असगर अली इंजानियर (अंग्रेज़ी से अनुवाद- समीउर रहमान, न्यु एज इस्लाम डाट काम)
मध्यकाल में उलमा ने पूरी दुनिया को दो हिस्सों में बाँटा था। दारुल इस्लाम और दारुल हरब यानि इस्लाम का मस्कन और जंग का मस्कन। उन दिनों में लोकतंत्र नहीं हुआ करता था और हर जगह बादशाह और तानाशाह हुआ करते थे। उस वक्त नागरिकता की कोई कल्पना नहीं थी और जिन पर शासन किया जाता था उन्हें रिआया माना जाता था। जहाँ खुदमुख्तार (स्वेच्छाचारी) शासक या सुल्तान शासन करते थे उस इलाके को दारुल इस्लाम कहा जाता था और जहाँ गैरमुस्लिम शासक हुआ करते थे और मुसलमानों को सताया जाता था उसे दारुल हरब यानि जंग का मस्कन कहा जाता था।
हमें ये याद रखना होगा कि दारुल हरब औऱ दारुल इस्लाम का बंटवारा उलमा ने किया था न कि कुरान या पैगम्बर ने। कुरान ने लोगों को तीन किस्मों (श्रेणियों) में बांटा है, यानि मुसलमान, अहले किताब और काफिर व मुशरिक जिनके पास रहनुमाई के लिए कोई किताब भी नहीं है और न ही वो किसी औपचारिक धर्म पर विश्वास करते हैं। कुरान या पैगम्बर ने दुनिया को दारुल इस्लाम या दारुल हरब में नहीं बांटा है।
वीएचपी के इंटरनेशनल जनरल सेक्रेटरी अशोक सिंघल ने हिंदुस्तानी मुसलमानों से मांग की है कि वो हिंदुस्तान के दारुल अमन होने का ऐलान करें, यानि अमन का मस्कन जो न तो दारुल इस्लाम है और न ही दारुल हरब है। श्री सिंघल की अज्ञानता पर कोई सिर्फ अफसोस कर सकता है या उन्हें अपने कुछ मुखबिरों से गलत खबरें मिलती रही हैं। उलमा ने ब्रिटिश शासन के दौरान बहुत कम समय के अलावा कभी भी हिंदुस्तान को दारुल हरब नहीं माना। इस वक्त भी उलमा और मुस्लिम लीडर इससे सहमत नहीं थे।
मशहूर आलिम शाह वलीउल्लाह के बेटे शाह अब्दुल अज़ीज़ जो खुद भी बहुत बड़े आलिम थे, उन्होंने ब्रिटिश शासन के दौरान हिंदुस्तान के दारुल अमन होने का ऐलान किया था और एक फतवा जारी किया था कि हिंदुस्तानी मुसलमान ब्रिटिश फौज में मुलाज़िमत कर सकते हैं। इसके अलावा सर सैय्यद अहमद खान और उनके मानने वालों ने कभी भी हिंदुस्तान को दारुल हरब नहीं समझा। इस्लाम में चर्च जैसी कोई व्यवस्था नहीं है, इसलिए विभिन्न उलमा एक मसले पर अलग अलग राय दे सकते हैं।
असल में हिंदुस्तान को कभी भी दारुल हरब नहीं कहा गया और देवबंद के उलमा ने सिर्फ खिलाफत तहरीक के दौरान इसे दारुल हरब कहा था, जब इनमें से कई उलमा अफगानिस्तान चले गये थे और वहाँ पर राजा महेन्द्र प्रताप के नेतृत्व में एक अस्थायी सरकार बनायी थी। इस अस्थायी सरकार के राष्ट्रपति राजा महेन्द्र प्रताप थे और प्रधानमंत्री मौलाना ओबैदुल्लाह सिंधी थे। उस वक्त हिंदुस्तान को दारुल हरब कहा गया और सभी मुसलमानों के लिए ये वाजिब हो गया कि वो दारुल इस्लाम यानि अफगानिस्तान चले जायें क्योंकि वहाँ पर एक मुसलमान शहंशाह हुकूमत कर रहा था, और ब्रिटिश सरकार के खिलाफ जिहाद करें।
