असगर अली इंजीनियर (अंग्रेज़ी से अनुवाद- समीउर रहमान, न्यु एज इस्लाम डाट काम)
अकसर लोग नारीवाद को पश्चिमी शब्द होने के आधार पर विरोध करते हैं। एक मौलाना को जब इस विषय पर होने जा रही वर्कशाप में बोलने के लिए निमंत्रण दिया गया तो उन्होंने नारीवाद को गैरइस्लामी मान कर इसमें भाग लेने से मना कर दिया। क्या इस्लामी दृष्टि से इस शब्द का प्रयोग आपत्तिजनक है? बिल्कुल भी नहीं।
वास्तव में इस्लाम पहला धर्म है जिसने व्यवस्थित ढंग से महिलाओं को उस समय सशक्तिकरण प्रदान किया जब उन्हें पुरुषों के अधीन माना जाता था। एक महिला के स्वतंत्र अस्तित्व और गरिमा के साथ समानता की इस समय कोई कल्पना नहीं थी। नारीवाद क्या है? सिर्फ महिलाओं का सशक्तिकरण और उन्हें भी पूर्ण मानव होने का अधिकार देने का आंदोलन है। इस तरह हम 20वीं सदी की शुरुआत में देखते हैं कि पश्चिमी देशों में महिलाओं की स्वतंत्र स्थिति नहीं थी। 1930 के दशक के बाद ही महिलाओं को समानता का अधिकार प्राप्त हुआ और कई पश्चिमी देशों ने इस संदर्भ में कानून पास किये। अब भी कई समाजों में पितृ-सत्तात्मक व्यवस्था लागू है।
हालंकि क़ुरान ने महिलाओं को अधिकार प्रदान किये हैं और उन्हें भी पुरुषों के ही समान अधिकार दिये हैं, फिर भी मुसलमान लिंग समानता को स्वीकार करने के लिए तैय्यार न थे। अरब की संस्कृति पितृ-सत्तात्मक व्यवस्था पर आधारित थी। इस कारण इनके लिए इस समानता को स्वीकार करना मुश्किल था। कई हदीसों को महिलाओं की हैसियत कम करने के लिए तैयार किया गया और इस तरह महिलाएं ज़्यादातर मुस्लिम समाजों में निर्भर रहने वाली सदस्य बना दी गयीं। अक्सर क़ुरानी आयतों की व्याख्या इस तरह की गयी कि वो पुरुषों के अधीन बन जायें। ऐसी ही एक हदीस कहती है कि अगर किसी इंसान के सज्दा करने की इजाज़त होती तो एक औरत को उसके पति का सज्दा करने का हुक्म दिया जाता।
ये पूर्णतयः क़ुरान के विरोधाभासी है, लेकिन किसी को परवाह नहीं। क़ुरान के बजाये पितृ-सत्तात्मक व्यवस्था हमारे कानूनों पर असर डालता है। वास्तव में जब पितृ-सत्तात्मक व्यवस्था की बात आती है तो इसके कानून के विशेषज्ञ क़ुरानी आयतों के मुकाबले इसे हावी होने देते हैं। या तो क़ुरानी आयतों का लिहाज़ नहीं रखा गया या फिर आयतों की इस तरह व्याख्या की गयी कि वो पितृ-सत्तात्मक व्यवस्था के अनुकूल हों। समय आ गया है कि क़ुरान की वास्तविक आत्मा को समझा जाये। लेकिन इस्लामी दुनिया इसके लिए तैय्यार नज़र नहीं आता है। गरीबी और अज्ञानता के कारण मुस्लिम महिलाएं क़ुरान के द्वारा प्रदान किये गये अधिकारों के बारे में जानकारी नहीं रखती हैं और इससे स्थिति और भी खराब हुई है। महिलाओं को उनके अधिकारों से अवगत कराने के लिए आंदोलन शुरु करने की ज़रूरत है।
एक और अहम सवालः इस्लाम और पश्चिमी देशों के नारीवाद में क्या अंतर है, या कोई अंतर नहीं है? अगर हम नारीवाद को महिलाओं के सशक्तिकरण करने के विचार के तौर पर लें तो कोई अंतर नहीं है। हम ऐतिहासिक साक्ष्यों के परिपेक्ष्य में बात करें तो मुस्लिम महिलाओं ने अपने अधिकार इस्लाम के कबायली धर्म में परिवर्तित हो जाने के कारण खो दिये, क्योंकि इसमें पितृ-सत्तात्मक मूल्य हावी थे।
