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Hindi Section ( 11 Oct 2011, NewAgeIslam.Com)

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Why Were The Badar-Prisoners Made Teachers? जंगे बदर के कैदियों को क्यों शिक्षक बनाया गया?


आसिफ रियाज़ (उर्दू से अनुवाद- समीउर रहमान, न्यु एज इस्लाम डाट काम)

17 रमज़ान,2 हिजरी को मक्का के कुफ्फार और मदीना के मुसलमानों के बीच एक निर्णायक जंग हुई। चूंकि ये जंग मदीना से 130 किलोमीटर की दूरी पर बदर नाम के स्थान पर लड़ी गयी थी, इसलिए इसे जंग बदर के नाम से याद किया जाता है। मुसलमानों की तरफ से इस जंग की कयादत पैगम्बरे इस्लाम (स.अ.व.) और उनके सहाबा हज़रत हमज़ा (रज़ि.) और हज़रत अली (रज़ि.) ने की थी जबकि कुफ्फारे मक्का का नेतृत्व अबु जहल और खालिद बिन वलीद के हाथों में था। इस जंग में शरीक होने वाले मुसलमानों की तादाद सिर्फ 313 थी जबकि कुफ्फारे मक्का की तरफ से 900-1000 लोग इस जंग में शरीक हुए थे। इस जंग में एक मुसलमान को तीन तीन दुश्मन का सामना करना था। फिर भी जंग का खात्मा मुसलमानों की जीत और कुफ्फारे मक्का की शर्मनाक हार के साथ हुआ। दुश्मन के 70 लोग मारे गये जबकि मुसलमानों की ओर से 14 लोग शहीद हुए। इस जंग में बहुत सारे दुश्मन कैदी बना लिये गये। पैगम्बरे इस्लाम (स.अ.व.) ने कैदियों के साथ अच्छा व्यवहार करने का हुक्म दिया। हज़रत अबु बकर (रज़ि.) की सलाह पर कैदियों को फिदया (मुक्तिधन) लेकर आज़ाद कर दिया गया। जो लोग फिदया देने की स्थिति में नहीं थे, उनके लिए ये फैसला हुआ कि वो मुसलमानों को पढायें, यही उनकी तरफ से फिदया स्वीकार किया जायेगा।

सवाल पैदा होता है कि कुफ्फारे मक्का के पास वो कौन सा इल्म था जिसके लिए पैगम्बरे इस्लाम (स.अ.व.) ने इतना बड़ा जोखिम लिया?  बड़े बड़े जंगी कैदियो की न सिर्फ जान बख्शी गयी बल्कि उन्हें उस्ताद की हैसियत से सहाबा के बीच रखा गया। हम सब लोग इस बात को पूरी तरह जानते हैं कि इंसान के जीवन पर शिक्षा का गहरा असर पड़ता है। इंसान जिस तरह की शिक्षा हासिल करता है उसका मिज़ाज भी उसी तरह का बन जाता है। खासकर वो तब्का (सहाबा) जिसके इल्म और अमल में कोई अंतर नहीं पाया जाता हो। इतिहास में ऐसा कोई रिकार्ड नहीं मिलता है जिससे ये बात साबित होती हो कि मुसलमानों ने बदर के कैदियों से जो तालीम हासिल की थी, उसका इस्तेमाल उन्होंने बाद में किया। हालांकि मुसलमानों ने हज़रत सलमान फारसी से जो कुछ भी सीखा था उसका इज़हार (प्रदर्शन) जंगे खंदक के मौके पर हुआ। वाज़ेह रहे कि खंदक हज़रत सलमान फारसी की सलाह पर खोदी गयी थी। यहाँ एक और सवाल पैदा होता है, वो ये कि आखिर मक्का वालों के पास ऐसी कौन सी तालीम थी जो उस वक्त मुसलमानों के पास नहीं थी? जबकि मुसलमान खुद इस शहर से निकल कर आये थे। मुसलमानों के पास हज़रत अबु बकर(रज़ि.), हज़रत अली (रज़ि.), हज़रत हमज़ा (रज़ि.), हज़रत उमर (रज़ि.) और हज़रत उस्मान (रज़ि.) जैसे कई कद्दावर लोग थे जो शिक्षा और कला में मक्का वालों और कोरैश से किसी तरह कम न थे। खासतौर से मदीना वालों के दरम्यान खुद पैगम्बरे इस्लाम (स.अ.व.) तशरीफ रखते थे। फिर वो कौन सा इल्म था जिसके लिए बदर के कैदियों को उस्ताद बनाया गया था? अगर सिर्फ बच्चों को पढ़ाने की बात थी तो इसके लिए बहुत सारे मुसलमान मौजूद थे। और अगर सहाबा की तरबियत का सवाल था तो खुद पैगम्बरे इस्लाम (स.अ.व.) आपके बीच मौजूद थे। अगर जंगी तकनीक और हथियार का मामला था तो हज़रत हमज़ा (रज़ि.), हज़रत अली (रज़ि.), और हज़रत उमर (रज़ि.) जैसे जंग के माहिर लोग मौजूद थे, और अगर व्यापार की बात थी तो हज़रत उस्मान (रज़ि.) और खुद पैगम्बरे इस्लाम (स.अ.व.) माहिरे तेजारत की हैसियत से सहाबा को गाइड करने के लिए काफी थे। तो फिर वो कौन सा इल्म था जिसके लिए बदर के कैदियों को उस्ताद बना के रखा गया?

