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Hindi Section ( 29 Oct 2011, NewAgeIslam.Com)

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Is Islam Compatible with Socialism? क्या इस्लाम और समाजवाद एक सिक्के के दो पहलू हैं?


असग़र अली इंजीनियर ( अंग्रेज़ी से अनुवाद- समीउर रहमान, न्यु एज इस्लाम डाट काम)

एक दोस्त ने मुझे कहा कि मैं इस्लाम समाजवाद के साथ सुसंगत है या नहीं, इस विषय पर लिखूँ। जैसा कि बहुत से लोगों के अनुसार समाजवाद का अर्थ काफिराना दर्शन से है, इसलिए समाजवाद किसी भी सूरत में काबिले कुबूल नहीं है। इस्लाम की बुनियादी शिक्षा एक खुदा में यकीन है, ऐसे में समाजवाद और इस्लाम कैसे साथ साथ चल सकते हैं। मुझे ये खयाल सही नहीं लगता है। यहाँ तक की कई आदरणीय उलमा ने समाजवाद को इस्लामी शिक्षा के अहम हिस्से के रूप में स्वीकार किया है। इस उपमहाद्वीप के दो बड़े उलमा मौलाना हसरत मोहानी और मौलाना ओबैदुल्लाह सिंधी ने बड़े उत्साह के साथ कम्युनिस्ट आंदोलन का समर्थन किया। ज्ञात रहे कि मौलाना हसरत मोहानी तो हिंदुस्तान में कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापकों में से थे। मौलाना ओबैदुल्लाह सिंधी जो खिलाफत आंदोलन के समय अफगानिस्तान प्रवास कर गये थे, उन्होंने वहाँ पर हिंदुस्तान की अंतरिम सरकार की स्थापना की और जब ब्रिटिश सरकार की ओर से अफगानिस्तान के शाह पर इस अंतरिम सरकार के सदस्यों को अपने देश से निकाल बाहर करने का दबाव पड़ा तो मौलाना, महाराज प्रताप सिंह के साथ रूस चले गये और वहां लेनिन से मुलाकात की और हिंदुस्तान से ब्रिटिश शासन की समाप्ति की रणनीति पर विचार विमर्श किया। मौलाना सिंधी काफी समय तक भूमिगत रहे और पिछली सदी के चौथे दशक की शुरुआत में हिंदुस्तान वापस आये।

शायर और दार्शनिक इक़बाल ने भी अपनी पुस्तकखिज़्रे राह में समाजवाद की प्रशंसा की है। इस पुस्तक को इक़बाल ने तुर्की में उस्मानी शासन की समाप्ति और रूसी क्रांति के मौके पर लिखा था। इक़बाल ने मार्क्स की भी तारीफ की है और उन्हें पैगम्बरी से खाली बाकिताब इंसान कहा है। उन्होने एक दिलचस्प नज़्म लेनिन खुदा के हुज़ूर में लिखी है। इसके अलावा वाम विचार के मानने वाले एक पादरी ने जो 1930 के दशक में लाहौर के गवर्नमेण्ट कालेज में पढाते थे और इस्लामी स्कालर भी थे, उन्होंने अपनी किताब इस्लाम इन माडर्न वर्ल्ड में लिखा है कि इस्लाम दुनिया में सुनियोजित सामाजिक आंदोलन था, और ऐसा बिना किसी कारण के नहीं था।

इस्लाम ने न सिर्फ गरीबों और पिछड़ों के लिए गहरी हमदर्दी का इज़हार किया है बल्कि क़ुरान की मक्का में नाज़िल हुई कई सूरतों में दौलत के एक जगह इकट्ठा होने की कड़े शब्दों में निंदा की है। मक्का उन दिनों अंतर्राष्ट्रीय व्यापार का मुख्य केंद्र था और वहाँ भी आज के दिनों की तरह एक ओर बहुत अमीर लोग ( कबीलों के सरदार) थे, तो दूसरी ओर बहुत गरीब लोग भी थे। इसलिए हम सूरे नम्बर 104 और 107 (दोनों मक्की) में इस तरह की निंदा पाते हैं। और एक मदनी सूरे (9:34) में हम दौलत के जमा करने की निंदा पाते हैं। इस आयत में है किः और जो लोग सोना और चांदी जमा करते हैं, और उसको खुदा के रास्ते में खर्च नहीं करते हैं, उनको उस दिन अज़ाबे अलीम की खबर सुना दो।

इस आयत में भी मालो दौलत जमा करने की निंदा की गयी है। सहाबी हज़रत अबु ज़र (रज़ि.) ये आयत अक्सर उन लोगों के सामने पढ़ा करते थे, जो माल को जमा करते थे, और वो ऐसे लोगों से हाथ मिलाने से इंकार करते थे। इसलिए हज़रत अबु ज़र (रज़ि.) जिससे भी हाथ मिलाते ते वो गर्व महसूस करता था और इस हाथ मिलाने के बारे में अपनी तारीफ भी लोग दूसरों से किया करते थे। हज़रत अबु ज़र (रज़ि.) समझौता न करने वालों में से थे इसलिए रब्ज़ा के मरुस्थल में जिस समय उनका इंतेकाल हुआ, उस वक्त उनके साथ कोई न था और वो उस जगह निर्वासित जीवन जी रहे थे। उनकी पत्नी को कफन खरीदने के लिए पैसे न मिल सके, इसलिए उन्हें उनके कपड़ों के साथ ही दफ्न कर दिया गया।

