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Hindi Section ( 22 March 2012, NewAgeIslam.Com)

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On The Need for Inter-Religious Dialogue अंतर धार्मिक बातचीत की ज़रूरत


असग़र अली इंजीनियर (अनुवाद- समीउर रहमान, न्यु एज इस्लाम)

आज की दुनिया बहुत विविधता वाली है। दुनिया में कोई भी ऐसा देश नहीं है जो एक सा और बिना विविधता के हो। हालांकि पहले भी विविधता मौजूद थी लेकिन उपनिवेशीकरण, वैज्ञानिक विकास और परिवहन के साधनों के विकास ने दुनिया के विविधता को बढ़ाया है और ग्लोब्लाइजेशन (वैश्वीकरण) ने इसकी तेज़ी में इज़ाफ़ा कर दिया है। पहले आम तौर पर लोग बेहतर संभावनाओं के लिए देश के भीतर ही एक जगह से दूसरी जगह आया जाया करते थे, आज लोग रोजगार और शिक्षा के लिए दूरदराज के देशों में या उससे आगे दूसरे महाद्वीपों में जाते हैं।

इसके अलावा, ये अपने मख्लूक़ (प्राणियों) के बीच विविधता पैदा करने की अल्लाह की मर्ज़ी है। अल्लाह कुरान में फरमाता है,  "और अगर ख़ुदा चाहता तो सबको एक ही शरीयत पर कर देता लेकिन जो हुक्म उसने तुमको दिए हैं उनमें वो तुम्हारी आज़माइश करना चाहता है सो नेक कामों में जल्दी करो" (5:48) इस तरह विविधता अल्लाह की मर्ज़ी है और ये हमारे लिए इम्तेहान है कि हम इस विविधता के बावजूद एक दूसरे के साथ शांति और सद्भाव के साथ रह सकते हैं। इसके अलावा, अल्लाह चाहता है कि हम दूसरों से बरतरी का दावा न करें बल्कि नेक कामों में एक दूसरे के साथ मुक़ाबला करें।

इसके अलावा, अगर कहीं विवधता तो वहां सम्भव है कि एक दूसरे से इख्तेलाफ़ात और गलतफहमियाँ होंगी जो अक्सर विवादों और अशांति पैदा कर सकती हैं। ये दोनों पर लागू होता है: अंतः विश्वास और अंतर धार्मिक वर्ग। अंतर धार्मिक विवाद भी जैसे शिया और सुन्नी या बोहरा या गैर-बोहरा मुसलमानों के बीच या बरेलवियों और देवबंदिोंयों के बीच आम है। इन गलत फहमियों को दूर करने के लिए एक मात्र रास्ता एक दूसरे के साथ बातचीत करना है।

इस तरह लोकतंत्र, विविधता और बातचीत तीनों अहम हो जाते हैं। लोकतंत्र और विविधता एक दूसरे के पूरक हैं,  हालांकि बहुत से लोगों का मानना ​​है कि एकसमानता एक ताकत है जबकि ऐसा नहीं है। एकसमानता के कारण सैन्य शासन पैदा हो सकता है जबकि विविधता लोकतंत्र के लिए लाइफ लाइन (जीवन रेखा) बन जाती है। अनुभव बताता है कि जितना अधिक विविधता होगी लोकतंत्र इतना मज़बूत होगा।

लेकिन विविधता भी एक चुनौती पेश करती है और इस चुनौती का सामना एक दूसरे के साथ आपसी बातचीत के जरिए उचित ढंग से एक दूसरे को समझ कर किया जा सकता है। काबिले गौर बात ये है की बातचीत, अंतर धार्मिक वार्तालाप सहित आधुनिक या समकालीन कल्पना नहीं हैं। मध्यकाल के हिंदुस्तान में अक्सर सूफी हज़रात और योगियों के बीच वार्तालाप हुआ करती थी। इसके अलावा,  सूफी हज़रात के ईसाई धार्मिक नेताओं और यहूदी संतों के साथ भी आपसी बातचीत होती रहती थी। उनमें से कुछ ने कई साल दूसरों की धार्मिक परंपराओं को समझने में बिताए। मिसाल के तौर पर दारा शिकोह या मज़हर जाने जनान को हिंदू परंपराओं का पूरा ज्ञान था। दारे शिकोह ने तो उपनिषद को संस्कृत से फ़ारसी में अनुवाद किया और इसका नाम रखा.......... मैंने दारुल मुसन्निफीन, आज़मगढ़ में उसका कलमी नुस्खा (पांडुलिपि) देखा है। उन्होंने मजमउल बहरैन नाम की एक किताब लिखी है। ये हिंदू धर्म और इस्लाम के बीच वार्तालाप की एक महान किताब है।

