डॉ. ग़ुलाम ज़रक़ानी
5 जुलाई, 2014
1990 में कुवैत पर आक्रामक हमले के बाद से मुस्लिम दुनिया के हालात बद से बदतर होते चले जा रहे हैं। सबसे पहले सीनियर जॉर्ज बुश के नेतृत्व में सद्दाम हुसैन को सबक सिखाने के बहाने इराक पर सैन्य हमला हुआ और कुवैत को आज़ाद करा लिया गया। फिर दस बरसों के बाद इराक के पास बड़े पैमाने पर रासायनिक हथियारों के सनक भरे आरोपों की आड़ में दोबारा हमला किया गया और सद्दाम हुसैन के दौर का पूरी तरह खात्मा हो गया।
इसी दौरान नाइन इलेवन की घटना सामने आई और अफगानिस्तान पर हमला कर के तालिबान सरकार का उन्मूलन कर दिया गया और इधर कुछ बरसों से लीबिया, ट्यूनीशिया, मिस्र, यमन और सीरिया में बड़े पैमाने पर हत्या और खून खराबे की निंदनीय और दुखद घटनाओं से मानवता शर्मसार हो रही है। इसी सिलसिले की एक और कड़ी दौलते इस्लामिया ईराक़ व शाम (दाइश) है। ये आंदोलन अलकायदा के कोख से पैदा हुआ, सीरिया के रेगिस्तान में पला बढ़ा और अब सीरिया के सीमावर्ती क्षेत्र और इराक के बड़े हिस्से पर काबिज़ होकर जवानी के मज़े ले रहा है। कहते हैं कि सद्दाम हुसैन के शासनकाल के अनुभवी सैनिक बड़ी संख्या में इस आंदोलन से जुड़े हुए हैं। पाठकों को ये याद होगा कि जब सद्दाम हुसान की हार हुई और वो बगदाद में भूमिगत हो गए, तो सहयोगी देशों ने इराक की फौज को भंग कर दिया। नतीजा ये हुआ कि बड़े पैमाने पर अनुभवी सैनिक बेरोज़गार हो गए, न उन्हें सरकारी पेंशन दी गयी और न ही उनकी समस्याओं को हल करने की कोई गंभीर कोशिश की गई। ज़ाहिर है मौजूदा कठपुतली सरकार से उन्हें बहुत तकलीफ पहुँची, जिसकी प्रतिक्रिया में वो सब दाइश के साथ शामिल हो गए हैं।
यहां ये उल्लेखनीय है कि सद्दाम हुसैन की बाथ पार्टी ने प्रचलित साम्यवाद की बदली हुई शक्ल थी, इसलिए ये यक़ीन के साथ कहा जा सकता है कि उनके ज़ेरे साया पलने वाले सैनिक बहुत धार्मिक नहीं हो सकते हैं। इसलिए ये बात किसी भी शक से परे चला जाता है कि दाइश के नेतृत्व में लड़ने वाले लड़ाकों में सब के सब दाइश के कथित धार्मिक विचार से सुसंगत नहीं हैं, इसलिए वो केवल सत्ताधारी लोगों से बदला लेने के लिए युद्ध में शामिल हो गए हैं। यहाँ पहुंचकर ये कहने में कोई संशय नहीं कि अगर मान लिया जाए कि दाइश पूरे इराक पर काबिज़ हो भी जाए तो बहुत जल्दी आपस में उनके बीच गंभीर प्रकृति के मतभेद शुरू हो जाएगें, जो हत्या और खून- खराबा, बर्बरता और निर्दयता और अत्याचार व हिंसा के एक नए काले अध्याय की शुरुआत के रूप में प्रकट होगा। शायद यही कारण है कि अमेरिका के विदेश मंत्री जॉन केरी ने अपने एक हालिया बयान में ये स्वीकार किया है कि इराक के खिलाफ युद्ध बहुत बड़ी गलती थी। कोई शक नहीं