असगर अली इंजीनियर (अंग्रेज़ी से अनुवाद- समीउर रहमान, न्यु एज इस्लाम डाट काम)
हाल ही में दारुलऊलूम देवबंद ने एक फतवा जारी किया जो कहता है अगर कोई महिला किसी सरकारी या निजी दफ्तर में मर्दों के साथ काम करती है, तो उसके परिवार के लिए उसकी आमदनी हराम होगी। ये फतवा हिंदुस्तान के एक मशहूर दैनिक टाइम्स आफ इण्डिया में प्रकाशित हुआ। इसने मधुमक्खी के छत्ते में हाथ डालने का काम किया और परिणामस्वरूप बड़ी तादाद में मुसलमान पुरुष और महिलाओं समेत कुछ उलमा ने फतवा पर विरोध प्रदर्शन किया और दारुलऊलूम को कहना पड़ा कि उसने कभी ऐसा फतवा जारी ही नहीं किया। उसने सिर्फ सार्वजनिक दफ्तर में महिलाओं के काम करने के बारे में पूछे गये एक सवाल का जवाब दिया था।
इस पूरे मामले में दो बातें काफी अहम हैं। एक ये कि इस तरह के मामलात विशेष रूप से महिलाओं और उनके अधिकारों के बारे में जो कुछ भी उलमा कहते हैं, उन्हें मुसलमान यूँ ही कुबूल करने वाले नहीं हैं। यहाँ तक कि कई उलमा ने इस फतवे की शरई हैसियत के बारे में सवाल किये। दूसरा ये कि हमारे उलमा सिर्फ किताबों के शब्दों पर गौर करते हैं न कि मसले को असल रूप में समझने की कोशिश करते हैं और ये परेशान करने वाला पहलू है। जो कुछ हमारे पूर्ववर्तियों ने आज से अलग हालात में लिखा वो उन लोगों के लिए पवित्र हो गया और समाज में चाहे जितना परिवर्तन हुआ हो उन्हें उसी पर अमल करना है।
जिन उलमा ने इस फतवे का बचाव किया उनमें से ज़्यादा तर की दलील है कि महिलआएं शरई हुदूद (सीमा) में रह कर काम कर सकती हैं। पहला सवाल ये उठता है कि शरई हुदूद सिर्फ महिलाओं पर ही क्यों लागू होती है? और दूसरे कौन तय करेगा कि शरई हुदूद क्या होंगी? इन उलमा के अनुसार पुरुषों और महिलाओं का आपस में करीब आना फितना के बराबर है। एक महिला के चरित्र और उसकी ईमानदारी का इन लोगों के लिए कोई मतलब या अहमियत नहीं हैं। अगर वो पुरुषों और महिलाओं वाले एक सम्मेलन में अपने चेहरे से पर्दा हटाती हैं तो वो एक फितना में बदल जाती हैं।
नबी करीम स.अ.व. की ज़िंदगी में ऐसे कई मौके आये जब मर्द और औरतें एक साथ थे और हज़रत आयेशा रज़ि. ने जंगे जमल (ऊँट) में सहाबा का नेतृत्व किया और उस वक्त उनके आस पास सैकडों सहाबा थे, लेकिन उस वक्त उनको किसी ने नहीं बताया कि वो घर से बाहर न निकलें और जंग में हिस्सा न लें। एक मशहूर महिला शिफा बिन्त अब्दुल्लाह को हज़रत उमर रज़ि. ने बाज़ार के इंस्पेक्टर के पद पर नियुक्त किया था और किसी ने भी इस पर ऐतराज़ नहीं किया। वो बाजार के इंस्पेक्टर की हैसियत से क्या करती थीं? क्या सिर्फ महिलाओं के मामलों को ही देखा करतीं थी?
