डॉक्टर मोहम्मद इक्तेदार हुसैन फारूकी (अलीग)
16 अक्तूबर, 2012
(उर्दू से अनुवाद- समीउर रहमान, न्यु एज इस्लाम)
अठ्ठारहवी शताब्दी के आखीर से लेकर उन्नीसवीं सदी के अंत का दौर भारतीय इतिहास का बदतरीन और सबसे अंधकारमय दौर कहा जा सकता है। क्योंकि इस दौर में सारा भारतीय समाज गजब की मायूसी का शिकार था। अजब अव्यवस्था का आलम था। आज़ादी के मतवालों के हौसले पस्त हो चुके थे। ब्रिटिश साम्राज्य की पकड़ मजबूत से और मज़बूत होती चली जा रही थी। जनता पर अत्याचार और ज़्यादती की घटनाएं आम हो गईं थीं। सारा समाज बिखरता दिखाई पड़ता था। गुलामी, गरीबी, नाकामी, निराशा और नामुरादी जनता का भाग्य बन गया था। समाज का एक बड़ा वर्ग इल्म से अंजान था और पुराने मूल्यों और रूढ़ियों में अपने चरम पर था। सौभाग्य से इस नाजुक दौर में दो महत्वपूर्ण व्यक्तित्व भारतीय समाज में उभरे जिन्होंने सोते हुए और लापरवाह हिंदुओं और मुसलमानों को झिंझोड़ कर रख दिया। इसमें एक हस्ती थी राजा राम मोहन राय और दूसरी सर सैय्यद अहमद खान का व्यक्तित्व था। राजा राम मोहन राय ने 1772 ई. में बंगाल के एक ब्राह्मण परिवार में जन्म लिया। उन्होंने कम उम्र में ये महसूस किया कि हिंदुस्तान की समस्या शिक्षा की कमी और वैज्ञानिक रवैय्ये का अभाव है। उन्हें पूरा विश्वास हो गया कि अगर लोग प्राचीन रस्मो रिवाज और पुरानी शिक्षा को छोड़कर नई वैज्ञानिक शिक्षा की ओर आकर्षित हों तो वाकई एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में जीवित रहने का अधिकार माँग सकते हैं। इसलिए उन्होंने हिंदुओं में अंग्रेजी और वैज्ञानिक शिक्षा की वकालत की। शुरू में उनका बहुत विरोध किया गया और आरोप लगाया गया कि वो भारतीय मूल्यों को नष्ट करना चाहते हैं। लेकिन ये विरोध अधिक दिनों तक टिक नहीं सके और वो अपने कुछ साथियों की मदद से 1816 में कलकत्ता में एक हिंदू कॉलेज स्थापित करने में सफल हो गए जिसमें अंग्रेजी और विज्ञान की शिक्षा दी जाने लगी। आम हिन्दू नई शिक्षा की ओर आकर्षित होने लगा। राजा राम मोहन राय का मिशन सफलता के दौर में आया ही था कि सर सैय्यद का बहु आयामी व्यक्तित्व भी भारतीय मुस्लिम समाज में उभर कर सामने आया। उन्होंने अपनी आंखों से मुसलमानों की तबाही, पिछड़ापन और बर्बादी देखी थी। श्री मोहन राय की तरह उन्हें भी एहसास हुआ कि मुसलमानों इस पिछड़ेपन से निकालने का एक ही तरीका है और वो ये कि उन्हें नए वैज्ञानिक रुझान से अवगत कराया जाये और अंग्रेजी शिक्षा की ओर आकर्षित किया जाये। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए उन्होंने जो कुछ किया वो आज भारतीय इतिहास का एक सुनहरा अध्याय है। सर सैय्यद की वैज्ञानिक सोच का अंदाज़ और भारतीय मुसलमानों के कार्यों और विचारों पर उनके प्रभाव का मूल्यांकन करना आज समय की महत्वपूर्ण आवश्यकता है।
भारत में हिंदुओं की तुलना में मुसलमानों में समकालीन शिक्षा की कमी की एक वजह ये भी हो सकती है कि राजा राम मोहन राय का मिशन सर सैय्यद के मिशन से पचास साल पहले शुरू किया गया था। सर सैय्यद अहमद खान ने एक अक्तूबर 1817 को दिल्ली के एक प्रतिष्ठित परिवार में जन्म लिया। ये वो दौर था जब भारतीय मुसलमानों की स्थिति दयनीय थी। एक ओर वो निराशा का शिकार थे तो दूसरी ओर नए अध्ययन से बिल्कुल अपरिचित थे। यही नहीं बल्कि मानसिक पिछड़ेपन का ये हाल था कि वो नई चिंतन और नए वैज्ञानिक विचारों और आविष्कार और खोज को अधार्मिक और शैतानी काम मानने लगे थे। अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त करना उनके लिए एक ऐसा गुनाह था जो माफ नहीं किया जा सकता था। 