हालांकि ये राजनीतिक रूप से एक नादानी भरा फैसला था और ये भारी संकट साबित भी हुआ क्योंकि अफगानिस्तान ने ब्रिटिश हुकूमत के दबाव में उन हिंदुस्तानी मुसलमानों को अपने यहाँ से निकाल बाहर किया और अफगानिस्तान से मध्य एशिया के इलाके में फरार होते समय हज़ारों लोगों को जानें गवानी पड़ीं। सिवाय इस संक्षिप्त अवधि के हिंदुस्तान के दारुल हरब होने का ऐलान कभी भी नहीं किया गया।
इसके अलावा ये भी समझना ज़रूरी है कि उलमा ने ये श्रेणी मध्यकाल में बनायी थी और ये आधुनिक लोकतंत्रों पर लागू नहीं होती है। यहाँ तक कि बुश के शासनकाल में अमेरिका को भी दारुल हरब नहीं कहा गया जबकि उसने दो मुस्लिम देशों पर हमला किया था और इज़राईल को मदद और बढ़ावा दे रहा था। हालांकि अमेरिका अपने देश के मुसलमानों को भी अपना नागरिक मानता है और उनके राजनीतिक और धार्मिक अधिकारों की पूरी गारण्टी देता है।
मध्यकाल के दौर की ये दो श्रेणियाँ उस वक्त उलमा ने बनायीं थीं जो आज की लोकतंत्रिक दुनिया पर लागू नहीं होती हैं। हिंदुस्तान की तो बात ही छोड़िए आज कोई भी देश इस श्रेणी में नहीं आता है। यहाँ तक कि कई लोगों के अनुसार इज़राईल भी दारुल हरब की श्रेणी में नहीं आता है, क्योंकि इज़राईल ने बहुत से अरब फिलिस्तीनी नागरिकों को भी नागरिकता के अधिकार दिये हुए हैं। सिंघल साहब इस तरह के खत लिखने से पहले इन तथ्यों की जाँच कर लें।
उन्होंने ये भी मांग की है कि हिंदुओं को काफिर न कहा जाये। अगर श्री सिंघल ने हिंदुस्तान में मुसलमानों के साहित्य का अध्ययन किया होता तो उन्हें मालूम चल जाता कि दाराशिकोह और मज़हर जानी जनान जैसे कई सूफी संतों ने हिंदुओं को अहले किताब माना है, जैसे ईसाई और यहूदी आसमानी किताब वाले माने जाते हैं। मज़हर जानी जनान ने कई दिलचस्प टिप्पणियाँ की हैं। इस सम्बंध में अपने एक शिष्य के खत में लिखे सवाल का जवाब दिया है जिसमें इस शिष्य ने पूछा था कि क्या हिंदुओं को काफिर माना जा सकता है।
मज़हर जानी जनान ने खत के जवाब में लिखा था कि हिंदुओं को काफिर नहीं माना जा सकता है, क्योंकि काफिर वो होते हैं जो हक़ से इंकार करते हैं और हिंदुओं के पास वेदों के रूप में किताबें हैं जो अल्लाह की तरफ से नाज़िल हुई हैं। इसके अलावा उनका ये भी मानना था कि हिंदू तौहीद यानि एक खुदा में विश्वास रखते हैं जो हिंदू परम्पराओं में निर्गुण और निरंकार यानि बिना किसी रूप औऱ आकार के, जो तौहीद का सबसे अज़ीम तसव्वुर (उच्च्तम अवधारणा) है।
यही नहीं उन्होंने कहा कि कुरान में अल्लाह ने फरमाया है कि हमने सभी कौमों में अपने रसूल भेजे हैं फिर अल्लाह कैसे हिंदुस्तान को भूल सकता है। अल्लाह ने ज़रूर हिंदुस्तान में नबियों को भेजा होगा। हो सकता है कि श्रद्धेय राम और कृष्ण अल्लाह के भेजे हुए रसूल हों। दूसरे सूफी संतों का भी खयाल है कि अल्लाह ने अपने रसूल को हिंदुस्तान भी ज़रूर भेजा होगा, क्योंकि मुसलमानों का ईमान है कि अल्लाह ने एक लाख चौबीस हज़ार नबियों को भेजा है, हालांकि कुरान ने उनमें से सभी के नाम नहीं दिये हैं।
