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Hindi Section ( 4 Oct 2011, NewAgeIslam.Com)

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Traditional Ulama, Islam and Social Reforms परम्परागत उलमा, इस्लाम और समाज सुधार


असग़र अली इंजीनियर (उर्दू से अनुवाद-समीउर रहमान, न्यु एज इस्लाम डाट काम)

परम्परागत उलमा ने हमेशा समाज सुधार को गैर-इस्लामी करार देते हुए इसका कड़ा विरोध किया है और क़ुरान की कुछ आयात और हदीस के कुछ हिस्सों को उनके संदर्भों से अलग करके बतौर प्रमाण पेश करके आम मुसलमानों को अपने पक्ष में किया है और उनका समर्थन हासिल किया है। उन्होंने सुधारवादियों को काफिर, मुल्हिद और नेचरी करार दिया। एक बार जब इस तरह का फतवा जारी होता है तो सुधारवादी आम समाज से अलग थलग कर दिये जाते हैं और उनके लिए अपने सुधार आंदोलन को जारी रखना बेहद मुश्किल हो जाता है। इतिहास में ऐसे कई सुधारवादियों का ज़िक्र है जिन्हें इस सूरते हाल का सामना करना पड़ा। खासतौर से उन्नीसवीं सदी में जब पश्चिमी देशों ने अपनी कालोनियाँ बनाईं तब आधुनिक पश्चिमी समाज के प्रभाव से इस्लामी दुनिया में सुधार के कई आंदोलन शुरु हुए।

यहाँ इसका स्पष्टीकरण ज़रूरी है कि समाज सुधार क्या है?  जैसे ही कोई व्यक्ति समाज सुधार की बात करता है, वैसे ही बल्कि उसी लम्हा उस पर ये इल्ज़ाम लग जाता है कि ये व्यक्ति शरीअत में परिवर्तन करना चाहता है। शरीअत खुदाई कानून है और इसमें परिवर्तन का मतलब अल्लाह की नाफरमानी है। इस तर्क से हर सुधारवादी की छवि धूमिल हो जाती है। बहरहाल आज के सुधारवादी ये कह रहे हैं कि इस्लाम के कानून में किसी भी तरह की तब्दीली किये बगैर उन सिद्धान्तों और और नियमों में जो पुराने जमाने के सियासी और सामाजिक आवश्यकताओं को ध्यान में रख कर बनाये गये थे, इस हद तक तब्दील किये जायें या उन्हें इतना विस्तार दिया जाये कि वो आधुनिक समय की आश्यकता को समायोजित कर सके। सुधार या रिफार्म शब्द ये इशारा करता है कि किसी बुनियादी तब्दीली के बग़ैर ऐसी शक्ल दी जाये कि जो वर्तमान समय की आवश्यकता के मुताबिक हो और सभी हालात का मुकाबला कर सके। जो बुनियादी सिद्धान्त और प्रवर्तक नियम हैं उनमें तब्दीली मुमकिन नहीं है और की भी नहीं जानी चाहिए, क्योंकि अगर इनमें तब्दीली हुई तो ये सुधार नहीं बल्कि कोई और चीज़ होगी जिससे फायदे से ज़्यादा नुक्सान की आशंका है। मिसाल के तौर पर उस ज़माने के उलमा ने औरतों के सम्बंध में क़ुरानी आयात और निर्देशों को एक खास तरीके से समझा और इसी समझ के आधार पर शरई निर्देश बनाये। आज के वक्त में कोई सुधारवादी या क़ुरान का आलिम उन्हीं आयात और उनके अर्थ को अपने तौर पर समझने की कोशिश करे तो उसका मतलब ये तो नहीं होगा कि वो क़ुरान से अलग जा रहा है या कोई नई चीज़ पैदा कर रहा है। लेकिन हमारे उलमा फौरन फतवा देंगे कि फलां शख्स क़ुरान में तब्दीली कर रहा है और शरीअत को खत्म कर रहा है। मौलवी मुमताज़ अली के बहुत बड़े आलिम हुए हैं। वो देवबंद से पढ़े थे लेकिन औरतों के अधिकार के सवाल पर परम्परागत देवबंदी उलमा से मतभेद रखते थे। उन्होंने महिलाओं के अधिकार पर एक किताब लिखी है। इसमें उन्होंने मर्दों की झूठी फज़ीलत के नाम से पूरा एक पाठ बना कर देवबंदी उलमा को चैलेंज किया। उन्नीसवीं सदी में सियासी और सामाजिक हालात तेज़ी से बदल रहे थे। क्या हम मौलवी मुमताज़ अली को काफिर कहेंगे? या सुधारवादी? मौलवी साहब सर सैय्यद अहमद खान के समर्थक थे। उनका दृष्टिकोण और सोचने का अंदाज़ आधुनिक होने के बावजूद क़ुरानी निर्देशों के अंदर ही था। महिलाओं के अधिकार के सम्बंध में इनका विचार तो इतना आधुनिक था कि सर सैय्यद अहमद खान ने भी मौलवी मुमताज़ अली को प्रकाशित न करने का सुझाव दिया था, लेकिन मौलवी साहब अपने इरादे के पक्के थे, उन्होंने इसे प्रकाशित किया।

