असद मुफ्ती
10 मार्च, 2013
(उर्दू से अनुवाद- समीउर रहमान, न्यु एज इस्लाम)
मार्च दुनिया भर की औरतों के लिए ऐतिहासिक महीना क़रार दिया गया है। इस मौक़े पर उनकी क़ुर्बानी, मोहब्बत, धैर्य, वफ़ादारी और कर्तव्यनिष्ठा के ज़रिए परिवार और समाज को खुशहाल बनाने पर सलाम पेश किया जाता है। इस साल विश्व महिला दिवस का महत्व पहले से भी ज़्यादा है कि ये इस दिवस का एक सौ पांचवा साल है, लेकिन किश्वर हुसैन शादबाद में अभी तक महिलाओं के सशक्तिकरण के गंभीर प्रयास एक ख्वाब ही है। औरत जिसे ख़ुदा ने माँ बहन बेटी और बीवी जैसे पवित्र रिश्ते नातों से नवाज़ा है, समाज में शोषण का शिकार है। महिलाओं के इतिहास के हर दौर का जायज़ा लेने के बाद ये बात स्पष्ट रूप से सामने आती है कि हर दौर में उनका शोषण हुआ है, ये अलग बात है कि शोषण के तरीके बदलते रहते हैं। मौजूदा दौर में जबकि इंसान अपने आपको उदार और समानता का अलमबरदार कहने का दावा कर रहा है महिलाओं के साथ अन्याय, उत्पीड़न और शोषण का घिनौना सिलसिला जारी है। मर्द के प्रभुत्व वाले समाज में पुरुष को ये अधिकार है कि वो जिसे चाहे आदर और पवित्रता के सातवें आसमान पर बिठा दे और जिसे चाहे गंदगी के नाले में डाल दे। महिला दिवस के हवाले से अपनी टिप्पणी में वाइस ऑफ अमेरिका ने कहा है कि पाकिस्तान में आज भी औरतों की कुरान के साथ शादियां होती हैं (हमारे तीन संघीय मंत्रियों का परिवार प्रत्यक्ष रूप से इसमें शामिल है) आज भी वहां ऐसे क़बीले हैं जहां महिलाओं को "गर्म वस्तुओं" का उपयोग नहीं करने दिया जाता। उन्हें अण्डा, गोश्त और मछली खाने की मनाही है। आज पाकिस्तान में महिला 70 फीसद दैनिक जीवन में पानी भरने से से लेकर हल चलाने तक का काम करती हैं। एक सर्वे के अनुसार "वुमैन और बच्चा" कराची जेल में बंद 226 महिलाओं में से 42 माएं बन गई हैं जबकि दर्जन से अधिक महिलाएं गर्भवती हैं। इस तरह कैदी बच्चों की संख्या भी 462 तक पहुंच गई है। महिला कैदियों में अधिकतर हुदूद आर्डिनेंस की मारी बताई जाती हैं। वर्ष 2011 में पाकिस्तान में महिलाओं पर हिंसा और हत्या के 5557 मामले सामने आए जिनमें में 1163 हत्या, 368 आनर किलिंग, 80 हत्या की कोशिश के मामले दर्ज हुए। इसके अलावा 1203 महिलाओं का अपहरण, 667 घायल, 256 पर घरेलू हिंसा, 408 मर्दों के कारण आत्महत्या, 82 आत्महत्या की कोशिश, 572 बलात्कार, 199 गैंग रेप, 122 छेड़छाड़, 74 को यौन उत्पीड़न और 43 महिलाओं को जलाया गया। 210 ऐसी घटनाएं भी सामने आईं हैं जिनमें महिलाओं पर तेज़ाब फेंका गया ब्रिटिश हुकूमत के बनाए हुए 1860 ई. के अधिनियम के तहत महिला कैदी को अंतिम फांसी 1985 (दौलत बीबी पत्नी मिर्ज़ा खान) को सेंट्रल जेल रावलपिंडी में दी गई, पहली फांसी पाने वाली महिला का नाम ग़ुलाम फ़ातिमा था जिसे अपने पति की हत्या के आरोप में 10 अक्टूबर साल 1956 में फांसी दी गई। फांसी पाने वाली दूसरी महिलाओं में मस्नूरा और मुनव्वरा भी शामिल हैं जिन्हें 1985 में मौत की सज़ा दी गई, ये ममलकते ख़ुदादाद (पाकिस्तान) के इतिहास की एकमात्र घटना है जिसमें एक ही समय में जिला जेल झेलम में दो सगी बहनों को फांसी दी गई।
