बनवारी
15 मई 2015
यूरोपीय जाति के अग्रणी देश अमेरिका को आज आर्थिक और व्यापारिक चुनौती चीन से मिल रही है और राजनीतिक चुनौती अरबों से। अभी अरबों के पास अमेरिका को चुनौती देने लायक सामरिक शक्ति नहीं है। लेकिन यूरोप से भौगोलिक समीपता, शक्ति संतुलन को तीन शताब्दी बाद फिर से अपने पक्ष में करने की आकांक्षा और हिंसा का एक राजनीतिक हथियार के रूप में यूरोपीय लोगों की तरह ही नि:संकोच उपयोग करने की प्रवृत्ति उनकी चुनौती को गंभीर बना देती है। 11 सितंबर 2001 को अमेरिका में आतंकी कार्रवाई करके उन्होंने इस राजनीतिक लड़ाई में अपने को यूरोपीय जाति के सामने खड़ा कर दिया है।
भारत अभी अपनी मूर्छा से नहीं निकला और उसके बौद्धिक जगत में पिछले डेढ़ हजार वर्ष के इतिहास को ठीक से समझने और उससे सीख लेने की आकांक्षा नहीं जगी, वरना एक सरसरी दृष्टि डाल कर भी यह देखा जा सकता है कि हमारे पश्चिम में बसी अरब और यूरोपीय जातियां किस तरह के रक्तरंजित इतिहास में उलझी रही हैं और उनका राजनीतिक-मजहबी विस्तार कितनी बड़ी चुनौती है। दोनों के मजहबी विचारों की भित्ति और मूल प्रवृत्तियों में काफी समानता है, इसलिए एक-दूसरे के प्रति अवमानना और घृणा भी उतनी ही अधिक है। पिछले चौदह सौ वर्षों का इतिहास दोनों के आपसी संघर्ष और प्रतिद्वंद्विता का इतिहास रहा है, जिसकी आंच में भारत और चीन को भी झुलसना पड़ा।
पिछले कुछ दशकों में अरबों की राजनीतिक चुनौती के प्रति अमेरिका-यूरोप में गंभीरता बढ़ी है। सद्दाम हुसैन और कज्जाफी को समाप्त करने में उन्होंने जो आक्रामकता दिखाई उससे उनकी गंभीरता का पता लगता है। अभी उनकी सबसे बड़ी चिंता इस्लाम के अनुयायियों की बढ़ती हुई जनसंख्या है। 2012 के आंकड़ों के अनुसार विश्व में ईसाइयों की संख्या दो अरब बीस करोड़ है यानी विश्व की आबादी का 31.5 प्रतिशत, जबकि इस्लाम को मानने वालों की संख्या एक अरब अस्सी करोड़ है यानी 25.2 प्रतिशत। लेकिन इस्लाम के अनुयायियों की वृद्धि-दर विश्व की जनसंख्या में वृद्धि-दर से दुगुनी है और यूरोपीय शोधकर्ताओं के अनुसार यह दिशा बनी रही तो 2050 तक दुनिया में ईसाई मतावलंबियों की तुलना में इस्लाम को मानने वाले एक प्रतिशत अधिक होंगे। अमेरिका और यूरोप में अभी उनकी संख्या अधिक नहीं है, पर तेजी से बढ़ रही है और 2030 तक दुगुनी हो जाएगी। पिछली एक शताब्दी में यूरोपियों की दौलत जितनी तेजी से बढ़ी है उतनी ही तेजी से विश्व की मुसलिम जनसंख्या बढ़ी है। 1900 में वे विश्व की जनसंख्या का साढ़े बारह प्रतिशत थे और आज पचीस प्रतिशत से अधिक हैं।
ईसाई धर्म के उदय से दो सौ वर्ष पहले बौद्ध धर्म भारत की सीमाओं के बाहर यूनान, मध्य एशिया होते हुए चीन पहुंचा था और वहां से कोरिया, जापान और दक्षिण पूर्व एशिया में फैला था। दूसरी तरफ वह बर्मा, श्रीलंका और तिब्बत में भी एक नैतिक अनुशासन और मनुष्य की नियति को समझने की विद्या के रूप में सहज रूप से ग्रहण किया गया था। उसकी तुलना ईसाई मत या इस्लाम से नहीं की जा सकती, क्योंकि उसे मानते हुए स्थानीय मत-विश्वासों को मानते रहा जा सकता था। इस रूप में आज भी बौद्ध धर्म को श्रद्धा से देखने वालों की संख्या ईसाई या इस्लाम मतावलंबियों से अधिक ही होगी। लेकिन कोई उन्हें चुनौती के रूप में नहीं देखता, क्योंकि बौद्ध मत के विस्तार में भी दूसरे मतों का निषेध नहीं होता। ईसाई और इस्लाम मत के प्रसार में एक नैतिक आदेश के साथ द्वेष और हिंसा भी घुली-मिली रही है और इसलिए वे एक-दूसरे के लिए चुनौती बने रहे।
