असगर अली इंजानियर (अंग्रेज़ी से अनुवाद- समीउर रहमान, न्यु एज इस्लाम डाट काम)
धार्मिक उग्रवाद धर्म से इंकार करता है। उग्रवादी इसे समझने को तैय्यार नहीं हैं। ऐसा कोई धर्म नहीं जो नफरत, गुस्सा और बदला लेने को बढ़ावा देता हो या तबाही फैलाने वाले सिद्धंतों की शिक्षा देता हो। धार्मिक उग्रवाद का दुष्परिणाम इन सब समस्याओं के रूप में सामने आ रहा है। हिंदू दर्शन सहिष्णुता और अहिंसा सिखाता है और पूरे विश्व को अपना परिवार मानता है। इसके बावजूद बीजेपी के उम्मीदवार वरुण गांधी ने अपने उत्तेजक भाषण में कहा कि जो हाथ हिंदुओं के खिलाफ उठेगा वो उसे काट डालेंगे। वो गुस्से से भरे एक युवा हो सकते हैं, लेकिन बीजेपी के वरिष्ठ नेतृत्व का इस पर क्या कहना है? इन लोगों ने इसकी निंदा नहीं की और तो और चुनाव आयोग की उन्हें उम्मीदवार न बनाने की दरख्वास्त को भी दरकिनार कर दिया।
हिंदुत्वादियों की गुजरात और उड़ीसा (कांधमाल ज़िला में ईसाई विरोधी हिंसा) में कार्रवाई दूसरे धर्म के अल्पसंख्यकों के खिलाफ बदला, गुस्सा और अहिंसा की कारवाई थी। इसमें सैकड़ों लोग मारे गये और हज़ारों लोग बेघर हो गये और आज भी इन उग्रवादियों की नफरत का शिकार हैं, जबकि इन लोगों को अपने किये पर शर्म या जुर्म का एहसास तक नहीं है। क्या इस तरह की कार्रवाई के लिए धार्मिक शिक्षा का कोई औचित्य पेश किया जा सकता है?
एक ओर तालिबान और दूसरी ओर अलकायेदा जिहाद के नाम पर सैकड़ों मासूमों की जान लिये जा रहे हैं और अपनी इस कार्रवाई को वो लोग धार्मिक सिद्धांतो से प्रेरित करार देते हैं। अलकायेदा और तालिबान ईराक और अफगानिस्तान में अमेरिकी नीतियों और हिंसा के खिलाफ प्रतिक्रिया का इज़हार कर रहे हैं। ये सच है लेकिन इनका उग्रवाद अमेरिकी नीतियों के औचित्य की तुलना में कहीं अधिक है। पहली बात , अगर जिहाद का इस्तेमाल जंग (जो कि नहीं किया जा सकता) समझ कर किया जा रहा है तो ये वास्तविकता है कि जिहाद बदले की कार्रवाई नहीं बल्कि रक्षा के लिए की गयी कार्रवाई होती है।
अलकायेदा और तालिबान दोनों ने हज़ारों मासूमों को अफागनिस्तान, पाकिस्तान और ईराक में कत्ल किया है और ये सिलसिला अभी जारी है। ये हिसाब लगाना मुश्किल है कि आत्मघाती बमबारी और बम धमाकों में पहले ही कितने लोग मारे जा चुके हैं जबकि इनमें मारे गये ज़्यादातर लोग मुसलमान रहे हैं न कि अमेरिकी। जिहाद रक्षा के लिए जंग का नाम है औऱ निश्चित रूप से आक्रमण के लिए जंग का नाम नहीं और बदला लेने के लिए तो बिल्कुल भी नहीं।
बदला लेना अपने आप में एक अधार्मिक काम है। दूसरे धर्मों की ही तरह कुरान भी मोमिनों से गुस्से को पी जाने की हिदायत करता है और काज़िमुलगैज़ (वो जो गुस्से को दबाये) के रूप में इनका ज़िक्र करता है और मोमिनों से आशा करता है कि वो अल्लाह की हिदायत पर अमल करेंगे जो रहीम और माफ करने वाला है। जो भी बदला लेता है वो अच्छा इंसान नहीं हो सकता है और एक अच्छे मुसलमान के दर्जे से तो वो कम ही होगा। इसके बावजूद हम देखते हैं कि अलकायेदा के लोग और तालिबान बदले में उन लोगों को कत्ल किये जा रहे हैं जिन्होंने कुछ भी नहीं किया है। जिहाद की तो बात ही छोड़िय किस तरह ये अमल इस्लामी हो सकता है?
