New Age Islam
Mon Mar 20 2023, 06:15 PM

Hindi Section ( 21 May 2014, NewAgeIslam.Com)

Comment | Comment

Illusion of Truth सच्चाई का भ्रम

 

 

 

 

बासिल हेजाज़ी, न्यु एज इस्लाम

21 मई, 2014

कुरान कहता हैः कुल हल मिन शोरकाएकुम मन यहदी अलल हक़्क़े क़ुलिल्लाहो यहदी लिलहक़्क़े अफामन यहदी एलल हक़्क़े अहक़्क़ो अन युत्तबेओ अम् मल ला यहदी एला अनयोहदा फमालकुम कैफा तहकोमून। (अल-यूनुसः 35)- कहो, "क्या तुम्हारे ठहराए साझीदारों में कोई है जो सत्य की ओर मार्गदर्शन करे?" कहो, "अल्लाह ही सत्य के मार्ग पर चलाता है। फिर जो सत्य की ओर मार्गदर्शन करता हो, वह इसका ज़्यादा हक़दार है कि उसका अनुसरण किया जाए या वह जो स्वयं ही मार्ग न पाए जब तक कि उसे मार्ग न दिखाया जाए? फिर यह तुम्हें क्या हो गया है, तुम कैसे फ़ैसले कर रहे हो?"

हक़ (सत्य) शब्द कुरान में दसियों बार आया है और हर बार इसमें इंसान को सत्य का पालन करने की हिदायत की गई है कि हक़ के मुकाबले में पक्ष असत्य पर है और स्पष्ट है कि सत्य के बाद केवल असत्य ही रह जाता है। कुरान ये भी कहता है कि लोग दो तरह के हैं, या तो वो मोमिन हैं या काफिर, उनके बीच कोई तीसरा यानी मध्यम स्थान नहीं है, वास्तव में अतीत में यही संस्कृति प्रचलित थी, चाहे वो उलमा थे या दार्शनिक, सत्य तक पहुँच इंसान का सबसे बड़ा उद्देश्य था बल्कि मानव जीवन का उद्देश्य ही हक़ और सच्चाई की तलाश समझा जाता था। ये कल्पना इतना प्रबल थी कि सत्य के बिना इंसान की कोई कदर व क़ीमत नहीं समझी जाती थी। मिसाल के तौर पर शिया हज़रात हज़रत इमाम हुसैन पर रोते पीटते नज़र आते हैं, क्योंकि वो सत्य पर थे और यज़ीद असत्य पर था। अहले सुन्नत को भी सहाबा सत्स पर नज़र आते हैं, जिसकी वजह से सहाबा को पवित्रता का दर्जा हासिल हो गया है। मुसलमानों के मन में सत्य और असत्य का ये अर्थ इतना परिपक्व हो चुका है कि उन्हें ये नज़र ही नहीं आता कि हज़रत इमाम हुसैन सिर्फ इसलिए क़त्ल हुए क्योंकि उन्होंने यज़ीद की बैअत से इंकार कर दिया था और वजह सिर्फ इतनी थी कि वो अपनी पूरी इंसानियत और आज़ादी के साथ जीना चाहते थे यानी समस्या ये नहीं थी कि इमाम हुसैन दीने हक़ पर और यज़ीद झूठे धर्म पर था बल्कि समस्या ये थी कि पहला पक्ष अपनी पूरी इज़्ज़त और सम्मान के साथ जीना चाहता था जबकि दूसरा पक्ष इमाम हुसैन और उनके समर्थकों की ये इज़्ज़त व सम्मान और इंसानियत को छीन लेना चाहता था। लेकिन आम शिया ये समझते हैं कि हज़रत इमाम हुसैन इस्लाम और दीने हक़ की खातिर क़त्ल हुए, और यही प्राचीन संस्कृति में मानव की प्रमुखता के मुक़ाबले में हक़ की प्रमुखता का अर्थ है। इंसान हालांकि पिसा हुआ था फिर भी उसके मान सम्मान की निर्भरता इस बात पर थी कि वो सत्य के कितने क़रीब है, हालांकि इंसान को सत्य की धुरी होना चाहिए था जैसा कि सैयदुश् शोहदा हल्लाज ने कहा थाः इन्नल हक़।

लेकिन आधुनिकता ने सत्य के केन्द्रीयकरण के सभी प्राचीन अर्थ को बदल कर रख डाले और इंसान और उसके मान सम्मान को मूल बना डाला। अब सत्य वहाँ जाता है जहां इंसान जाता है, अब इंसान सत्य के क्षितिज में नहीं घूमता।  यानि कि सत्य बिना इंसान के एक भ्रम है जिससे बेवकूफ ही धोखा खा सकते हैं, लेकिन सवाल ये है कि मूल्यों और सिद्धांतों में ये क्रांति कैसे आई कि इंसान जो पहले अधीन था अब आज़ाद हो गया? ये क्या हुआ कि जो पहले गुलाम था अब मालिक हो गया? इसमें बहुत सारे कारक सक्रिय हैं:

1- हुआ ये कि ज्ञान के विकास और आधुनिक खोजों की वजह से धर्म की संरचना को एक बहुत बड़े भूकम्प का सामना करना पड़ गया क्योंकि इस संदर्भ में वैज्ञानिक खोजें धर्म की कहावतों से टकरा गईं। इसलिए इंसान की सोच से पवित्रता के वहमी बादल छटने लगे और वो आज़ादी से सोचने लगा और जब उसने सोचना शुरू किया तो उसने देखा कि जब धर्म ज्ञान, अधिकार और नैतिक क्षेत्रों में स्पष्ट गलतियाँ कर सकता है तो ग़ैबी (अनदेखा) क्षेत्र में गलती क्यों नहीं कर सकता? जैसे खुदा, फरिश्ते, जिन्न, जन्नत, जहन्नम आदि के बारे में धर्म गलत क्यों नहीं हो सकता जब वो दूसरे सभी मामलों में गलत है? ऐसे में वो क्यों पुराने विश्वासों के पीछे हलकान हो और अपनी ये इकलौती ज़िंदगी भी आरोपों और ख़ुराफ़ात की भेंट करके बर्बाद कर दे? यहाँ से मानव की प्रमुखता की सोच विकासित होने लगी और जिसके साथ इंसान की आज़ादी, उसकी इज्जत व आबरू और अधिकार भी स्पष्ट हो गए जो धर्म में उसे उपलब्ध नहीं थे और जिसमें इंसान के बजाए सत्य को प्रमुखता हासिल थी।

2- दूसरा महत्वपूर्ण कारक दीने हक़ की तरफ से दीने हक़ के नाम पर किया जाने वाला आतंकवाद और बेगुनाहों का क़त्ल है। सभी इस्लामी जीत, सलीबी जंगें, पंथीय और गिरोही दंगों जो दुनिया भर में हुए और हो रहे हैं इसकी वजह वो भ्रम है जिसे सत्यकहते हैं। हर पक्ष का ये दावा है कि वो सत्य पर है और बाकी सब असत्य पर हैं, इसिलए असत्य और असत्य पर चलने वालों को मार देना चाहिए। सारांश ये है कि इंसानियत ने इस सत्य से सिवाए जंगो, तबाहियों और खून की नदियों के सिवा कुछ हासिल नहीं किया जिससे सत्य के मुकाबले में इंसान की प्रमुखता के पहलू को बल मिलता है।

3- तीसरा पहलू वो तथ्य हैं जो कांट के युग से आत्म ज्ञान और आधुनिक दर्शन में प्रदर्शन की स्थिति को पहुँच चुके हैं कि इंसान बिना अपने अस्तित्व के वास्तविकता की पहचान नहीं कर सकता चाहे वो ज्ञान हो, धार्मिक हो या नैतिक। पहले दर्शन का विचार था कि मनुष्य का मन एक आईने की तरह है जिस पर मानव के अस्तित्व और उसकी बुद्धि के हस्तक्षेप के बिना बाहर मौजूद हर चीज प्रतिबिम्बित होती है, लेकिन कांट के बाद से ये समझा जाने लगा है कि हर व्यक्ति दुनिया को एक ऐसे चश्में से देखता है जिसके शीशे मानव मन में पहले से मौजूदा विश्वासों और कल्पनाओं से रंगे होते हैं जिसमें समय व स्थान शामिल हैं। यूँ हर चीज में विविधता के दरवाज़े खुल जाते हैं जिसमें दीन व मज़हब भी शामिल है। इससे ये साबित होता है कि सत्य की प्रमुखता सिर्फ एक भ्रम मात्र थी और वास्तव में प्रमुखता इंसान को ही हासिल है।

इस पूरे विवरण के बाद क्या सत्य के भ्रम में पड़े रहना सही है? क्या हमें अपने जीवन, मानवता और खुशी की कीमत पर अपनी सारी ऊर्जा और जीवन दीने हक़ की तलाश में बर्बाद कर देना चाहिए?

न्यु एज इस्लाम के स्तम्भकार बासिल हेजाज़ी पाकिस्तान के रहने वाले हैं। स्वतंत्र पत्रकार हैं, धर्मों का तुलनात्मक अध्ययन और इतिहास इनके खास विषय हैं। सऊदी अरब में इस्लामिक स्टडीज़ की पढ़ाई की, अरब राजनीति पर गहरी नज़र रखते हैं, उदार और धर्मनिरपेक्ष मूल्यों के ज़बरदस्त समर्थक हैं। इस्लाम में ठहराव का सख्ती से विरोध करते हैं, इनका कहना है कि इस्लाम में लचीलापन मौजूद है जो परिस्थितियों के अनुसार खुद को ढालने की क्षमता रखता है। ठहराव को बढ़ावा देने वाले उलमाए इस्लाम के सख्त रुख के कारण वर्तमान समय में इस्लाम एक धर्म से ज़्यादा वैश्विक विवाद बन कर रह गया है। वो समझते हैं कि आधुनिक विचारधारा को इस्लामी सांचे में ढाले बिना मुसलमानों की स्थिति में परिवर्तन सम्भव नहीं।

URL for Urdu article: https://www.newageislam.com/urdu-section/illusion-truth-/d/87123

URL for this article: https://newageislam.com/hindi-section/illusion-truth-/d/87143

 

Loading..

Loading..