बहुत से मुसलमान उलमा के अनुसार महात्मा बुद्ध भी अल्लाह के रसूल थे और उन पर एक किताब बुज़ासाफ (जिसका अनुवाद अरबी और फारसी में है) मेरे बचपन के दिनों में मुस्लिम घरों में काफी मशहूर हुआ करती थी। अल्लामा इकबाल ने भी राम को इमामे हिंद कहा है, जो किसी भी मुसलमान के द्वारा राम को दिया गया सबसे बड़ा आदर हो सकता है, और किसी भी तरह से अगर कुछ लोग हिंदुओं को काफिर समझते हैं तो कुरान मुसलमानों को हिदुओं के साथ शांतिपूर्ण तरीके से रहने की इजाज़त देता है। (देखें आयत 109)
कुरान सिर्फ उन काफिरों के साथ जंग की इजाज़त देता है जो मुसलमानों के साथ जंग करते हैं और उन्हें सताते हैं न कि सभी काफिरों के साथ। ये बहुत बड़ी गलतफहमी है जो मुसलमानों या गैरमुसलमानों में मौजूद उग्रवादियों के द्वारा फैलाई गयी है कि मुसलमान काफिरों के साथ शांतिपूर्ण तरीके से नहीं रह सकते हैं। दरअसल उलमा ने काफिरों को भी दो श्रेणियों में बांटा है- हरबी और गैर यानि हरबी काफिर वो हैं जो जंग को पसंद करने वाले हैं और दूसरे जंग को नापसंद करने वाले काफिर हैं। जहाँ तक जंग को नापसंद करने वाले काफिरों का सवाल है तो ये मुसलमानों की ज़िम्मेदारी है कि वो उनके साथ शांतिपूर्ण तरीके से रहें।
ये खुशी की बात थी कि जमीअत उलमाए हिंद ने श्री सिंघल के खत का जवाब फौरन दिया और ये ऐलान किया कि ब्रिटिश हुकूमत की अल्प-अवधि के अलावा हिंदुस्तान हमेशा दारुल अमन था। इन लोगों ने काफिरों के बारे में भी स्पष्टीकरण दिया। ये भी काबिले गौर है कि देवबंदी उलमा ने जिन्ना के दो कौमी नज़रिये का कभी भी समर्थन नहीं किया था और इसका कड़ा विरोध किया था और एक राष्ट्र की अवधारणा का समर्थन किया था। यही नहीं उस वक्त जमीअते उलमाएं हिंद के अध्यक्ष मौलाना हुसैन अहमद मदनी ने एक किताब ‘मुत्तेहदा कौमियत और इस्लाम’ के शीर्षक से लिखी। बंटवारे के बाद से अब तक मुसलमान एक व सेकुलर राष्ट्र की अवधारणा का समर्थन करते हैं। यहाँ तक कि बंटवारे को मुसलमानों की बहुत कम आबादी ने समर्थन किया जो मुसलमानों की कुल आबादी के 5 फीसद से भी कम था।
ये दुर्भाग्य है कि संघ परिवार अब भी हिंदू राष्ट्र की बात करता है और चाहता है कि हिंदुस्तान के संविधान में संशोधन हो और हिंदू राष्ट्र के समर्थन में इसके सेकुलर चरित्र को खत्म कर दिया जाये। दरअसल हिंदुस्तान के सभी सेकुलर नागरिकों हिंदू, मुसलमान, ईसाई, बौद्ध, पारसी और सिखों को चाहिए कि वो श्री सिंघल को खत लिखें और और उनसे हिंदू राष्ट्र की अवधारणा का खंडन करने को कहें और इस पर उन्हें अपना स्पष्टीकरण देने की मांग करें।
