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Hindi Section ( 12 Jun 2012, NewAgeIslam.Com)

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Muslims Must Reclaim the Spirit of Islam मुसलमानों को इस्लाम की रूह को दुबारा हासिल करना होगा



अरशद आलम, न्यु एज इस्लाम

11 जून, 2012

(अंग्रेज़ी से तर्जुमा- समीउर रहमान, न्यु एज इस्लाम)

हाल ही में दिल्ली हाईकोर्ट के फ़ैसले को किस तरह लें, अगर एक मुसलमान लड़की 15 साल की उम्र में बालिग़ हो जाय, तो वो क़ानून की नज़र में नाबालिग़ नहीं है? क्या इसका मतलब ये है कि मुसलमान लड़कियों की शादी 18 साल से पहले की जा सकती है जबकि हिंदूस्तान में शादी की कम से कम उम्र 18 साल है? फिर हुक़ूक़े निस्वां के अलमबरदारों की सालों की उस जद्दोजहद का क्या जिसके नतीजे में शादी की उम्र में इज़ाफ़ा किया गया था?

क्या इसका मतलब ये है कि तरक़्क़ी याफ़्ता क़ानून साज़ी तमाम दूसरे लोगों के मक़सद से है और मुस्लिम लड़कियों के मामले में क़दीम क़ानून का ही इतलाक़ होगा जो इस ज़माने और वक़्त में मलऊन चीज़ है? इसके बाद क्या होगा? हिंदुस्तानी मुसलमानों के लिए शरई अदालत? ऐसे इम्कान के मुताल्लिक़ सोच कर ही वहशत होती है लेकिन हाईकोर्ट के हालिया फ़ैसले को देख कर लगता है कि इसके इम्कानात हैं।

कोई भी पुरउम्मीद हो सकता है और सोच सकता है कि इस मामले में जज उस मुस्लिम लड़की को बचाने की कोशिश कर रहे थे जिसने शादी के मामले में अपने इंतेख़ाब के हक़ का इस्तेमाल किया था। ताहम, फ़ैसले नज़ीर के तौर पर पेश किए जाते हैं और इसकी कोई ज़मानत नहीं है कि ये फ़ैसला नज़ीर नहीं बनेगा। बहेरहाल, कहने का मतलब ये नहीं है कि तमाम मुसलमान लड़कियां जब वो सने बलोग़त को पहुंच जाती हैं तो शादी कर लेती हैं या फ़ैसला इस रुझान की हौसला अफ़्ज़ाई करेगा। असल में मुस्लिम तब्क़े में मौजूदा रुझान दीगर तब्क़ात के जैसे ही हैं यानी लड़कियों की शादी की उम्र बढ़ रही है। लेकिन ज़ाहिरी तौर पर मोतज़ाद ये है कि इस मुआशरती रुझान की अक्कासी इन क़वानीन में नहीं हो रही है, जिनका इतलाक़ मुसलमानों पर होता है।

दिल्ली हाईकोर्ट के फ़ैसले ने मुसलमानों को संजीदगी से तजज़िया करने का मौक़ा फ़राहम किया है, लेकिन हमेशा की तरह, मुस्लिम क़यादत, मज़हबी और सियासी दोनों ने इस फ़ैसले को क़ानूनी बनाने और इस्तक़बाल करने की दरख़ास्त की है जो किसी भी जदीद मुल्क में मलऊन तसव्वुर किया जाता। ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड ने फ़ैसले का ख़ैर मक़दम किया है। मुस्लिम पर्सनल ला और हिंदुस्तानी आईन में पनाह लेना कुछ और नहीं बल्कि शर्मनाक ही कहा जा सकता है।

ये सिर्फ़ फ़ित्री ज़हानत की ख़ूबी है कि तुर्की, त्युनिस और शाम जैसे मुस्लिम ममालिक ने भी जदीद ज़िंदगी के उभरते हुए मामूल के मुताबिक़ अपने क़वानीन को तब्दील कर लिया है। इंडोनेशिया और पाकिस्तान, दोनों मुस्लिम ममालिक में हिंदुस्तानी मुसलमानों के मुक़ाबले शायद सिन्फ़ी इंसाफ़ करने वाले ज़्यादा क़ानून हैं। वो कौ सी चीज़ है जो ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड को इस ताल्लुक़ से सोचना शुरु करने से रोकती है, वो नाक़ाबिल इदराक व फ़हम है। बुनियाद परस्ती से चिपके रहने से, वो मुम्किना तौर पर बहुत सी मुसलमान लड़कियों، जिनके सरपरस्त होने का वो ख़ुद दावा करते हैं, उनकी सेहत और ज़िंदगी को ख़तरे में डाल रहे हैं।