कुछ मुसलमान इस घटना से ये नतीजा निकालते हैं कि हमें इल्म हासिल करने के मामले में ये नहीं देखना चाहिए कि वो कौन सा इल्म है हमें हर इल्म के लिए उत्सुक होना चाहिए। वो ये भूल जाते हैं कि हर इल्म, इल्म नहीं होता है, कुछ इल्म गुमराही हैं।

कैदियों को इसलिए नहीं रोका गया था कि वो मुसलमानों को पढ़ायें। असल बात ये थी कि अल्लाह के रसूल (स.अ.व.) कैदियों को रोक कर उन्हें इस्लामी माहौल से परिचित कराना चाहते थे। आप उन्हें डायलाग और इंटरऐक्शन की प्रेरणा देना चाहते थे। इसके लिए आपने ये तरकीब निकाली कि उन्हें उस्ताद का दर्जा दे दिया ताकि बगैर किसी दिल आज़ारी के सहाबा के साथ उनका इंटरऐक्शन हो सके। मकसद ये था कि उस्तादों को शागिर्दों से टकरा दिया जाये। आपने ऐसा करके कोई रिस्क नहीं लिया था। आप अपने सहाबा कि तालीम से पूरी तरह संतुष्ट थे। आप जानते थे कि सहाबा अपने उस्ताद की बात के जवाब में वो बात कहेंगे जो उनसे बेहतर हो। क्योंकि सहाबा को यही तालीम दी गयी थी कि बुराई का जवाब बुराई नहीं है। तुम उनके जवाब में वो बात कहो जो उनसे बेहतर हो। और वाक़ई सहाबा ने वही किया। मुसलमानों पर कैदी उस्तादों की तालीम का कोई असर नहीं पड़ा। फिर भी कैदी उस्तादों पर मुसलमानों का असर ज़रूर नज़र आया। वो कैदी जो कुफ्र की हालत में उस्ताद बनाये गये थे, उन्होंने अपने शागिर्दों की तालीम के सामने हथियार डाल दिया था। बाद में ज़्यदातर उस्ताद ईमान लाकर अपने शागिर्दों के रंग में रंग गये। पैगम्बरे इस्लाम (स.अ.व.) कैदियों को रोककर शायद यही लक्ष्य हासिल करना चाहते थे। आपका लक्ष्य दुनियावी तालीम हासिल करना नहीं था। आपका लक्ष्य दीन का प्रचार-प्रसार था। आप अपने इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए कोई भी रिस्क उठा सकते थे।

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