बासिल हेजाज़ी, न्यु एज इस्लाम
20 मार्च, 2014
इसी महीने की नौ तारीख को फ्रांस के रेडियो की अरबी सेवा ने इराक के प्रधानमंत्री नूरी अलमालिकी का एक विशेष इंटरव्यु प्रसारित किया जिसमें नूरी अलमालिकी ने निम्नलिखित बातों पर खूब ज़ोर दिया:
1- सांप्रदायिक और राजनीतिक कारणों से कतर और सऊदी अरब ने इराक के खिलाफ युद्ध छेड़ रखा है, इसलिए ये दोनों देश इराक के हाल के संकट के लिए ज़िम्मेदार हैं!
2- ये दोनों देश आतंकवादी संगठनों की आर्थिक, राजनीतिक और मीडिया के स्तर पर भरपूर मदद करते हैं।
3- ये दोनों देश आतंकवादियों को पनाह देते हैं, जेहादियों को तैयार और भर्ती करते हैं और उन्हें हथियार उपलब्ध कराते हैं।
ये नूरी अलमालिकी के इंटरव्यु के महत्वपूर्ण पहलू थे बल्कि अगर इन पहलुओं को उनके इंटरव्यु का सार कहा जाए तो ग़लत नहीं होगा, और मुझे विश्वास है कि जब तक वो सत्ता पर विराजमान रहेंगे यही राग अलापते रहेंगे। अगर देखा जाए तो उन्होंने वैसे भी कोई ऐसी नई बात नहीं की। ये बात सारे इराकी जानते हैं चाहे वो नूरी अलमालिकी के समर्थक हों या विरोधी, या चाहे वो इन देशों के हस्तक्षेप के विरोधी हों या समर्थक या मध्य पूर्व देशों की राजनीति के आलोचक हों। सभी को ये बात अच्छी तरह पता है।
इसमें कोई शक नहीं कि कतर और सऊदी अरब दैनिक आधार पर इराक में हस्तक्षेप करते हैं और इराक में सांप्रदायिक शिया व्यवस्था के विरोध में वो इराक के बेगुनाह नागरिकों को निशाना बनाते या बनवाते हैं। यहां तक बात सही है, लेकिन ये बिल्कुल सही नहीं है कि ये देश पिछले दस साल से इराक में जारी राजनीतिक कलह के ज़िम्मेदार हैं, बल्कि इसका ज़िम्मेदार इराक की वर्तमान सांप्रदायिक राजनीतिक व्यवस्था और उसकी धार्मिक नीतियां हैं। इसके अलावा इराक में मौजूद धार्मिक राजनीतिक समूह जिनमें शिया और सुन्नी दोनों शामिल हैं, इस राजनीतिक उथल पुथल के ज़िम्मेदार हैं। अमेरिकी समर्थन और शक्तिशाली कुर्द गठबंधन जो अब कमज़ोर पड़ रहा है, की मदद से जो ये सांप्रदायिक व्यवस्था का एक अजीब सा ढांचा खड़ा हुआ है उसने इराकी नागरिकों के आज़ाद व समान नागरिक सिद्धांतों से इंकार कर दिया है। और लोग केवल इराकी बनने के बजाय अपने अपने समूहों में बँट कर रह गए हैं यानी देशभक्ति की जगह सांप्रदायिक ने ले ली है और लोगों को बाँट दिया है जो इराक जैसे विविधता वाले समाज में ज़हरीले हत्यारे की हैसियत रखता है।
जब हम कहते हैं कि सऊदी अरब और कतर ने इस्लाम का चेहरा ही विकृत करके रख दिया है और मध्य पूर्व को आग लगा रखी है तो हम वास्तव में कोई नई बात नहीं कहते, लेकिन सैद्धांतिक रूप से ये देश इराक की समस्याओं के लिए ज़िम्मेदार नहीं हैं। हां वो समस्या को बढ़ाने में ज़रूर भूमिका निभा रहे हैं लेकिन समस्या की जड़ें इराक के अंदर हैं बाहर नहीं। समस्या की जड़ सांप्रदायिक व्यवस्था और उसकी सांप्रदायिक नीतियां हैं जिसने इराकी समाज को बाँट कर रख दिया है। जब तक सांप्रदायिकता की ये समस्या हल नहीं होती तब तक इराक स्वतंत्र नहीं हो सकता। इस वक्त इराक का चेहरा विकृत है, देश में कानून नाम की कोई चीज़ नहीं, सरकार ही देश की तबाही के लिए ज़िम्मेदार है। ये सरकार बुरी तरह नागरिकों की सुरक्षा करने में नाकाम हो गयी है, बल्कि अब तो वो अपनी सुरक्षा तक नहीं कर पा रही। अगर "अलहई अलअख़ज़र" न होता जिसमें उच्च वर्ग देशी व विदेश आतंकवादी गतिविधियों से बच बचाकर घूमता फिरता है तो "इराकी सरकार" नाम की कोई चीज़ न होती।
किसी भी देश में बाहरी आतंकवाद तब तक पनप नहीं सकता जब तक कि उसे अंदर से पनाह न मिले। जब तक अंदर की कोई ताक़त उनकी करतूतों पर पर्दा न डाले, और ऐसी शक्तियां केवल ऐसे देश में ही पनप सकती हैं जहां सरकार सांप्रदायिकता में विश्वास रखती हो। ऐसे देशों का हश्र बिल्कुल वैसा ही होता है जैसा कि इस समय इराक का है। आए दिन आतंकवादी वारदातों में दर्जनों लोग मरते और घायल होते हैं। क्या ऐसी सरकार जो अपने नागरिकों को तकफीरियों (दूसरों को काफिर कहने वाले) के हमलों से न बचा सकती हो उसे सत्ता में रहने का ज़रा भी अधिकार है? अगर मानव चेतना जाग रही होती तो ऐसे लोग किसी भी स्थिति में सत्ता तक नहीं पहुंच पाते!