कुसूरवार बनने की कोशिश के बजाय, मुस्लिम क़यादत को इस फ़ैसला को इंतेबाह के नोट के तौर पर देखना चाहिए और शादी से मुताल्लिक़ मज़हबी क़वानीन जो इस वक्त और ज़माने में पुराने हो गये हैं, उन पर संजीदगी से नज़रे सानी में मशग़ूल होना चाहीए। ये सिन्फ़ी इंसाफ़ करने वाले क़वानीन के लिए जद्दोजहद नहीं है, ये सिर्फ इस बारे में है कि मुस्लिम लड़कियाँ इतनी कम उम्र में शादी नहीं कर सकतीं और ना ही करनी चाहिए।

हिंदू मज़हब में इसी तरह का रिवाज है जिसे मज़हब की तरफ़ से मंज़ूरी हासिल थी लेकिन गुज़श्ता सालों के दौरान उन्होंने अपने रुजअत पसंदाना क़वानीन में इस्लाह करने और आगे बढ़ने में कामयाब रहे हैं। अगर उन्होंने वैसे ही दलायल दिए होते जैसे कि आज मुसलमान दे रहे हैं, जो ये है कि मज़हबी क़वानीन मोक़द्दस हैं और उन्हें तब्दील नहीं किया जा सकता है, तो हिन्दू ख़वातीन ने जो पेशरफ़्त की है वो नाक़ाबिले तसव्वुर होती।

मज़हबी क़वानीन को एक रहनुमा उसूल के तौर पर लिया जाना चाहिए ना कि ऐसे जिसके तमाम हुरूफ़ आने वाले तमाम ज़माने के लिए अब्दी हैं। इन क़वानीन के पीछे मंशा को समझना चाहिए। इस्लामी क़ानून ने सबसे पहले ख़वातीन को विरासत में हक़ और शादी से इंकार करने का हक़ अता किया था। ये एक इन्क़लाबी क़दम था और बहुत से तनाज़ुर में ये अब भी इन्क़लाबी है।

मसला ये है कि मुसलमानों ने इस इन्क़लाबी पैग़ाम के मानी को खो दिया और अपने मज़हब को नाक़ाबिले तब्दील बना दिया। अगर सैंकड़ों साल पहले, मुस्लिम क़यादत ने ख़वातीन को ऐसे हुक़ूक़ अता किए जो उस वक़्त नाक़ाबिले तसव्वुर थे, इसका पैग़ाम ये है कि मुस्लिम मुआशरे का बुनियादी उसूल सिन्फ़ी इंसाफ़ होना चाहिए। इस पैग़ाम को साथ लेकर ना सिर्फ मुस्लिम मआशरों के अंदर बल्कि तमाम मज़हबी रवायात के अंदर औरतों के लिए एक बेहतर दुनिया के लिए जद्दोजहद करने की ज़रूरत है, बल्कि इसके बजाय, हो ये रहा है कि जब अपनी औरतों के साथ बरताव का मामला आता है तो इस्लाम सबसे ज़्यादा पसमांदा हो जाता है।

ये कहना ग़ैर मौज़ू नहीं होगा कि आज इस्लाम की शबीह बुनियादी तौर पर औरतों के मुख़लिफ़ की है। ये कहने की ज़रूरत नहीं है कि इस तरह के फ़ैसलों पर मुस्लिम क़यादत की ख़ामोशी रुजअत पसंदाना शबीह को बरक़रार रखने और मक़बूल बनाने में मददगार साबित होगी। वक़्त आ गया है कि मुसलमान मुत्तहिद हो कर हमेशा के लिए इन मामलात को दुरुस्त कर दें और बताएं की ये रुजअत पसंदाना फ़ैसला अपनी बेटियों के लिए देखे गये ख़्वाब से ग़ैर मरबूत है।

अरशद आलम एक मुसन्निफ़ और मज़्मूननिगार हैं, फ़िलहाल जामिआ मुलिया इस्लामीया, नई दिल्ली से मुंसलिक हैं।

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