उपरोक्त सभी आंकड़े पाकिस्तान की नेशनल असेम्बली में बहस के दौरान 'सामने' आ चुके हैं। वहाँ नेशनल असेम्बली में ये फतवा दिया गया था कि मुत्तहिदा मजलिसे अमल बताये कि सरहद असेम्बली में सूबाई असेम्बली के सदस्यों की वफ़ादारियाँ बदलने के डर से उन्हें इकट्ठा करके इस बात की शपथ दिलाई गयी थी कि वो मुत्तहिदा मजलिसे अमल से ग़द्दारी नहीं करेंगे और जो ऐसा करेगा उसकी बीवी को तलाक़ हो जाएगी। देखा आपने यार लोगों ने तलाक़ देने का क्या हसीन औचित्य ढ़ूँढ़ निकाला है? यानी वफादारी तो बदले मर्द लेकिन तलाक़ हो जाये उसकी घर बैठी बीवी को। उस बेचारी का क्या क़ुसूर है? औरत के बारे में इस तरह का जाहिलाना भेदभावपूर्ण और घटिया रवैय्या हमारे समाज में कोई नई बात नहीं लेकिन अजीब है ये (मैं दिलचस्प नहीं कह रहा) कि ये सब इस्लाम के नाम पर किया जाता है, कभी भाई से जवानी नहीं संभाली जाती तो किसी की बहन या बेटी की इज़्ज़त लूटने के बाद जब मसाएल का शिकार हो जाता है तो "सुलह और सफाई" के लिए उसके पास सबसे हक़ीर (निम्नतम) "संपत्ति" अपनी बहन होती है जो वो मज़लूम लड़की के भाई या बाप के निकाह में देकर अपनी जान छुड़ाकर आज़ाद हो जाता है। यानी बेहयाई और ज़िल्लत (अपमान) की इंतेहा ये है कि एक लड़की पर ज़ुल्म की इंतेहा के जवाब में एक और लड़की पर ज़ुल्म ढा दिया जाता है जिसे वो 'इंसाफ़' का नाम देते हैं। बात वही है कि हमारे समाज में औरत पर ज़ुल्म का ज़िम्मेदार सिर्फ रिवाज और परंपराएं ही नहीं बल्कि दीन (धर्म) की घटिया समझ भी है, जो औरत को अधूरा, अपूर्ण, मंद बुद्धि, निजी जागीर, खेती और आधा क़रार देता है। इस सम्बंध में एक घटना पेश है। हज़रत अब्दुर्रहमान बिन औफ़ का ये मशहूर वाक़ेआ ज़्यादातर किताबों में दर्ज है, कि जब उनके अंसारी भाई हज़रत सअद बिन रबी ने ये पेशकश की कि मैं अपना आधा माल तुम्हें बाँट देता हूँ और मेरी दो बीवियाँ हैं उन्हें देख लो और जो पसंद आ जाए उसका नाम बताओ, मैं तलाक दे दूँगा, इद्दत बिताने के बाद तुम उसे निकाह में ले लेना।" क्या इस इस्लामी घटना से आपको औरत एक सामान, चीज़ या वस्तु दिखाई नहीं देती? उसकी सभी भावनाओं, मोहब्बत, वफादारी, चाहत की बागडोर बिना सोचे समझे और देखे भाले किसी दूसरे के सुपुर्द किया जा रहा है जैसे औरत न हुई खेती हो गई।
मेरे हिसाब से आज इस्लामी समाज में औरत के बारे में जो राय है उसे बनाने में मुख्य भूमिका हमारे मौलवी लोगों का ही है और मौलवी के यहां औरत का जो 'स्थान और सम्मान' है वो आपसे ढका छिपा नहीं, मौलवी ने औरत को शैतानियत की मूर्ति बनाकर रख दिया है। इसे बेहयाई की उपमा दे डाली है। ये सब देखते हुए समाज भी मौलवी से प्रभावित होकर औरत को तीसरे दर्जे का प्राणी समझता है उन्हें रुस्वा और अपमानित किया जा रहा है उन्हें महत्वपूर्ण पद नहीं दिए जाते जिन क्षेत्रों में औरतों की संख्या ज़्यादा है उनमें भी महत्वपूर्ण और उच्च पद महिलाओं के पास बहुत कम हैं। आज मौलवी लोग इस्लाम के जिन सिद्धांतों को अपना कर 'महिलाओं को ताक़त' देने की कोशिश कर रहे हैं, दुर्भाग्य से मौलवी ख़ुद उन शिक्षाओं से दूर हैं। शायद मुस्लिम समाज विशेषकर पाकिस्तानी समाज महिलाओं को समाज में बराबरी का दर्जा और अधिकार देने को मानसिक रूप से तैयार नहीं है। ऐसे में पाकिस्तान के विकास की बात ऊँची आवाज़ में करना कहां की अक़्लमंदी और गर्व की बात है?
काश ख़ुदा मुझे ऐसा इल्म (ज्ञान) देता जिससे मैं जाहिलों की जिहालत बर्दाश्त कर सकता।
10 मार्च, 2013, स्रोत: जंग, कराची
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