हम देखते हैं कि आये दिन अफगानिस्तान, पाकिस्तान और ईराक में बम धमाके हो रहे हैं और मासूम लोग मारे जा रहे हैं हालांकि ओबामा अमेरिकी नीतियों में परिवर्तन की कोशिश कर रहे हैं और बुश पूरे मामले में कहीं भी दखल नहीं रखते हैं। एक अच्छे मुसलमान के नाते पहले बुश से बात करनी चाहिए थी, जब वो सभी मामलों के ज़िम्मेदार थे और नाकाम रहने के बाद किसी औचित्य के साथ ही हिंसा का रास्ता अख्तियार करना था।
लेकिन बुश के जाने के बाद जब ओबामा हालात को बदलने की कोशिश कर रहे हैं, तो भी ये लोग बेपरवाही से हिंसा का रास्ता अख्तियार किये हुए हैं। इन लोगों में थोड़ी बहुत भी अच्छाई है तो इससे पहले की बहुत देर हो जाये इन लोगों को बातचीत करनी चाहिए और जो भी सम्भव हो करना चाहिए ताकि इस क्षेत्र में शांति स्थापित हो सके। वास्तव में अलकायेदा और तालिबान एक मुसलमान नहीं बल्कि एक कबीलाई की हैसियत से कार्रवाई कर रहे हैं। ये लोग कबीलों की बदला लेने की परम्परा पर अमल कर रहे हैं।
जो लोग भी उग्रवाद की ओर प्रेरित होते हैं वो एक मनगढंत (मिथक) कहानी तैय्यार कर लेते हैं और सच्चाई से इंकार करते हैं और ऐसे काम करते हैं जो मनगढंत (मिथक) कहानियों को सच साबित कर सके। मिसाल के तौर पर हिंदुत्वादियों ने हिंदुस्तान में मुसलमानों और ईसाईयों के खिलाफ मनगढंत (मिथक) कहानियाँ गढ़ ली हैं और दंगों, हिंसा और हत्याओं के ज़रिए उसे सच साबित करने की कोशिश करते हैं। सत्य पर आधारित इनको कितनी भी दलीलों दी जायें ये संतुष्ट होने वाले नहीं हैं।
इन लोगों ने एक मनगढंत (मिथक) कहानी गढ़ ली है कि सभी मुसलमान आतंकवादी, जिहादी हैं और पाकिस्तान और अरब देशों के वफादार हैं इसके विरुद्ध कोई भी दलील उनको संतुष्ट नहीं कर सकेगी। इन लोगों का ये भी विश्वास है कि ईसाई धर्म स्वीकार करने वालों की संख्या में कोई इजाफ़ा नहीं हुआ है, लेकिन वो इस बात से इंकार करते है कि ईसाई धर्म मानने वालों की संख्या में पिछले कई दशकों से वृद्धि नहीं हुई है, ये तब सम्भव है जब ईसाई बड़ी संख्या में लोगों का धर्म परिवर्तन न करा रहे हों, जबकि हिंदुत्ववादी ये दुष्प्रचार करते हैं कि ईसाई देश में बड़ी संख्या में लोगों का धर्म परिवर्तन करा रहे हैं।
सभी उग्रवादी वास्तविकता से बहुत दूर होते हैं, क्योंकि सच्चाई उनकी मनगढंत (मिथक) काहानियों को समाप्त कर देगी। कुछ उग्रवादी इन मनगढंत (मिथक) कहानियों में विश्वास रखते हैं और ये ज़्यादातर पैदल सैनिक होते हैं, बाकि के उग्रवादी इस तरह की कहानियाँ पैदा करते हैं ताकि उनके निचले दर्जे के कार्यकर्त्ताओं को साहस मिले और वो उनके अनुसार काम कर सकें। राजनीतिक लीडर भी अपने उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए भी इसी तरह की कहानियाँ पैदा करते हैं लेकिन निचले दर्जे के कार्यकर्त्ता अपने विश्वास के अनुसार उस पर अमल करते हैं। उनको इस बात का यकीन दिलाया जाता है कि उन्हें ये ऐहसास हो कि वो अपने विश्वास की रक्षा कर रहे हैं।