1835 में जब लार्ड मैकाले योजना के तहत ये तय पाया कि भारतीयों को यूरोपीय विज्ञान और यूरोपीय भाषा की शिक्षा देने की व्यवस्था की जाए तो मुसलमानों में इसका कड़ा विरोध किया गया और कलकत्ता में आठ हजार विद्वानों और अमीरों के दस्तखत से एर दरख्वास्त सरकार को भेज़ी गयी कि सरकार का ये कदम उनके धार्मिक विश्वास के खिलाफ है। इस दरख्वास्त में अंग्रेजी शिक्षा को केवल अनावश्यक ही नहीं बल्कि सामाजिक और मानसिक रूप से हानिकारक बताया गया।
सर सैय्यद ने जब होश संभाला तो एक तरफ मुसलमानों की आर्थिक बदहाली देखी तो दूसरी ओर उनका नए ज्ञान के लिए नकारात्मक और अतार्किक व्यवहार पाया। उन्हें ये विश्वास हो गया कि मुसलमानों को भारतीय समाज में एक प्रतिष्ठित और सम्मानजनक स्थान दिलाने का एक ही रास्ता है और वो ये कि उन्हें नई वैज्ञानिक दुनिया से परिचित कराया जाये। नए ज्ञान से परिचित कराया जाए। कितनी अजीब बात है कि जिस कौम के लिए उसके पैगम्बर की ये तालीम और नसीहत मौजूद थी कि इल्म हासिल करो चाहे इसके लिए चीन जाना पड़े, वो क़ौम चीन तो क्या अपने देश में नई वैज्ञानिक ज्ञान से मुंह चुराती थी। बहरहाल सर सैय्यद ने मुसलमानों में वैज्ञानिक सोच पैदा करने और वैज्ञानिक ज्ञान को सार्वजनिक करने का बीड़ा उठा लिया और हदीसे रसूल का पालन करते हुए ज्ञान प्राप्त करने और नए ज्ञान के कारनामों की जानकारी प्राप्त करने के लिए इंग्लैंड की यात्रा पर गये और वो भी अपना घर बार गिरवी रख कर। कई महीने तक वहाँ शिक्षण संस्थानों और लाइब्रेरियों के विवरण जमा किये। ऑक्सफोर्ड और कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय का दौरा किया। उद्योगों के क्षेत्र में हुई तरक्कियों का जायज़ा लिया और नई वैज्ञानिक शिक्षा के विभिन्न पहलुओं पर विशेषज्ञों से बातचीत की। इस दौरान इंग्लैंड में लोगों का रहन सहन और वैज्ञानिक शिक्षा की योग्यता देखकर बहुत प्रभावित हुए। वहीं से लिखे गए अपने पत्र में लिखा कि काश मेरी क़ौम के बच्चे ऐसे ही ज्ञान प्राप्त करते और मुल्क को वही सब कुछ देते जो यहाँ लोगों को उपलब्ध है। एक दूसरे पत्र में लिखा कि'' जो कौमें ज्ञान प्राप्त करने में पीछे रह जाती हैं अपमान सहना उनका भाग्य बन जाता है।'' इंग्लैंड से वापस आकर सर सैय्यद ने अपने विचारों को प्रकठट करने के लिए एक पत्रिका 'तहज़ीबुल इख्लाक़' निकालना शुरु किया और अनुसंधान और शिक्षा कार्य में व्यस्त हो गए। विभिन्न योजनाएं बनाईं जिनका लक्ष्य नए वैज्ञानिक ज्ञान को युवाओं तक पहुंचाना था। यूरोपीय ज्ञान के महत्व को जताने के लिए जरूरी था कि कुछ महत्वपूर्ण ज्ञान की और ऐतिहासिक पुस्तकों का अंग्रेजी से उर्दू में अनुवाद कर उन्हें प्रकाशित किया जाये। इस उद्देश्य के लिए सर सैय्यद ने एक लेख 'इल्तेमास बखिदमत साकिनान हिंदुस्तान दरबाब तरक्किये तालीम अहले हिंद' के शीर्षक से प्रकाशित किया जिसमें ये प्रस्ताव रखा कि वैज्ञानिक ज्ञान को सार्वजनिक करने के लिए एक संगठन की स्थापना किया जाये जिसका उद्देश्य उर्दू में वैज्ञानिक साहित्य प्रकाशित करना हो। लिहाज़ा 1863 में साइंटिफिक सोसाइटी के नाम से एक संगठन की स्थापना हुई, सर सैय्यद उसके मानद सचिव नियुक्त हुए। उत्तर भारत में ये सोसाइटी अपने प्रकार की पहली संस्था थी जिसने पूरे देश में विज्ञान के महत्व का एहसास लोगों को दिलाया। इस सोसाइटी के तहत कुछ वर्षों में कई उपयोगी किताबें उर्दू में अनुवाद होकर प्रकाशित हुई जिससे कौम पश्चिमी शिक्षा से परिचित हुई और इन ज्ञानों के बारे में आम लोगों के मन में जो गलत नज़रिया थे वो बड़ी हद तक दूर हो गए।