कि इराक युद्ध से मुसलमानों को अपूर्णीय नुकसान पहुंचे हैं, हालांकि अमेरिका को भी कम नुकसान नहीं उठाना पड़ा है। सैकड़ों सैनिक मारे गए, हजारों विकलांग हो गए और न जाने कितने मानसिक रोग से ग्रस्त होकर बेबस हो चुके हैं। अब जबकि एक बार इराक के आंतरिक मामले जटिल होते जा रहे हैं, तो सभी ज़बानी हमदर्दी, विरोध और अपीलों के अलावा राष्ट्रपति बराक ओबामा इराकी सरकार की मदद के लिए अपने सैनिक भेजने की हिम्मत नहीं कर पा रहे हैं।
ये तो रही बात एक पहलू से, अब ज़रा एक और पहलू से भी निगाह डालिए। दाइश और सरकार के बीच होने वाली लड़ाई को आम तौर पर सुन्नी और शिया के बीच मतभेद बताया जा रहा है, जो बिल्कुल सही नहीं है। पहले तो ये कि आतंकवादियों का कोई धर्म नहीं होता है। वो अपनी छिपी हुई महत्वाकांक्षाओं तक पहुँचने के लिए 'धार्मिक लबादा' पहन लेते हैं, ताकि आम मुसलमानों का समर्थन हासिल कर सकें। वो अपनी राह में आने वाली हर रुकावट को बेदर्दी से कुचलते हैं और शरीयते इस्लामी के बनाए हुए नियमों और सिद्धांतों की बिल्कुल परवाह नहीं करते। यही कारण है कि बेगुनाहों का क़त्ल व खून खराबा, नन्हें बच्चों के साथ ज़्यादती और महिलाओं के साथ बर्बरता के सैकड़ों उदाहरण आप इंटरनेट पर देख सकते हैं।
मैंने खुद देखा कि कुछ नक़ाबपोश औरते एक वीराने में लाई जाती हैं और उन्हें खड़ा कर के क़रीब से गोलियां मारी जाती हैं, फिर उन्हें पहले से तैयार किये गये गड्ढे में धकेल कर दफ़न कर दिया जाता है। मुझे बताया जाए कि इस्लामी शरीयत की किस धारा के तहत क़ब्ज़े में आई हुई महिलाओं को बेदर्दी के साथ मारने का हुक्म है? इसी तरह बाज़ार, मस्जिदों और सार्वजनिक स्थानों पर आत्मघाती हमलों के नतीजे में बड़े पैमाने पर बेगुनाहों के क़त्ले आम के समर्थन के लिए क़ुरान की कौन सी आयत और हदीसे नबवी है? इसलिए इसे किसी रूप में इस्लामी जिहाद और धार्मिक युद्ध की श्रेणी में शामिल नहीं किया जा सकता है। और जब इसका कोई सम्बंध धर्म से नहीं है, तो उसे शिया और सुन्नी मतभेद क्यों कहा जा सकता है कि ये शब्दावली भी धार्मिक पृष्ठभूमि को ही प्रतिबिंबित करता है। अच्छा फिर ये सम्भव है कि दाइश के लड़ाकों में शिया मसलक से ताल्लुक रखने वाला कोई न हो, इसलिए उसे शिया और सुन्नी मतभेद से जोड़ा जा रहा है।
मान लें ये बात सही हो, फिर भी भारत- पाक उपमहाद्वीप में इसे शिया और सुन्नी के बीच संघर्ष के नाम से याद नहीं किया जाना चाहिए। ये इसलिए कि भारत- पाक में सुन्नी से एक विशेष वर्ग का अर्थ लिया जाता है, जबकि दाइश के लड़ाकों के लिए वहाबी और गैर अनुयायी जैसी शब्दावली का प्रयोग किया जाता है। इस नाज़ुक वैचारिक अंतर की मांग ये है कि अरब दुनिया में न