सर सैय्यद अहमद खान खुद भी बहुत बड़े बल्कि ये कहा जाये तो गलत न होगा  कि वो मुसलमानों के सबसे बड़े सुधारवादी थे। वो तफ्सीरुल क़ुरान लिख रहे थे। उलमा ने उनके खिलाफ लिखना शुरु किया और उन्हें धमकी दी कि अगर उन्होंने लिखना जारी रखा तो वो एक आधुनिक कालेज बनाने में उनकी मदद नहीं करेंगे। सर सैय्यद ने तफ्सीर लिखना बंद कर दिया और फिर किसी मज़हबी विषय को हाथ नहीं लगाया। क्योंकि वो चाहते थे कि मुसलमान आधुनिक शिक्षा हासिल करें और आधुनिक शिक्षा का ज़रिआ सिर्फ अंग्रेज़ी था। उलमा ने उनका विरोध किया और आधुनिका शिक्षा संस्थान स्थापित करने की कोशिशों को कुफ्र और सर सैय्यद को काफिर करार दिया। उन्हें नसरानी और यहूदी कहा। एक आलिम साहब ने तो बाकायदा मक्का जाकर उनके कत्ल का फतवा हासिल किया।

सवाल ये पैदा होता है कि आखिर इन सुधारवादी आंदोलनों का इतना कड़ा विरोध क्यों होता था, जो बहरहाल मुसलमानों की भलाई और कल्याण के लिए चलाये जाते थे? यकीनन इसकी वजह तो सिर्फ मज़हबी विश्वास और जज़्बा तो नहीं हो सकता। समाज सुधार के विरोध के कई कारण हो सकते हैं। सबसे पहली वजह तो ये है कि उलमा तब्दीली से डरे रहते हैं, क्योंकि तब्दीली अपने साथ गैर-यकीनी सूरते हाल और अजनबीयत लेकर आती है और उनके लिए तो खासतौर से ज्यादा परेशान करने वाली होती है जिन्हें इससे कोई फायदा नहीं होता या नुक्सान की आशंका होती है। मज़हबी रहनुमाओं और सामाजिक लीडरों के अलावा आम लोग भी अपने विश्वास और रस्मों में परिवर्तन आमतौर से स्वीकार नहीं करते हैं।

बदकिस्मती ये है कि ऐसी रस्में और रवायतें जिनका इस्लामी तालीमात और क़ुरान से कोई वास्ता नहीं है मज़हब का हिस्सा बन चुकी हैं। अब अगर इनमें सुधार की कोशिश की जाती है तो फौरन इस्लाम पर हमले का नारा बुलंद हो जाता है। सर सैय्यद आधुनिक शिक्षा और साइंसी रुझान के ज़बर्दस्त समर्थक थे और समाजी सवालात को भी साइंसी दृष्टिकोण से देखते थे। उनके इस दृष्टिकोण को उलमा ने दीन में हस्तक्षेप करार दिया और उन्हें नेचरी यानि प्रकृति के चमत्कार की पूजा करने वाला कह कर पुकारने लगे। इन लोगों को ऐसा प्रतीत होता था कि सर सैय्यद को अल्लाह पर विश्वास नहीं था क्योंकि वो साइंसी व्याख्या की वकालत करते थे। सर सैय्यद ने इसके जवाब में अपना मशहूर बयान दुहराया अल्लाह के अल्फाज़ अल्लाह के कामों के खिलाफ नहीं जा सकते हैं।

