया गया। उसके बाद मेरी एक ऐसे आदमी से शादी करा दी गई जो हमेशा एक मसीहा समझा जाएगा, जिसने मुझे पाप और निन्दा की अनजान राह पर चलने से बचा लिया।
जब समारोह खत्म हुआ तो मुझे ख़ुशियों भरी, खुशहाल ज़िंदगी की दुआएं देने के बजाय फौरन एक स्थानीय अदालत में ले जाया गया जहां एक मुसलमान मजिस्ट्रेट ने मेरे धर्म परिवर्तन और मेरी शादी को कानूनी घोषित कर दिया।
मेरे धर्म परिवर्तन और एक मुसलमान से शादी की खबर जंगल में आग की तरह तेजी से पूरे शहर में फैल गई।
मुझे उस पल का खौफ था जब मेरी मुलाकात मेरे माँ बाप से हो गई। मैं कभी भी अपने माँ बाप के चेहरे पर दर्द नहीं देखना चाहती थी।
लेकिन अब मैं खुद ही अपने माँ बाप के लिए दुख की वजह बन गई थी। मेरी माँ के चेहरे की सिर्फ एक ही झलक ने मुझे अपनी मौत का ख्वाहिशमंद बना दिया।
मैं अपनी माँ से कुछ देर बात करना चाहती थी। मैं उन्हें बताना चाहती थी कि मैं उनसे बहुत प्यार करती हूँ और सिर्फ उनकी सुरक्षा के मद्देनजर मैंने अपना धर्म बदला था।
मैं अपने पिता से ये कहना चाहती थी कि वो हर हाल में मेरी छोटी बहनों की हिफाज़त करें। मैं चाहती थी कि मेरे भाई जितना जल्दी संभव हो इस देश को छोड़ कर चले जाएं।
मैं तो और बहुत कुछ कहना चाहती थी लेकिन मेरे घरवालों की तकलीफदेह खामोशी और दर्द देख कर मैं यही सोचती रही कि काश मैं लड़की न होती, मैं पाकिस्तान में न पैदा होती।
काश मुझ पर ज़बरदस्ती कोई धर्म थोपने के बजाय मुझे अपना धर्म अपनाने का अधिकार हासिल होता। काश मैं सबको ये समझा सकती कि हिंदुओं और मुसलमानों का खुदा असल में एक जैसा ही है। काश मैं सबको एक ऐसी पहचान दे सकती जो हमारा हक़ है।
ये सारे चेहरे जो कभी मेरे जाने पहचाने थे, अब उन्हें देख कर बस यही सोचती हूँ कि मैं कौन हूँ?
मैं हूँ तो एक, लेकिन सबका दर्द मेरा भी दर्द बन चुका है। मैं रचना कुमारी, रनकल कुमारी, मनीषा कुमारी हूँ। मैं वो सारी हिंदू लड़कियां हूँ जिनको पाकिस्तान में जबरदस्ती इस्लाम स्वीकार करवाया जाएगा।
मैं उनके परिवारों का खौफ और उनकी तकलीफ हूँ। मैं उन सारी लड़कियों की तकलीफ हूँ जो अपने ऊपर अन्याय के कारण अंदर ही अंदर मरती रहती हैं।
मैं एक अल्पसंख्यक हूँ जो एक असहिष्णु समाज में रहती है।
20 अगस्त, 2012 सधन्यवाद: डॉन, पाकिस्तान
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