सही, लेकिन भारत पाकिस्तान के अखबारों और पत्रिकाओं में इराक के इस युद्ध को शिया और सुन्नी के बीच युद्ध की संज्ञा न दी जाए, वरना बेवजह भारत और पाकिस्तान का माहौल खराब होगा, जिसके बहुत ही भयानक परिणाम सामने आ सकते हैं। ये भी कहा जा रहा है कि नूरी अलमालिकी ने इराक के सभी वर्गों को साथ ले कर चलने की कोई गंभीर कोशिश नहीं की, जिसकी वजह से दाइश के लड़ाकों को स्थानीय लोगों का ज़बरदस्त समर्थन मिल रहा है। ज़ाहिर है कि जब लड़ने वालों के साथ स्थानीय लोग शामिल हो जाएं, तो ये समस्या कुछ सशस्त्र संघर्ष करने वालों से सम्बंधित ही नहीं रहती, बल्कि उसका दायरा बहुत व्यापक हो जाता है और ऐसी हालात में स्थिति को सामान्य करने के लिए ताकत कभी भी उपयोगी नहीं हो सकती है। हो सकता है कि सरकारी नेतृत्व में लड़ने वाली सेना अस्थायी तौर पर दाइश के लड़ाकों पर जीत हासिल कर लें, लेकिन वो अफगानिस्तान के तालिबान के नक्शेकदम पर चलते हुए अदृश्य संघर्ष शुरू कर देंगे और इराक एक बार फिर आपसी ख़त्ल व खून खराबे की दुखद घटनाओं की चपेट में आ जाएगा। इसलिए बेहतर है कि ईराक़ सरकार शक्ति के उपयोग से किसी हद तक बचे और अतीत की गलतियों से सीख लेते हुए इराक के सभी वर्गों का दिल जीतने की कोशिश करे। हो सकता है कि नूरी अलमालिकी की निस्वार्थ करम फ़रमाई से वो वर्ग जो क्रोध व्यक्त करने के लिए दाइश के साथ हो गया है, वो देश की बेहतरी के लिए फिर से वापस आ जाएं।
साहबों! मेरे विचार में बेहतर ये है कि दाइश के द्वारा छेड़े गए सशस्त्र संघर्ष को इराक की आंतरिक समस्या कहकर समस्या को सीमित रखा जाए और इसे शिया सुन्नी मतभेद के नाम से न जोड़ा जाए, ताकि मुसलमानों की धार्मिक भावनाएं काफी हद तक नियंत्रण में रहें और युद्ध का क्षेत्र विस्तृत न होने पाए। इसी के साथ उम्मते इस्लामिया विशेष रूप से अरब लीग आपस में बातचीत के द्वारा कोई उचित हल निकालने की कोशिश करे। इस तरह घर का मसला घर वालों के सहयोग से हल हो जाएगा और दूसरों को हस्तक्षेप करने का कोई मौका नहीं मिलेगा। याद रहे कि जब घर वाले लड़ते हैं तभी दूसरे लोग समस्या सुलझाने के बहाने घर में दाखिल होने की कोशिश करते हैं, लेकिन अगर घर के दो लोगों के बीच होने वाले मतभेदों को परिवार ही खामोशी के साथ आपस में बातचीत के द्वारा हल कर लें तो तो दूसरे क्यों हस्तक्षेप कर सकेंगे?
जमशेदपुर (टाटा नगर), भारत के रहने वाले डा. ग़ुलाम ज़रक़ानी आलिम और फ़ाज़िल (शास्त्रीय इस्लामी विद्वान) हैं। वर्तमान में वो वर्ल्ड लैंग्वेज डिपार्टमेंट, लोन स्टार कॉलेज, ह्यूस्टन, अमेरिका में प्रोफेसर हैं।
5 जुलाई, 2014 स्रोतः इंक़लाब, नई दिल्ली
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