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Hindi Section ( 19 Dec 2011, NewAgeIslam.Com)

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Making A Mockery Of Jihad ये तो जिहाद का मज़ाक बनाना हुआ


असगर अली इंजानियर (अंग्रेज़ी से अनुवाद- समीउर रहमान, न्यु एज इस्लाम डाट काम)

हिंदुस्तान और दूसरे कई और देशों में हुए आतंकवादी हमलों ने ये धारणा पैदा किया कि जिहाद कुरानी शिक्षा का सार है। सबसे पहले जैसा कि हम लोगों ने बार बार ज़ोर दिया है कि कुरान में जिहाद का अर्थ जंग से नहीं है, क्योंकि इसके लिए कताल औऱ हरब जैसे दूसरे शब्द हैं। कुरान में जिहाद शब्द का प्रयोग इसके मूल अर्थ में किया गया है, यानि संघर्ष करना, समाज की भलाई के लिए संघर्ष करना, अच्छाई को फैलाने (मारूफ) और बुराई (मुन्किर) को रोकने के लिए संघर्ष करना।

लेकिन जिहाद का मतलब जंग मानना जैसा कि कुछ मुसलमान करते हैं, कुरान का सार बिल्कुल भी नहीं है। कुरान में जिहाद शब्द 41 बार इस्तेमाल हुआ है लेकिन जंग के अर्थों में किसी भी आयत में इसका इस्तेमाल नहीं किया गया है। कुरान में चार बुनियादी मूल्यों का ज़िक्र किया गया है। ये इंसाफ (अद्ल), खैरख्वाही (ऐहसान), रहम (रहमत) और दूरअंदेशी (हिकमत) हैं। इस तरह कुरान इन मूल्यों का एक अवतार है और सभी मुसलमानों को इस पर अमल करना आवश्यक है। जो इन मूल्यों पर अमल नहीं करता है वो खुद के सच्चे मुसलमान होने का दावा नहीं कर सकता है। इस्लामी फिकह (इस्लामी धर्मशास्त्र) में भी जिहाद वाजिब नहीं है, जबकि ये मूल्य एक मुसलमान के किरदार (चरित्र) की ओर इशारा करते हैं और इसलिए काफी अहम हैं। इस्लामी शिक्षा में रहम (दया) केन्द्रीय दर्जा रखती है। कुरान में शब्द रहमदिलीऔर रहमत अपने विभिन्न रूपों में जिहाद के 41 बार के मुकाबले 335 बार आया है।

कुरान में सभी सामाजिक और राजनीतिक मामलों में इंसाफ पर ज़ोर दिया गया है और इंसाफ के लिए तीन शब्द- अद्ल, किस्त और हेकाम 244 बार आया है। बदला लेना इंसानी कमज़ोरी है न कि ताकत। अल्लाह से सच्ची तौबा करने वाले को अल्लाह माफ कर देता है उसी तरह एक परहेज़गार मुसलमान भी माफ करने वाला होता है। जो लोग आतंकवादी हमले के रूप में जिहाद कर रहे हैं वो असल में बदला लेने पर तुले हुए हैं, जिस तरह अल्लाह माफ कर देता है एक सच्चा मुसलमान भी माफ करता है।

शरई कानून के अनुसार जिहाद का ऐलान करने का फैसला सिर्फ राज्य या जिसे ऐलान करने का अधिकार दिया गया हो, ले सकता है। दूसरी ओर आतंकवादी हमलों की योजना और उन पर अमल कुछ तत्व ही करते हैं जो न तो राज्य के प्रतिनिधि होते हैं और न ही इसके किसी संस्थान के प्रतिनिधि होते हैं। इसलिए इनके किसी भी हमले को इस्लामी या शरई कानून के अनुसार जायज़ नहीं ठहराया जा सकता है। ये कुछ और नहीं बल्कि मासूम लोगों का कत्ल करना है। इस्लामी कानून के मुताबिक जिहाद के तहत किसी अयोद्धा (न लड़ने वाला) पर हमला नहीं किया जा सकता है और महिलाओं, बच्चो और बुज़ुर्गों पर तो बिल्कुल भी नही और न ही किसी सामुदायिक भवन को नुक्सान पहुँचा सकते हैं जब तक कि इस इमारत का इस्तेमाल फौजी कार्रवाई या हमले के लिए न किया गया हो।