एक राजनीतिक शक्ति के रूप में इस्लाम के माध्यम से ही अरबों का उत्कर्ष आरंभ हुआ। 632 में मोहम्मद साहब की मृत्यु के दो वर्ष के भीतर इस्लाम पूरे अरबिया में फैल गया। उस समय रोम राज्य की शक्ति के पराभव के बाद पूर्व का बैजंतिया राज्य सीरिया से मिस्र तक फैला था।
अरबों की सेनाओं ने बैजंतिया और ईरान में स्थापित सासानिद राज्य पर आक्रमण किया और बारह वर्षों में मिस्र से लगा कर ईरान तक उनका विस्तार हो गया। इस शक्ति को संभालने में अगले पचास वर्ष लगे। उसके बाद चले सैनिक अभियान में उत्तरी अफ्रीका, स्पेन, सिंध और मध्य एशिया तक उनका विस्तार हो गया। इसके कुछ समय बाद सत्ता उनके हाथ से निकल गई। पहले सेल्जुक तुर्क आए, फिर मंगोल और फिर तुर्कों का उस्मानी राज्य अरबों को निचले स्तर पर धकेल कर इस्लाम की ध्वजा फहराने लगे। ये सब धर्मांतरित समूह थे।
यह विजय जितनी सरल दिखती है उतनी है नहीं। इस्लाम ने जो भाषा प्रचलित की, उसने मानव जाति को दो वर्गों में बांट दिया। इस्लाम को मानने वाले मुसलिम, न मानने वाले काफिर। इस्लाम द्वारा शासित क्षेत्र दारूल इस्लाम और उससे बाहर का दारूल हर्ब। इस्लाम-शासित क्षेत्रों के ईश्वरीय संदेश के गैर-इस्लामी वाहक धिम्मी और अन्य हर्बी।
इस्लाम के विस्तार के लिए किया गया सैनिक अभियान जेहाद और अन्य फितना। इस विभाजित भाषा और विपरीत मत वालों पर लादे गए करों ने इस्लाम विरोधी भावना और अंतर्संघर्ष पैदा किए। मोहम्मद साहब के बाद अबू बक्र सिद््दीक खलीफा चुने गए। अपनी मृत्यु के समय उन्होंने उमर इब्न खताब को खलीफा नामजद किया। लेकिन उनकी एक फारसी ने हत्या कर दी। उनके उत्तराधिकारी उत्मान इब्न अफान हुए जिनकी असंतुष्ट वर्ग के एक सदस्य ने हत्या कर दी। उसके बाद मोहम्मद साहब के भतीजे और दामाद अली इब्न अबी तालिब खलीफा हुए, लेकिन उनकी भी एक खारिजी ने हत्या कर दी।
इन चार सबसे प्रतिष्ठित माने गए खलीफाओं के बाद खिलाफत द्वितीय खलीफा के एक संबंधी सीरिया के शासक मुआबिया के हाथों में चली गई और उन्होंने इसे वंशगत बना दिया। दरअसल, अली के खलीफा बनते ही अंतर्संघर्ष आरंभ हो गए थे और उनके नेतृत्व को अन्य लोगों के अलावा मुआबिया ने चुनौती दी थी। अली की हत्या के बाद उनके पुत्र हसन को खलीफा चुना गया, लेकिन वे कुछ माह बाद मुआबिया को खलीफा मान कर अलग हट गए। इस नए शासन को उम्मैया राज्य के रूप में जाना गया। इसी दौर में 680 में कर्बला में हसन की हत्या हुई और इस्लाम शिया और सुन्नी समुदायों में बंट गया। उम्मैया राज्य नब्बे वर्ष रहा। उसे ढहाने में शियाओं की मुख्य भूमिका थी, लेकिन खिलाफत फिर भी उन्हें नहीं मिली। अंतिम उम्मैया राज परिवार की हत्या करके अब्बास इब्न अब्द अल मुतालिब सत्ता में आए। इस अब्बासी शासन-काल में अरब शक्ति का और विस्तार हुआ। पर 1000 ईस्वी के आसपास सत्ता सेल्जुक तुर्कों के हाथ में चली गई।
साढ़े तीन शताब्दी में न केवल शासन अरबों के हाथ से चला गया, बल्कि विभिन्न वर्गों ने अपने-अपने खलीफा घोषित कर दिए। शियाओं ने अपनी खिलाफत मिस्र में स्थापित की। यह वह दौर था, जब मुसलिम शासक असुरक्षा में अपने इर्द-गिर्द विदेशी अंगरक्षकों का घेरा बना कर रखते थे। उनमें अधिकतर गुलाम होते थे। ऐसे ही गुलामों ने मिस्र में फातिमी शासकों से सत्ता छीन कर मामलुक राज्य की स्थापना की। फिर अरब लहर से भी बड़ी एक आंधी चंगेज खां के रूप में प्रकट हुई। मंगोलों ने काले सागर तक यूरोप को रौंद डाला और 1258 में बगदाद को तहस-नहस कर दिया।