ये लोग श्री सिंघल से सभी ईसाईयों और मुसलमानों की रक्षा और उनके सुरक्षित जीवन की गारण्टी की भी मांग कर सकते हैं, क्योंकि ये इनके परिवार के ही सदस्य हैं जो अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों की हत्या कर रहे हैं। गुजरात में दो हज़ार मुसलमानों और उड़ीसा में 40 से ज़्यादा ईसाईयों को बेरहमी से कत्ल कर दिया गया। ये आंकड़े सिर्फ दो दंगों के हैं। आज़ादी के बाद इस तरह के सैकड़ों दंगे देश में हो चुके हैं और मुसलमान मुश्किल से ही खुद को यहां सुरक्षित महसूस करते हैं और अब इस जमात में ईसाई लोग भी शामिल हो गये हैं।
इसके अलावा हिंदुस्तान जैसे लोकतांत्रिक देश में सभी को बिना किसी शर्त के जीने का हक़ है। शायद श्री सिंघल का कभी भी सेकुलर लोकतांत्रिक संस्कृति में विश्वास ही नहीं था और इसलिए वो हिंदुस्तान में अल्पसंख्यकों के रहने के लिए शर्तें लगाना चाहते हैं। पूरा संघ परिवार इस काम में लगा हुआ है और इस सिलिसले में ये आवाज़े उठती रही हैं। सेकुलर और लोकतांत्रिक हिंदुस्तान में रहने के लिए कानून के अलावा कोई भी शर्ते नहीं लगा सकता है और ऐसे किसी भी कानून पर सभी को अमल करना ज़रूरी होगा। ऐसा न करने वाले पर कानून अपने तरीके से कार्रवाई करेगा। कानून तोड़ने वाले को सिर्फ सज़ा दी जा सकती है। उसे एक नागरिक के अधिकारों से वंचित नहीं किया जा सकता है।
हिंदुस्तान हमेशा ही कई संस्कृतियों और बहुलवाद में विश्वास रखने वाला देश रहा है और यही इस देश की ताकत भी रही है। वर्तमान समय में कुछ उग्रवादियों के अलावा सभी हिंदुस्तानी हमेशा सहिष्णु रहे हैं। ये ब्रिटिश हुकूमत थी जिसने हमें बांटा और पहली बार एक राजनीतिक श्रेणी बनायी जिसे साम्प्रदायिकता कहते हैं। इस तथ्य से हम हिंदुस्तानी पहले परिचित नहीं थे। आज हिंदुस्तानी राजनीतिज्ञों का एक हिस्सा भी अपने राजनीतिक अस्तित्व के लिए इस रणनीति को अपना रहा है।
मुझे श्री सिंघल के लिए एक बार फिर ये बात दुहरा लेने दें कि मुसलमान और दूसरे अल्पसंख्यकों ने हिंदुस्तान को हमेशा दारुल अमन माना है और उनकी वफादारी इस महान देश के साथ रही है जो कि इनका वतन हैं। और इस विश्वास से वो कभी पीछे हटने वाले नहीं हैं। और इस लेख के लेखक को भी पक्का विश्वास है कि सभी इंसान चाहे उनका धार्मिक विश्वास या सांस्कृतिक मूल्य कुछ भी हों उन्हें शांतिपूर्ण तरीके और सद्भाव के साथ रहना चाहिए। हमारी राजनीति कभी भी धर्म, जाति या भाषा पर आधारित नहीं होनी चाहिए। ये सिर्फ हमारी साझा समस्याओं पर आधारित होनी चाहिए। दुर्भाग्य से हमारे राजनीतिज्ञ धर्म, जाति और भाषा को अपने राजनीतिक फायदे के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं और हमारी एकता को नुक्सान पहुँचा रहे हैं। हिंदुस्तान के लोगों को इस तरह की रीजनीति को अस्वीकार कर देना चाहिए।
लेखक इस्लामी विद्वान और सेंटर फार स्टडी आफ सोसाइटी एण्ड सेकुलरिज़्म, मुम्बई के प्रमुख हैं।
URL for English article:
URL for Urdu article: https://newageislam.com/urdu-section/india-dar-ul-aman-/d/6179
URL for this article: https://newageislam.com/hindi-section/india-dar-ul-aman-/d/6210