ओसामा बिन लादेन और अलकायेदा के दूसरे अन्य लीडर ये बड़े स्पष्ट तौर पर जानते थे कि उनका मकसद क्या है और उसे कैसे हासिल करना है, लेकिन वो सभी सैनिक जो पैदल सेना के हिस्से के रूप में अपनी जानें देते हैं, वो या तो अपने लीडरों के द्वारा पैदा की गयी मनगढंत (मिथक) कहानियों में विश्वास रखते हैं या फिर उनकी अपनी मजबूरियाँ होती हैं, जैसे गरीबी, बेरोज़गारी या अपनी जान को खुद खतरा, अगर वो आत्मघाती बमबार बनने से इंकार करते हैं। ऐसे हालात में वो ऐसी मौत मरते हैं जिनका कहीं कोई ज़िक्र नहीं होता है लेकिन अगर वो आत्मघाती बमबार के रूप में खुद को उड़ा देता हैं तो उनके परिवार वालों का खयाल रखा जाता है और कई मामलों में उन लोगों का ये खयाल होता है कि मरने के बाद वो सीधे जन्नत में जायेंगे और वहाँ हमेशा हूरों के साथ रहेंगे।
इसके अलावा उग्रवादियों की हिंसा के पीछे कई बार आर्थिक हित भी छिपे रहते हैं। ये लोग किसी धार्मिक ग्रुप से जिहाद या धर्म रक्षा के नाम पर अच्छा खासा फण्ड ले लेते हैं। यही नहीं ये लोग नशीली दवाओं का अवैध कारोबार (स्मगलिंग) भी शुरु कर देते हैं जैसा कि तालिबान बड़े पैमाने पर इस कारोबार के लिए जाने जाते हैं (तालिबान के मामले में उन्हें ये कारोबार सीआईए वालों ने सिखाया है)।
इस तरह राजनीतिक उग्रवादियों समेत सभी उग्रवादी सही उद्देश्य के लिए सही माध्यम के इस्तेमाल में विश्वास नहीं रखते हैं। इसके विपरीत इन लोगों का विश्वास है कि सही उद्देश्य के लिए गलत माध्यम के इस्तेमाल में होता है (इनके अनुसार इनका उद्देश्य सही होता है लेकिन अनैतिकता इनके उद्देश्य को बिगाड़ देता है)। अगर ये नैतिक रूप से सही होते तो गलत माध्यम के इस्तेमाल के कारण इनका उद्देश्य बिगड़ जाता। नशीली दवाए हज़ारों परिवारों को तबाह कर रही हैं और तालिबान इस कारोबार के द्वारा नौजवानों को नशीली दवाएं मुहैय्या करा रहा है और दूसरों को भी इसका आदी बना रहा है।
उद्देश्य और उसको हासिल करने के माध्यमों को लेकर बहस काफी पुरानी है और उन लोगों के बीच बुहत अधिक विरोधाभास है जो सही उद्देश्य के लिए गलत माध्यम को औचित्य के रूप में पेश करते हैं और जो सही उद्देश्य के लिए सही माध्यम पर ज़ोर देते हैं। मेरे अनुसार सही उद्देश्य के लिए माध्यम भी सही होना चाहिए। एक सच्चा धार्मिक व्यक्ति कभी भी सही उदेदेश्य के लिए गलत माध्यम को स्वीकार नहीं करेगा। गांधी जी ने भी निर्णायक रूप से सही उद्देश्य के लिए गलत माध्यम के सिद्धांत को अस्वीकार कर दिया था।
धार्मिक उग्रवाद के मामले में अगर उनका उद्धेश्य भी गलत हो और इसको प्राप्त करने के लिए गलत माध्यम का इस्तेमाल भी किया जाये तो इससे उन्हें कोई परेशानी नहीं होती है और एक बार इन लोगों ने गलत तरीका इस्तेमाल किया तो फिर उसमें अपना निजी हित तलाश कर लेते हैं, क्योंकि ये बड़ी रकम के साथ ही जिंदगी की सहूलतें भी फराहम करता है। इसके बाद ये उस पैसे से एक व्यवस्था खड़ी करते हैं और फिर उस पर कंट्रोल बनाये रखने की कोशिश करते हैं। मिसाल के तौर पर लश्करे तैय्येबा के चीफ पाकिस्तान में एक बड़ी व्यवस्था को चलाते हैं। और ये लोग अरब की बड़ी कल्याणकारी संस्थाओं से ये झूठ बोलकर धन प्राप्त करते हैं कि वो इस धन को मदरसों, स्कूलों और गरीबों पर खर्च करेंगे।
