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Hindi Section ( 29 Jul 2012, NewAgeIslam.Com)

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Allah Hafiz and Loss of Muslim Self अल्लाह हाफ़िज़ और मुसलमानों का खुद का नुक्सान

 

अरशद आलम, न्यु एज इस्लाम

20 जुलाई, 2012

(अंग्रेजी से अनुवाद- समीउर रहमान, न्यु एज इस्लाम)

नाम में क्या रखा है? शायद बहुत कुछ, अगर हम ध्यान से सुनें। कुछ साल पहले मलेशिया में कुछ मुसलमानों ने ईसाइयों द्वारा खुदा के लिए अल्लाह के नाम का इस्तेमाल करने पर आपत्ति की थी। ये बिल्कुल वैसा ही है जैसे इन लोगों के पास अल्लाह के नाम का इस्तेमाल करने का कॉपीराइट हो। इन मुसलमानों की दलील थी कि, चूँकि अल्लाह उनके खुदा का नाम है इसलिए सिर्फ वो (मुसलमान) ही इस शब्द का इस्तेमाल कर सकते हैं।

अल्लाह के नाम के इस्तेमाल पर विवाद मलेशिया के मुसलमानों तक ही सीमित नहीं है इस तरह के विवाद भारत सहित अन्य जगहों पर भी हैं। सिर्फ मुसलमान ही ये फैसला कर सकते हैं कि शब्द अल्लाह सिर्फ उनसे संबंध रखेगा या वैश्विक रूप से अन्य धार्मिक परंपराओं के लिए भी उपलब्ध होगा। इस्लामी विद्वानों ने अल्लाह को हमेशा पूरी इंसानियत का खुदा और इस्लाम को एक वैश्विक धर्म के रूप में पेश किया है। मलेशिया में विवाद के बाद ये निश्चित तौर पर अविश्वसनीय लगना शुरू हो गया है।

लेकिन ऐसा क्यों है कि मुसलमानों के एक वर्ग ने पूरी दुनिया के खुदा को मुसलमानों के ख़ुदा तक सीमित करने का फैसला कर लिया है? क्या ये उनके खुद के बारे में कुछ बताता है, कि वो किस प्रकार के मुसलमान हैं और किस तरह के मुसलमान बनना चाहते हैं?

बिहार में मेरे पैतृक शहर में यात्रा के दौरान मैं ये गौर किये बग़ैर नहीं रह सका कि मेरे ज़्यादातर दोस्त पारंपरिक 'खुदा हाफिज़' की जगह 'अल्लाह हाफ़िज़ का इस्तेमाल कर रहे थे। शब्दों के इस बदलाव की वजह खोजने के रोमांच में मुझे बताया गया कि मुसलमानों के खुदा का नाम अल्लाह है इसलिए मुसलमानों के लिए केवल इसी नाम का इस्तेमाल करना उचित है।

खुदा शब्द को इसलिए अलग कर दिया गया क्योंकि ये दूसरों को साथ लेकर चलने वाला था और अन्य धार्मिक परंपराओं से जुड़े लोग भी इस शब्द का उपयोग करने के लिए जाने जाते थे।

ये वही बेचैनी, वही डर है जिसने मलेशियाई मुसलमानों को घेरा है। ये उनके अपने धार्मिक पहचान को बनाये रखने की  बेचैनी है। एक बेचैनी जो खुद से ये सवाल पूछने पर की आप कैसे मुसलमान हैं,  पैदा होती है। अपने धार्मिक अस्तित्व के बारे में इस जोरदार सवाल की गूँज सिर्फ मलेशिया या भारतीय मुसलमानों तक सीमित नहीं है बल्कि इस्लामी दुनिया में रहने वाले मुसलमानों की भी पहचान है।