क़ुरान मोमिनों को मशविरा देता है कि जो कुछ भी उसके पास ज़रूरत से ज़्यादा है, उसे खर्च करो। क़ुरान ने अफु शब्द का प्रयोग किया है, जिसका अर्थ है कि किसी की बुनियादी आवश्यकता के बाद जो बचा हुआ है। क़ुरान की आयत (2:219) कहती है, और ये भी तुमसे पूछते हैं कि (खुदा की राह में) कौन सा माल खर्च करें, कह दो कि जो ज़रूरत से ज़्यादा हो। इस तरह ये समाजवादी विचार के बहुत करीब है। समाजवादी विचार कहता है कि सबको उसकी ज़रूरत के हिसाब से मिले। क़ुरान ने बुनियादी तौर पर न्याय पर ज़ोर दिया है और अल्लाह का एक नाम आदिल भी है, जिसका अर्थ न्याय है। इसलिए अन्याय करने वाला समाज कभी इस्लामी समाज हो ही नहीं सकता है। बदकिस्मती से आज कोई भी इस्लामी देश क़ुरान के इस मानदंड को पूरा नहीं कर पा रहा है।

क़ुरान में इंसाफ की अहमियत इस कदर है कि ये कहता है (5:8)इंसाफ किया करो कि यही परहेज़गारी की बात है। क़ुरान ये भी कहता है कि इंसाफ करो, चाहे तुम्हारे खिलाफ और तुम्हारे दुश्मनों के हक़ में ही क्यों न हो। क़ुरान कहता है,ऐ ईमान वालो, इंसाफ पर कायम रहो, और खुदा के लिए सच्ची गवाही दो, चाहे (इसमें) तुम्हारा या तुम्हारे माँ-बाप और रिश्तेदारों का नुक्सान ही हो। अगर कोई अमीर है या फकीर, तो खुदा उनका खैरख्वाह है। (4:135)समाजवाद का बगैर आम इंसाफ के व्यापक अर्थों में क्या मतलब है, और अगर इन आयतों को सूरे नम्बर 104 और 107 के साथ मिला कर पढ़ा जाये तो, आम इंसाफ को अलग नहीं किया जा सकता है।

क़ुरान अपनी नियत को स्पष्ट करने के लिए दूसरी शब्दावली का भी प्रयोग करता है, जैसे मुसतक्बरून और मुस्तअदिफून जिसका अर्थ ताकतवर और शोषण करने वाले, कमज़ोर और शोषित किये जाने वाले के हैं। इस सिलसिले में ये अहम शब्दावली है। अल्लाह के भेजे सभी पैग़म्बर कमज़ोर समाज से सम्बंधित थे, जैसे हज़रत इब्राहीम, हज़रत मूसा और अन्य जिन्होंने नमरूद और फिरऔन जैसे ताकतवर और शोषण करने वालों के खिलाफ लड़ाई लड़ी थी। क़ुरान के अनुसार मुसतक्बरून और मुस्तअदिफून के बीच संघर्ष जारी रहेगा और अंत में मुस्तअदिफून ही विजयी होंगे और वही इस ज़मीन के वारिस होंगे।(28:5)

बेशक क़ुरान समाज के कमज़ोर तब्कों के हक़ में है, और ये आम लोगों (तानाशाहों की नहीं) के नेतृत्व की भविष्वाणी करता है। इमाम खुमैनी से इन आयतों की ओर सबसे पहले हमारा ध्यान आकर्षित करवाया।(28:5) और उन्होंने ही अमीरों की दौलत ज़ब्त कर लेने का आदेश दिया था। उन्होंने इसी की मदद से मुस्तअदिफून की बुनियाद रखी। बदकिस्मती से दूसरी क्रांतियों की तरह ईरान की क्रांति पर भी निजी स्वार्थ वाले लोग प्रभावी हो गये थे। अक्सर जैसे ही कोई सियासी निज़ाम अस्तित्व में आता है निजी स्वार्थ वाले लोग उसके चारों ओर पैदा हो जाते हैं और उस पर कब्ज़ा कर लेते हैं। इसलिए किसी भी क्रांति को कमजारे तब्कों की लगातार निगरानी की जरूरत होती है। पैगम्बरे इस्लाम मोहम्मद (स.अ.व.) के देहांत के कुछ ही समय के बाद इस्लामी क्रांति की भी यही हाल हुआ था।

सेण्टर फार स्टडी आफ सोसाइटी एण्ड सेकुलरिज्म, मुम्बई


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