क़ुरान अल्लाह के अल्फाज़ का मजमूआ (संग्रह) है। ब्रह्माण्ड की रचना अल्लाह का काम है और साइंस अल्लाह के कामों की तहकीक करती है और सर सैय्यद साइंस के ज़रिए अल्लाह के कामों के व्यवस्थित अध्ययन का समर्थन करते थे। इसी वजह से उलमा ने उन्हें नेचरी कहना शुरु किया। उलमा के इस दुष्प्रचार ने इतना ज़ोर पकड़ा कि जब वो लाहौर चंदा इकट्ठा करने गये तो कोई उनकी बात सुनने को तैय्यार ही न था। अंत में मौलवी नज़ीर अहमद दिल्ली से लाहौर गये और उन्होंने लाहौर की जामा मस्जिद में सर सैय्यद को नेचरी कहने की निंदा की और बहुत ही अच्छे ढंग से मुसलमानों की शिक्षा के लिए सर सैय्यद के आंदोलन का समर्थन किया, तब कहीं जाकर लाहौर वालों ने उनकी मदद करनी शुरु की। ये मिसाल ये बताने के लिए काफी है कि मुसलमानों की मनःस्थिति से कैसे खेला जाता है। आप इनके जज़्बात को छेड़ दीजिए और जो चाहे करवा लीजिए। परम्परागत उलमा इन्हीं तरीकों से काम लेते आ रहे हैं। आम लोगों की मनःस्थिति भावनाओं के अधीन रहती है। मुसलमानों को भावनात्मक रूप से उत्तेजित करके मज़हबी पेशवा और लीडर लोग उनके मन को अपने काबू में रखते हैं और इन्हे गम्भीरता और ठण्डे दिल व दिमाग से सोचने और समझने का मौका नहीं देते। वास्तविकता ये है कि यो व्यक्ति धर्म से सही तौर पर लगाव रखता है, वो गंभीरता से सोचता और चिंतन मनन करता है और कारणों को तलाशता है। क़ुरान हमेशा अपने मानने वालों और न मानने वालों दोनों को चिंतन मनन करने का निर्देश देता है। (सूरे अलअनामः50 और सूरे अलआराफः184) ये पेशवा (इस्लाम में पेशवाइयत का कोई वजूद नहीं है), उलमा और कुछ सामाजिक व सांस्कृतिक ठेकेदारों नें व्यापक रूप से चिंतन का हमेशा विरोध किया है क्योंकि उनकी मज़हबी ठेकेदारी पर इससे चोट पहुँचती थी। काफी समय से ये उलमा अवाम के मन पर हुकूमत कर रहे हैं और उन्हें महसूस होता है कि इसलिए वो हर क़िस्म की तब्दीली का ज़ोर शोर से विरोध करते हैं और अपने इस विरोध को उचित ठहराने के लिए दीन का सहारा लेते हैं और आम लोगों को प्रभावित करने के लिए क़ुरान की आयतों का हवाला देते हैं।

उन्नीसवीं सदी में उलमा ने अंग्रेज़ी तालीम का कड़ा विरोध किया, क्योंकि उनके खयाल से इससे मदरसों की तालीम को खतरा था और मुसलमानों का इसाईयत की तरफ आकर्षित करने का ज़रिआ था। जिस तरह अरबी तालीम को इस्लाम की तरफ पहला कदम समझा जाता था उसी तरह अंग्रेज़ी को इसाईयत की तरफ पहला कदम माना जाता था। इसके अलावा उलमा के आधुनिक शिक्षा के विरोध का एक और कारण था। मुग़ल काल में उलमा को ज़बर्दस्त अहमियत हासिल थी। वो काज़ी जैसे बड़े पदों पर विराजमान थे। जब अंग्रेजों का शासन आया तो इन काज़ियों की जगह ब्रिटेन के जजों और आला तालीम हासिल करने वाले हिंदुस्तानियों को इन पदों पर बिठाया गया, जो कानून को गहराई से जानते थे। सरकार के इस कदम ने उलमा को ज़बर्दस्त नाराज़ कर दिया। उन्होंने इसका कड़ा विरोध किया कि अंग्रेजी तालीम उनसे हर चीज़ छीन रही है। इन उलमा को डर था कि आधुनिक शिक्षा मदरसों पर भी छा जायेगी और मदरसे के उस्ताद के तौर पर भी उन्हें अपने रोज़गार से वंचित हो जाना पड़ेगा। उनके सामने अंधेरा ही अंधेरा था, जसमें रौशनी की एक किरण न थी।