इसे बड़ी आसानी से समझा जा सकता है कि इस्लामी कानून ने जंग के जो कायदे तय किये हैं वो वर्तमान समय के कानूनों या जिनेवा कन्वेंशन से अलग बिल्कुल भी नहीं है। लेकिन आतंकवादी हमले इन इस्लामी कानून का घोर उल्लंघन है और कोई तरीका नहीं है जो इन हमलों को जिहाद करार दिया जा सके। मीडिया इन आतंकवादियों को जिहादी के रूप में पेश करती है। ये व्यापक रूप में इस शब्द का गलत इस्तेमाल है और अरबी में जिहादी जैसा कोई शब्द भी नहीं है। असल में ये मुजाहिद है और इसका इस्तेमाल प्रशंसा के तौर पर किया जाता है। मुजाहिद वो होता है जो सामाजिक बुराईयों के खिलाफ एक अच्छे कारण से खुद को समर्पित करता है।

कुरान मुसलमानों को सलाह देता हैः अपने हाथों से अपने आपको तबाही के काम में मत डालो और नेक अमल (दूसरों के साथ) करते रहो। बेशक अल्लाह नेकी करने वालों को पसंद फरमाता है। अपने हाथ से अपने आपको तबाही में मत डालो, कुरान की ये सलाह काफी अहम है और आज भी इसकी प्रासांगिकता है। 9/11 हमले का क्या नतीजा निकला? क्या अलकायेदा ने पूरी इस्लामी दुनिया खासतौर से अफगानिस्तान, और इराक पर बड़ी तबाही को दावत नहीं दी? क्या इन लोगों ने अपने हाथ से खुद को अज़ाब में मुब्तेला नहीं किया? अस हमले ने किसका भला किया? क्या इस हिंसक और बेरहम हमले में कोई हिकमत थी?

बदला सिर्फ हमारे अहंकार को संतुष्ट करता है औऱ दुश्मन के अहंकार को नुक्सान पहुँचाता है और इस तरह पछतावे की जंग जारी रहती है। आतंकवादी क्या कर रहे हैं, वो बदला लेना चाहते हैं और वो भी एक कमज़ोर स्थिति से। कोई भा हमला कुछ और नहीं बल्कि हमलावरों और दूसरों के लिए सिर्फ तबाही लेकर आता है। जिहाद के शाब्दिक अर्थ के औचित्य के रूप में कई आयतों को पेश किया जाता है जबकि ये लोग कुरानी मूल्यों को नज़रअंदाज़ कर देते हैं। ये एक स्पष्ट वास्तविकता है कि चाहे अलकायेदा हो या कोई और आतंकवादी संगठन वो किसी सरकार या किसी मुस्लिम संगठन का प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं। ये लोग कुछ नाराज़ मुस्लिम नौजवानों को बयानबाज़ी से अपने साथ कर लेते हैं और जो आतंकवादी हमले करके मासूमों की जानें लेते हैं। ये हमले कुरान के सभी मूल्यों का उल्लंघन करते हैं।

सातवीं सदी के अरब की तुलना वर्तमान समय की स्थिति से नहीं किया जा सकता है। आज की दुनिया उस समय से पूरी तरह अलग है और हमें जंग से सम्बंधित कुरानी नैतिकता और निर्देशों पर अमल करना चाहिए। आज सुलह कराने और विवादों को हल करने के लिए कई संस्थान मौजूद है और किसी को भी समस्याओं को हल करने के लिए हिंसा का सहारा नहीं लेना चाहिए।

हिदुस्तानी संदर्भ में किसी भी साम्प्रदायिक हिंसा का बदला बाज़ारों में मासूम हिंदुओं और मुसलमानों पर आतंकवादी हमले करके नहीं लिया जा सकता है। ये वैसा ही जुर्म है जो साम्प्रदायिक ताकतें मासूम मुसलमानों के साथ करती हैं। हिकमत का तकाज़ा ये है कि किसी को भी बड़े सब्र के साथ लोकतांत्रिक तरीके की मदद से आमराय तैय्यार करनी चाहिए और आम लोगों का दिल जीत कर साम्प्रदायिक और फासिस्ट ताकतों को बेनकाब करना चाहिए।

उम्मीद है गुमराह मुसलमान नौजवान जो हिंसा का सहारा लेते हैं वो आतंकवादी हमलों के बेअसर होने का ऐहसास करेंगे और इसके बजाय तालीम हासिल करने और नैतिकता पर अपना ध्यान केन्द्रित करेंगे। क्या पैगमबर मोहम्मद स.अ.व. ने नहीं कहा है कि एक आलिम की रौशनाई एक शहीद के खून से अफज़ल है।

लेखक इस्लामी विद्वान और मुम्बई स्थित सेंटर फॉर स्टडी आफ सोसाइटी एण्ड सेकुलरिज़्म के प्रमुख हैं।

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