दूसरी और पश्चिमी देशों में महिलाओं को कोई अधिकार नहीं थे, लेकिन अपने संघर्ष से महिलाओं ने अधिकार प्राप्त किये, जिसे नारीवाद कहा जाता है। लेकिन इस्लामी और पश्चिमी नारीवाद में मतभेद है। इस्लामी नारीवाद ऐसे मूल्यों पर आधारित है जो सकारात्मक हैं अर्थात गरिमा और मान-सम्मान के साथ समानता पर आधारित है। इस्लाम में आज़ादी एक ज़िम्मेदारी है जबकि पश्चिमी देशों में आज़ादी अनैतिकता में परिवर्तित हो जाती है, और ऐसा कानून के मामले में नहीं बल्कि निश्चित तौर पर सामाजिक और सांस्कृतिक रस्मों के मामले में है। पश्चिमी संस्कृति में यौन स्वतंत्रता मानवाधिकार में बदल गयी है और इसी तरह सेक्स भी आनंद में परिवर्तित हो गया है। और इससे एक साधन के रूप में प्रजनन अपनी पवित्रता खो रहा है।
हालांकि कुरान हिजाब या नकाब के लिए (चेहरे समेत पूरे शरीर को एक ढीले लिबास से ढंकना) नहीं कहता है, जैसा कि आमतौर पर सोचा जाता है। यौन व्यवहार के लिए ये कड़े मानदंड की बात करता है। स्त्री और पुरुष दोनों को संतुष्टि प्राप्त करने का अधिकार है (एक पुरुष के बराबर ही महिला को भी अधिकार है) लेकिन ये वैवाहिक सीमा के अंदर ही होना चाहिए। वैवाहिक जीवन से बाहर यौन सम्बंध की किसी भी शक्ल में छूट की कोई कल्पना नहीं है। वैवाहिक जीवन में प्रजनन से बड़ी पवित्रता जुड़ी हुई है।
इस पर ज़ोर देना ज़रूरी है कि पितृ-सत्तात्मक व्यवस्था वाले समाजों में पुरुष यौन व्यवहार के मूल्य निर्धारित करते हैं। ये विचार प्रस्तुत किया गया था कि पुरुष का यौन आवश्यकता अधिक होती है इसलिए कई पत्नियों की आवश्यकता होती है और एक महिला इस मामले में निष्क्रिय रहती है, इसलिए एक समय में एक पति से संतोष करती है। क़ुरान का दृष्टिकोण बहुत भिन्न है। इसके अनुसार एक या एक से अधिक विवाह की आवश्यकता का आधार इच्छा का कम या ज़्यादा होना नहीं है।
कुरान की आयते 4:3 और 4:129 में एक शादी पर ज़ोर दिया है। कई शादियों की सिर्फ इसलिए इजाज़त दी गयी थी ताकि विधवाओं और यतीमों का खयाल रखा जा सके, न कि ज़्यादा इच्छा के कारण दी गयी थी। आयत 4:129 एक शादी के आदर्श को बताती है। और बताती है कि पहली बीवी को दुविधा और उपेक्षा में नहीं रखना चाहिए। इस तरह जहाँ तक क़ुरान का सम्बंध है वैवाहिक जीवन में प्रवेश करने वाले स्त्री और पुरुषों दोनों को यौन संतुष्टि पाने का सकारत्मक अधिकार है। इसलिए एक तलाकशुदा और विधवा को दोबारा शादी करने और अपनी इच्छा को संतुष्ट करने की आज्ञा दी गयी है। पश्चिम के पूँजीवादी व्यवस्था वाले देशों में महिला की गरिमा से समझौता किया गया है और उसके शोषण के लिए उसे एक उत्पाद में बदल दिया गया है। बेशर्मी के साथ उसकी अर्द्ध नग्न तस्वीर और उसके नारित्व का व्यापारिक रूप से दोहन किया जा रहा है। ये महिलाओं की गरिमा और सम्मान की अवधारणा के विरुद्ध है। दुर्भाग्य से पश्चिमी देशों के कई नारीवादियों ने इसे नारी के मानवाधिकार के तौर पर स्वीकार किया है। यहाँ तक कि कुछ लोग (हालांकि बहुत नहीं) वेश्यावृत्ति को महिला के जीविका कमाने के अधिकार के रूप में वकालत करते हैं।
ये इस्लामी नारीवाद की अवधारणा के विरुद्ध है। इस्लाम यौन संतुष्टि को पुरुषों के समान ही महिलाओं के अधिकार के रूप में स्वीकार करता है और वैवाहिक जीवन से बाहर यौन सम्बंधों से मना करता है। ये एक ओर महिलाओं के सम्मान और गरिमा के स्तर को बढाता है तो दूसरी ओर यौन सम्बंधों के पवित्रता के स्तर को बढ़ाता है और इसे प्रजनन तक ही सीमित करता है। इस्लामी महिला अधिकारों की वकालत करने वालों को कुछ आदर्शों पर अमल करने की आवश्यकता है, जो पश्चिमी देशों की नारीवादियों के लिए आवश्यक नहीं है।
स्रोतः दि डॉन, पाकिस्तान
URL for English article: http://www.newageislam.com/islam,-women-and-feminism/islam-and-feminism-/d/4802
URL for Urdu article: https://newageislam.com/urdu-section/islam-feminism-/d/5833
URL: https://newageislam.com/hindi-section/islam-feminism-/d/5932