इन उलमा को आम लोगों का हमेशा समर्थन हासिल था। इसकी पहली वजह ये थी मुसलमान उन्हें अपना दीनी और मज़हबी रहनुमा समझते आये थे और दूसरी वजह ये थी कि सारा मुस्लिम समाज पतन की ओर जा रहा था। कोई भी तब्दीली मुसलमानों को परेशान कर देती थी और वो बजा तौर पर ये सोचने के लिए मजबूर हो जाते थे कि अंग्रेज़ उनके दुश्मन हैं और उनकी सियासी रूप से आगे होने और धार्मिक विश्वास के लिए एक खतरा हैं। भविष्य न सिर्फ अंधकारमय था बल्कि दूसरों के अधिकार में था।

तब्दीली उनके लिए बुरा संदेश लाती थी जो इसकी वजह से सब कुछ खो देते थे और जिन्हें तब्दीली से फायदा होता था वो खुशियाँ मनाते थे। जिन सुधारवादियों की नज़र भविष्य पर थी उनका साथ देने वाले बहुत ही कम लोग थे। मुसलमानों में सर सैय्यद अहमद खान अकेले ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने सबसे पहले आधुनिक शिक्षा के लिए आन्दोलन की शुरुआत की, जिसक नतीजे में मुसलमानों का एक ऐसा समूह सामने आया जो न सिर्फ अंग्रेज़ी तालीमयाफ्ता था बल्कि इससे फायदा भी उठा रहा था।

मुसलमानों के इस तालीमयाफ्ता समूह के फैलने की रफ्तार हालांकि काफी सुस्त थी लेकिन ये समूह परिवर्तन का अग्रदूत साबित हुआ। इस समूह में ऐसी ऐसी शख्सियतें भी पैदा हुईं जो आज भी याद की जाती हैं। नवाब मोहसिनुल मुल्क, मौलवी चिराग़ अली, जस्टिस अमीर अली, मौलवी मुम्ताज़ अली खान और कई अनगिनत व्यक्तित्व। इन लोगों ने ज़िंदगी को एक नये दृष्टिकोण को बनाया और मुसलमानों के लिए बेहतर ज़िंदगी की राह आसान की। इस समूह के अक्सर लोग सरकारी नौकरी, पुलिस और अन्य प्रशासनिक विभागों में शामिल हुए और अपने प्रभाव को छोड़ा।

खुशी की बात ये है कि न सिर्फ बहुत से उलमा अंग्रेज़ी सीख रहे हैं बल्कि सीख कर गैर मुस्लिमों में इस्लाम को परिचित भी करा रहे हैं। अब कोलकाता में एक ऐसा मदरसा स्थापित किया गया है जहाँ अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा दी जा रही है। जिस ज़बान को काफिरों की ज़बान कहा गया था वो आज इस्लामी दुनिया में सम्पर्क की सबसे बड़ी भाषा बन गयी है। वो भाषा जिसका उलमा ने कड़ा विरोध किया था अब उनके अस्तित्व का ज़रिआ बनती जा रही है। बड़े ही अफसोस की बात है कि हमारे उलमा हर तब्दीली का विरोध करते हैं और वो परिवर्तन जब अत्यावश्यक हो जाता है और उसके बगैर कोई चारा नहीं रह जाता है तब ही उसे कुबूल करते हैं। हम वक्त के साथ चलने से इंकार नहीं करते और वक्त हमें ज़बर्दस्ती अपने साथ चलने पर मजबूर करता है। हम चलते ज़रूर हैं लेकिन तब्दीली से इंकार की भारी क़ीमत अदा करने के बाद।

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