लेकिन बातचीत को सफल बनाने और आवश्यक परिणाम पाने के लिए ज़रूरी है कि कुछ नियमों पर अमल किया जाए। सबसे पहली जरूरत है कि बातचीत में भाग लेने वालों में दूसरो पर श्रेष्ठता का रवैय्या नहीं होना चाहिए। यह बातचीत की आत्मा के खिलाफ है। दूसरे, बातचीत ठोस मुद्दों जैसे महिला अधिकार या युद्ध या अहिंसा आदि पर होनी चाहिए। आज इन मुद्दों पर बहुत सी गलत फहमियाँ हैं। अधिकांश गैर मुसलमानों और विशेष रूप से पश्चिम के लोगों का खयाल है कि इस्लाम महिलाओं को कोई अधिकार नहीं देता है और उन्हें अपने अधीन रखता है और ये सब मुसलमानों के बीच कुछ रिवाजों जैसे हिजाब या कई शादियों या सम्मान के नाम पर हत्या (आनर किलिंग) आदि के कारण है।

इसी तरह, जिहाद के विचार के बारे में बड़े पैमाने पर गलत फहमियाँ हैं और कुछ फतवा या ओसामा बिन लादेन के बयान हैं जिसमें न्युयॉर्क के ट्विन टावर पर हमले के औचित्य के तौर पर जिहाद को पेश किया है। वास्तव में मुसलमान और मुस्लिम विद्वानों के बीच कई शादियों और जिहाद जैसे मुद्दों के बारे में बहुत मतभेद हैं। इन लोगों के भी साथ बातचीत की ज़रूरत है। और गैर मुसलमानों के साथ बहुत अधिक बातचीत की जरूरत है।

बातचीत की प्रक्रिया में धार्मिक कार्यकर्ताओं, ऐसे विद्वानों को जिनको समस्याओं का गहरा इल्म हो, पत्रकारों (जो गलत विचारों को लिखते और फैलाते हैं) और आम लोगों के साथ ऐसे लोगों को जो गलत फहमियों का अक्सर शिकार रहे हैं,  इसमें शामिल होना चाहिए। दूसरे, उन लोगों में सीखने की विनम्रता होनी चाहिए न कि इल्म के बजाए जिहालत के आधार पर बहस करने वाले हों। लेकिन इसमें हिस्सा लेने वालों को एक दूसरे के प्रति संदेह और अविश्वास को दूर करने के लिए प्रश्न उठाने का अधिकार होना चाहिए।

तीसरे,  इन लोगों में अपने विश्वास की परंपरा की मजबूत नींव होना आवश्यक है और उसे खास अमल के कारणों की व्याख्या या शिक्षा की दलील देने के काबिल होना चाहिए। कोई शक या अशिक्षा बातचीत की आत्मा को नुकसान पहुंचा सकती है। इसके अलावा चर्चा के दौरान उठाए गए संदेह और अविश्वास को पूरे ज्ञान, विश्वास और स्पष्टीकरण के द्वारा दूर करने में सक्षम होना चाहिए।

चौथे,  उनमें बहुत धैर्य, दूसरों को सुनने की क्षमता और दूसरों की स्थिति को समझने और व्यक्त किए गए संदेह और अविश्वास को दूर करने में सक्षम होना चाहिए और बहस करने की महारत के ज़रिए दूसरे को चुप करने और वाद विवाद का इस्तेमाल करने की कोशिश नहीं होनी चाहिए। ये बातचीत के विचार को ही नष्ट कर देगा। बहस और वार्तालाप के बीच बुनियादी अंतर है।

इसके अलावा अपने ईमान की रिवायतों में मजबूत आधार रखते हुए भी दूसरों को उनके मतभेद की आलोचना किए बिना ही उनके मतभेद को स्वीकार करना चाहिए। वार्तालाप एक दूसरे की समझ को बढ़ावा देने के लिए है और न कि दूसरे की आस्था को खारिज करने या दूसरों की आस्था में गलती को खोजने के लिए है। बातचीत कभी दूसरों को बदलने के लिए नहीं होनी चाहिए बल्कि सिरफ दूसरे को समझने के लिए होने चाहिए। दोनों या बातचीत में शामिल एक से अधिक साझेदारों को अपने विश्वास की परंपरा की रोशनी में संबंधित मामले पर रोशनी डालनी चाहिए और प्रश्नो के साथ सलीके और नफासत के साथ निपटना चाहिए।

इस तरह आयोजित वार्तालाप वाकई करामात कर सकते हैं और दूसरे की आस्था को समझने के दौरान,  अपने विश्वास के बारे में वास्तविक समझ को बढ़ावा देने का काम कर सकते हैं। में 40 साल से अधिक से बातचीत की प्रक्रिया का एक हिस्सा रहा हूँ और विश्वास के साथ कह सकता हूं कि बातचीत एक विविधतापूर्ण समाज में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है। इल्मा (ज्ञान), विश्वास और स्पष्टीकरण और दूसरों के दृष्टिकोण की सराहना बातचीत के लिए बहुत उपयोगी साधन हैं।

असग़र अली इंजीनियर इस्लामी विद्वान हैं और सेंटर फॉर स्टडी ऑफ सेकुलरिज़्म एण्ड सोसाइटी, मुंबई के प्रमुख हैं।

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