मंगोलों में राजवंश का खून बहाना वर्जित था तो उन्होंने बगदाद के खलीफा को कालीन में लपेट कर घोड़े दौड़ा दिए। अरबों की हिंसा मंगोल और तुर्क काल में क्रूरता में बदल गई, जिसका साक्षी हमारा अपना इतिहास है। मंगोलों के बाद 1513 से 1914 तक तुर्कों के उस्मानी राज्य ने इस पूरे क्षेत्र को स्थिरता प्रदान की। इस काल के आरंभ में ही उस्मानी शासकों ने राज्य को शरिया से अलग कानूनी राज्य का स्वरूप दे दिया था।
रोम साम्राज्य के पराभव ने आसपास के क्षेत्रों में जो शक्ति-क्षीणता और अराजकता पैदा की थी, उसी ने आसानी से अरबों को अपना विशाल राज्य खड़ा करने में सहायता दी। लेकिन इस्लाम के कारण इस पूरे क्षेत्र में जो गतिशीलता आई उसने ज्ञान-विज्ञान और भौतिक संपन्नता के नए शिखर पैदा किए। 1700 तक यह क्षेत्र ज्ञान-विज्ञान और भौतिक संपन्नता में यूरोप से आगे था। 711 में स्पेन में जर्मन विसीगोथो के शासन से असंतुष्ट वर्गों ने मिस्र के शासकों को आमंत्रित किया था। बाद में सत्ता उम्मैया राजवंश के हाथ में गई। मुसलिम शासन में स्पेन ने बहुत प्रगति की। लेकिन यूरोप के लोग अपने क्षेत्रों के छिन जाने को चुप बैठ कर नहीं देखते रहे। येरूशलम को विधर्मियों के हाथ से छुड़ाने के पोप के आह्वान पर 1096 से 1291 तक क्रूसेड के रूप में चार अभियान हुए जिनमें फ्रांस और ब्रिटेन के राजा भी सम्मिलित हुए, पर सफलता नहीं मिली। 1453 में उस्मानी तुर्कों ने कोस्टेनटिनोपल को जीत कर बैजंती राज्य को समाप्त कर दिया। उस्मानी राज्य का विस्तार वियना के निकट तक हो गया था। 1700 तक इस पूरे क्षेत्र में इस्लाम के तीन बड़े राज्य थे, उस्मानी, सफाविद् और मुगल।
चार्ल्स महान का उदय इस चुनौती के कारण 800 में हुआ, जिसने यूरोप को राजनीतिक सूत्र में बांधा। उसे यूरोप का जनक कहा जाता है। यूरोप में चर्च और राज्य का विभाजन सेंट पॉल के समय ही हो गया था। पर इन दोनों में अपने प्रभाव के विस्तार के लिए संघर्ष छिड़ा रहा। कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट के बीच के संघर्ष और फ्रांस और ब्रिटेन के बीच सौ वर्षों तक चले युद्ध ने यूरोप की बरबादी अवश्य की, पर उसे एक नई आक्रामकता भी दी। 1492 में अरबों से व्यापारिक पहल छीनने के लिए ही यूरोप ने भारत और चीन पहुंचने का समुद्री मार्ग खोजने की कोशिश की थी और उसके हाथ अमेरिका और आस्ट्रेलिया जैसे विशाल क्षेत्र आ गए। मुसलमानों के प्रति उनकी नफरत इसी से समझी जा सकती है कि सात सौ वर्ष बाद जब स्पेन मुक्त हुआ तो वहां के तीन लाख मुसलमानों को प्रताड़ित करके निष्कासित कर दिया गया और हजारों अरबी पुस्तकें जला डाली गर्इं, ताकि उनके शासन का नाम-निशान न रहे।
ईश्वर के प्रति निष्ठा और भौतिक जीवन के संचालन को अलग-अलग खानों में रख कर यूरोपीय जाति ने तर्क-आश्रित विज्ञान और प्रौद्योगिकी का विकास करके अपूर्व सामरिक और भौतिक शक्ति अर्जित कर ली है। लेकिन उनके पड़ोस में रहने वाले मुसलिम समुदाय के लिए इसका कोई महत्त्व नहीं है, क्योंकि इस्लाम में अल्लाह के प्रति संपूर्ण निष्ठा ही सब कुछ है। इसलिए इस्लाम यूरोप की शक्ति को ललकारने की प्रेरणा बना हुआ है। यूरोप जैसी सामरिक शक्ति के अभाव में वह आतंकवाद का सहारा ले रहा है। यूरोपीय राजनेता इसी आधार पर उसे विश्व-शांति के लिए संकट बता रहे हैं, पर उतना ही बड़ा संकट वे स्वयं भी हैं।
Source: http://epaper.jansatta.com/499998/Jansatta.com/-15-2015#page/6/2
URL: https://newageislam.com/hindi-section/islam-europe-/d/103016