सऊदी अरब और कतर इराक में अपना गंदा खेल खेलने में इसलिए सफल हुए क्योंकि इराक में सांप्रदायिक आधार पर स्थापित व्यवस्था ने उन्हें ये घिनौना खेल खेलने का मौका उपलब्ध किया। ईरान के साथ इस सरकार के संदिग्ध गठबंधन ने भी जलते पर तेल का काम किया, जिसने आंतरिक मतभेदों को और हवा दी और असाएबुल हक़ और मनज़मा बदर जैसे शिया आतंकवादी संगठनों की खूब मदद की। मनज़मा बदर के प्रमुख हादी अलआमरी ने लेबनानी जहाज़ के साथ जो कुछ किया वो ऐसे आतंकवादी समूहों की पोल खोलने के लिए काफी है, जिन्होंने अब इराक में सत्ता संभाल रखी है!
ऐसे में नूरी अलमालिकी सिर्फ सीधे साधे शियों को ही बेवकूफ बना सकते हैं, लेकिन जो लोग समस्याओं की जड़ को समझते हैं उन्हें ये कहकर मूर्ख नहीं बनाया जा सकता है कि समस्या की जड़ देश के बाहर है। ये वो समस्या है कि जो उनकी और बाकी राजनीतिक इस्लाम की पार्टियों ने अपने देश में बनाई है। रहे बाहरी तत्वों तो वो इससे न सिर्फ फायदा उठा रहे हैं, बल्कि यथास्थिति बनाए रखने के लिए सक्रिय हैं। नूरी अलमालिकी भी यही चाहते हैं कि समस्या बरकरार रहे और निर्दोष शिया मरते रहें क्योंकि ये लाशें उन्हें अगले चुनाव में शिया वोट दिलवाएंगी। उन्हें लगता है कि शियों को इराक के धार्मिक राजनीतिक शिया व सुन्नी संगठनों की विध्वंसक भूमिका की कोई खबर नहीं।
अगर इराक को बचाना है तो सबसे पहले इस सांप्रदायिक व्यवस्था से जान छुड़ानी होगी। इराक के हर नागरिक को चाहे उसका धर्म कुछ भी हो सभी शिया व सुन्नी राजनीतिक संगठनों को खारिज करना होगा जिन्होंने इराक को सिवाय विनाश के और कुछ नहीं दिया और अगर ये संगठन और अधिक सत्ता में रहे तो भविष्य शायद इससे भी ज्यादा भयानक हो। इराकी जनता को सच्चाई को समझना होगा और उन शक्तियों को खोजना होगा जो इराक को साम्प्रदायिकता की आग से निकाल सकें। उन्हें स्वतंत्रता, लोकतंत्र, समानता, अल्पसंख्यकों और मानवाधिकारों की बात करने वाली शक्तियों को अपनाना होगा जो एक नागरिक लोकतांत्रिक व्यवस्था स्थापित करके सभी नागरिकों से समान व्यवहार करें। पिछले दस साल से जहन्नम (नरक) में जलती इराकी जनता को बचाने का सिर्फ यही एकमात्र रास्ता है।
न्यु एज इस्लाम के स्तम्भकार बासिल हेजाज़ी पाकिस्तान के रहने वाले हैं। स्वतंत्र पत्रकार हैं, धर्मों का तुलनात्मक अध्ययन और इतिहास इनके खास विषय हैं। सऊदी अरब में इस्लामिक स्टडीज़ की पढ़ाई की, अरब राजनीति पर गहरी नज़र रखते हैं, उदार और धर्मनिरपेक्ष मूल्यों के ज़बरदस्त समर्थक हैं। इस्लाम में ठहराव का सख्ती से विरोध करते हैं, इनका कहना है कि इस्लाम में लचीलापन मौजूद है जो परिस्थितियों के अनुसार खुद को ढालने की क्षमता रखता है। ठहराव को बढ़ावा देने वाले उलमाए इस्लाम के सख्त रुख के कारण वर्तमान समय में इस्लाम एक धर्म से ज़्यादा वैश्विक विवाद बन कर रह गया है। वो समझते हैं कि आधुनिक विचारधारा को इस्लामी सांचे में ढाले बिना मुसलमानों की स्थिति में परिवर्तन सम्भव नहीं।
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