शरीअत की बुनियाद कुरान है लेकिन कहीं भी कुरान आम महिलाओं के लिए पर्दे का ज़िक्र नहीं करता है। लेकिन दूसरी ओर ये महिलाओं को सलाह देता है कि वो अपनी ज़ीनत को न दिखायें (24:31) लेकिन कुरान जीनत और ज़ेवरात क्या हैं इसको स्पष्ट नहीं करता है। इसे विभिन्न टीकाकारों (मुबस्सरीन) ने अपने सासंकृतिक वातावरण के अनुसार बताने की कोशिश की। कुरान तो ये भी नहीं कहता है कि उन्हें सिर ढंक कर रखना चाहिए या सिर्फ चेहरे को ही। दूसरी और कुरान कहता है ‘सिवाए इसके जो ज़ाहिर है’ और बाकी व्याख्या पर छोड़ देता है। टीकाकारों के बीच इस पर लगभग सहमति है कि चेहरे और दोनों हाथों को खुला रख सकते हैं। हालांकि ये महिलाओं को सलाह देता है कि वो अपने सीनों को ढंक कर रखें।
ऊपर वर्णित आयत में बाद में महिलाओं और पुरुषों को ये सलाह दी गयी है कि ’मोमिन मर्द अपनी निगाह नीची रखा करें और अपनी शर्मगाहों की हिफाज़त किया करें और मोमिन ख्वातीन (महिलाएं) भी अपनी निगाह नीची रखा करें और अपनी शर्मगाहों की हिफाज़त किया करें’ (24:30) दरअसल ये उन दोनों आयतों का सबसे अहम हिस्सा है और आयत 30 को अकसर नज़रअंदाज़ किया जाता है जिसमें मर्दों को भी अपनी नज़रें नीची रखने और अपनी शर्मगाहों की हिफाज़त करने के लिए कहा गया है।
इसके बजाय पूरी ज़िम्मेदारी औरतों पर डाल दी गयी है, वो अपने शरीर को चेहरे समेत ढंक कर रहें वर्ना वो फितना का ज़रिआ बन जाती हैं। कुरान ने इसकी ज़िम्मेदारी मर्द और औरतों दोनों पर डाली है। ये बड़ी बदकिस्मती है कि जब बात औरतों की आती है तो हम पूरी तरह शरीअत के मकसद को भी भूल जाते हैं और सिर्फ महिलाओं को उसके बर्ताव के लिए ज़िम्मेदार ठहराते हैं।
पूरे कुरान में मर्दों और औरतों को उनके कर्मों के लिए ज़िम्मेदार ठहराया गया है और उनको उनके कर्म के अनुसार ही ईनाम या सज़ा दी जायेगी। अगर किसी को इसमें और स्पष्टीकरण चाहिए तो वो कुरान की सभी दूसरी आयतों के अलावा आयत 33:35 देखे। अगर पुरुष और महिलाएं अपने कर्म के लिए बराबर ज़िम्मेदार हैं तो अपने यौन आचरण के लिए भी ज़िम्मेदार होंगे। और महिलाएं ही अकेले नहीं पुरुष भी फितना का ज़रिआ होंगे। जैसा कि आज हमारी फिकह कहती है।
दरअसल हमारे उलमा जिसे शरई हुदूद कहते हैं वो मर्दों ने तय की है जो मध्यकाल में महिलाओं के प्रति अपने सांस्कृतिक व्यवहार के कारण महिलाओं को दूसरे दर्जे और मर्दों के मुकाबले असमान मानते थे। कुरान की सच्ची भावना को ध्यान में रखते हुए पूरी फकह को व्यापक रूप से संशोधित किया जाना चाहिए और साथ ही कुरान के इरादे की बेहतर समझ के लिए व्यापक रूप से उचित कार्यप्रणाली और फ्रेमवर्क तैय्यार करने की ज़रूरत है, न कि टुकड़ों में जैसा कि हमारे टीकाकार करते हैं।
धार्मिक परिभाषा के बजाये मध्यकाल या सांस्कृतिक रूप से शरई हुदूद की समझ पर टिके रहने से भविष्य में इस तरह के फतवों से बचने का मकसद हल नहीं होगा।
लेखक प्रसिद्ध इस्लामी विद्वान हैं और सेण्टर फॉर स्टडी आफ सोसाइटी एण्ड सेकुलरिज़्म, मुम्बई के प्रमुख हैं।
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