सोसाइटी के तहत एक साप्ताहिक गजट 1866 से प्रकाशित होना शुरू हुआ। इस गजट में अंग्रेजी और उर्दू दोनों भाषाओं में कालम लिखे जाते। इन कालमों में जनता को नुकसानदेह दुर्भावनाओं से दूर रहने की अपीलें प्रकाशित होती और मुसलमानों को नई दुनिया की चुनौती का सामना करने की हिदायत दी जाती। साइंटिफिक सोसाइटी की स्थापना के तुरंत बाद ही सर सैय्यद का विरोध का एक संगठित अभियान पूरे देश में शुरू किया गया। अखबारों और पत्रिकाओं में उनके खिलाफ लेख प्रकाशित होने लगे जिनमें उन्हें मुर्तद, मुलहिद, कौम की कमी तलाश करने वाला, मुसलमान बाजी, इस्लाम का दुश्मन और ज़नदीक जैसे नामों से नवाज़ा जाने लगा। सर सैय्यद इन आरोपों से बिल्कुल भी निराश न हुए बल्कि इन विरोधों के बाद अपने इरादों में कुछ ज्यादा ही ताकत महसूस करने लगे। और कॉलेज की स्थापना की योजना को अमली जामा पहनाने की तैयारी में व्यस्त हो गए। अकबर इलाहाबादी ये कहने पर मजबूर हो गए।
वो भला किसकी बात माने हैं भाई, सैयद तो कुछ दीवाने हैं, सर सैय्यद मुसलमानों को साइंस से परिचित कराने की भावना और उन्हें प्रतिष्ठित स्थान दिलाने की प्रतिबद्धता जुनूनी स्थिति को पहुँच चुका था।
अंततः उन्होंने 1875 में एक मदरसा का आधार अलीगढ़ में रखी। मदरसा के रूप में नई शिक्षा की यह किरण कई अंधेरे पर छा गई। लेकिन भला हो उन लोगों का जिन्होंने सर सैय्यद के अमल को एक दीन दुश्मन साजिश करार देते हुए हुक्मनामे (फतावा) जारी किए गए और कहा कि ... इस मदरसे को ध्वस्त किया जाए और इसके बनाने वाले और उनकी मदद करने वालों को इस्लाम से बाहर समझा जाए। ये भी कहा गया कि ... सर सैय्यद जैसे व्यक्ति द्वारा स्थापित मदरसा का समर्थन जायज़ नहीं ... सर सैय्यद पर हुक्मनामों का बिल्कुल भी असर न हुआ और आखिरकार ये मदरसा 1877 में कॉलेज बना जिसका मुख्य उद्देश्य मुसलमानों में वैज्ञानिक शिक्षा को बढ़ावा देना था लेकिन इसके दरवाजे सारे भारतीयों के लिए खुले थे। सर सैय्यद की नज़रिये से हिंदुस्तान जैसी दुल्हन का सौंदर्य उसी समय क़ायम रह सकता था जबकि उसकी दोनों आंखें यानी हिंदू और मुसलमान, नूर (प्रकाश) से भरी हों। अलीगढ़ का ये कॉलेज मौलाना आज़ाद के नेतृत्व में भारतीय मुसलमानों के प्रयासों से 1920 में विश्वविद्यालय बना और सारी दुनिया में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के नाम से मशहूर हुआ। आज भारतीय समाज में इसकी अहमियत को सब स्वीकार करते हैं। सर सैय्यद अहमद खान ने आरोपों से निराश हो कर अगर अपने मिशन को छोड़ दिया होता और अलीगढ़ कॉलेज की स्थापना नहीं की होती तो आज इस देश के मुसलमान कितने घाटे में रहते। हम वैज्ञानिक ज्ञान से कितनी दूर होते और 'अल्लमल इंसाना मालम यालम' के अर्थ से कितना अनजान होते।
16 अक्तूबर, 2012 सधन्यवाद: रोज़नामा जदीद मेल, नई दिल्ली
URL for Urdu article: https://newageislam.com/urdu-section/sir-syed-ahmad-khan’s-scientific/d/9015
URL for this article: https://newageislam.com/hindi-section/sir-syed-ahmad-khan’s-scientific/d/9025