इन लोगों पर ये बहुत कम धन खर्च करते हैं बाकी के धन को आतंकवादी कार्रवाईयों पर खर्च करते हैं। इस धन से आधुनिक हथियारों को खरीदा जाता है और नौजवानों को उसे चलाने का प्रशिक्षण दिया जाता है। हिंदुत्वादी भी अप्रवासी भारतीयों और मल्टी नेशनल कम्पनियों से दलितों, जनजातियों और गरीबों की मदद के नाम पर काफी धन दान के रूप में हासिल करते हैं और उसे नफरत फैलाने की अपनी मुहिम में इस्तेमाल करते हैं। अमेरिका में कुछ सेकुलर लोगों ने इससे सम्बंधित सभी आंकड़ों को इकट्ठा कर संघ परिवार को बेनकाब कर चुके हैं। इनके अनुसार विभिन्न मल्टी नेशनल कम्पनियों से गरीबों और दलितों और जनजातियों की मदद के नाम पर धन हासिल करते हैं और उनके बजाय अल्पसंख्यकों के खिलाफ नफरत फैलान और दुष्प्रचार में इस धन का इस्तेमाल करते हैं।
इस तरह ये उग्रवादी बड़ी मात्रा में धन पर कंट्रोल करते हैं और कभी भी शांति के लिए बातचीत नहीं करना चाहते हैं। अगर वो ऐसा करते हैं तो उन्हें बहुत बड़ी गैरकानूनी रकम से हाथ धोना पड़ेगा। और वो इस सुनहरे मौके को हाथ से जाने नहीं देना चाहेंगे। उनका हित सिर्फ विवाद को खड़ा करने में है, जो अक्सर कृत्रिम रूप से करते हैं लेकिन ऐसा हमेशा नहीं होता है।
तालिबान और अलकायेदा के लोग बडी मात्रा में हथियारों के ज़खीरे को भी कंट्रोल करते हैं। हम जानते हैं कि एलटीटीई के पास न सिर्फ स्वचालित मशीनगन थी बल्कि लड़ाकू जहाज़, ऐंटी एयर क्राफ्ट बंदूकें और पानी के लड़ाकू जहाज़ भी थे। कैसे इन लोगों ने ये सारे हथियार हासिल किये? ज़ाहिर है समर्थकों से मदद के अलावा नशे की दवाईयों की स्मगलिंग के द्वारा। इसके अलावा उग्रवादियों का अपने समान ग्रुपों के साथ नेटवर्क भी है। बंग्लादेश से काम करने वाले जिहादी संगठनों का उल्फा और एलटीटीई से भी सम्बंध था।
इस तरह उग्रवादी और खासतौर से धार्मिक उग्रवादी वर्तमान समय में एक बड़े चैलेंज के रूप में उभरें हैं। ये भी गौर करने लायक है कि आज उग्रवाद कई लाख डालर का कारोबार है। हथियारों के कारोबारी भी इन उग्रवादियों के सम्पर्क में रहते हैं। इसके अलावा वो कैसे आधुनिक हथियार हासिल कर सकते हैं? हालांकि सरकार हथियारों के आयात पर पाबंदी लगाती है लेकिन हथियार के कारोबारी और उग्रवादी रास्ता निकाल ही लेते हैं और कई बार सरकारी मशीनरी की मदद भी हासिल कर लेते हैं।
हालांकि आतंकवाद की निंदा में ज़्यादा ताकत खर्च होती है और सरकार भी खुद बड़ी रकम आतंकवाद से लड़ने में खर्च करती है और इस लड़ाई में उन्हीं हथियार बनाने वालों के हथियार का इस्तेमाल करती है, लेकिन कोई ये जांच नहीं करता है कि इन उग्रवादियों के पास ये हथियार कैसे आसानी से पहुँच रहे हैं? इस तरह हथियारो का कारोबार करने वाले आतंकवादी संगठनों और उनसे लड़ने वाली सरकारों के हथियार बेच कर दोनों तरफ से फायदा हासिल करते हैं।
कौन इन सभी निजी हितों को बेनकाब करेगा?
सेंटर फॉर स्टडी आफ सोसाईटी एण्ड सेकुलरिज़्म, मुम्बई
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