 इस तरह मध्य एशिया के इस्लामी केंद्र के अतिरिक्त  इस बिंदु से बाहर रहने वाले मुसलमान भी अपनी धार्मिक पहचान को लेकर परेशान हो रहे हैं। महाभारत का पाठ करने वाले इंडोनेशिया के मुसलमान अब किवदंती बनने की प्रक्रिया में हैं, मध्य एशियाई देशों और पाकिस्तान में सभी धर्मों के स्थान के रूप में जाने जाने वाले मज़ार हमले की चपेट में हैं और बुर्के की बढ़ती मौजूदगी और मुस्लिम महिलाओं के सिरों पर सिंदूर की कमी को, कोई भी देख सकता है।

इस तरह इन क्षेत्रों में मुसलमानों को भारी दबाव से होकर गुजरना पड़ रहा है और मुसलमान होने का मतलब क्या है इसको दोबारा परिभाषित किया जा रहा है।

इस दोबारा परिभाषा का एक हिस्सा उन सीमाओं के निर्माण से है जो उन्हें स्पष्ट रूप से दूसरों से अलग करती हैं। देवबंद जैसे सुधारवादी संगठनों की मदद से ये लोग अपने सांस्कृतिक स्थलों और विशेष इतिहास को छोड़ने के इच्छुक हैं। इस प्रक्रिया में वो खुद अपनी परंपरा और सांस्कृतिक विरासत के बारे में नकारात्मक रुख अपना रहे हैं, जिसे वो अपने इस्लामी अस्तित्व पर दुष्प्रभाव के रूप में देखते हैं।

शुद्ध होने की ये तलाश इन लोगों को उन अरब लोगों की ओर ले जाती है जो खुद को विशुद्ध इस्लामी अस्तित्व वाला मानते हैं। इस्लाम का केंद्र अपनी सभी उदारता के साथ तेल से मिलने वाली दौलत का मस्जिदों और मदरसों में वित्तीय सहायता के रूप में उपयोग करता है, जो इस केंद्र के सीमावर्ती इलाकों में रहने वाले लोगों को सिखाएगा कि 'असल' इस्लाम क्या है। यहाँ क्या पढ़ाया पढ़ाया जाता गैर महत्वपूर्ण है लेकिन छात्रों के मन में जो दृश्य पैदा होंगे वो उनके अपने माहौल से बहुत अलग हैं। उन्हें ऐसी कहानियाँ सुनाई जाएंगी जिनका इन छात्रों के आस पास के माहौलl से कोई सम्बंध नहीं है और जिनकी जड़ें इनके सांस्कृतिक परंपराओं में भी नहीं हैं।

 दक्षिण एशियाई शास्त्रीय संगीत में मुसलमानों के योगदान के बारे में जाने बिना ये पढ़ना कि इस्लाम में संगीत जायज़ नहीं है, किसी मुसलमान को उसके अपने अपने ऐतिहासिक अस्तित्व की जड़ों से अलग करने के बराबर है। इंडोनेशिया के घने जंगलों में बैठकर अरब के रेगिस्तान के बारे में जानना प्रतीकात्मक हिंसा है। ये हिंसा एक व्यक्ति को अपने सामाजिक माहौल से बेगाना बनाता है। इन मुसलमानों से कोई क्या उम्मीद कर सकता है जो खुद हिंसा की पैदावार हों?

ये दुर्भाग्यपूर्ण है लेकिन सच है कि मुसलमानों की एक बड़ी संख्या अपने सांस्कृतिक आधार से अलग हो रही हैं। इस असम्बद्धता और अरबों की इस्लामी परंपरा के साथ खुद को जोड़ने से मुसलमानों को बहुत नुक्सान उठाना पड़ सकता है और विशेष रूप से उन लोगों को जो भारत जैसे मिले जुले समाज में रह रहे हैं। धीरे धीरे ये उन लोगों को उनके आसपास और पड़ोस से बेगाना करेगा और इन लोगों को दूसरे वर्गों के बारे में नकारात्मक और दकियानूसी विचार पैदा करने की ओर ले जाएगा।

 ये भारतीय मुसलमानों के लिए ज़रूरी है कि वो न सिर्फ दूसरों के साथ रहने की अपनी ऐतिहासिक विशेषताओं के बारे में जानें बल्कि उसकी सराहना भी करें और अन्य लोगों के सामुदायिक जीवन में भी भाग लें। अरब साम्राज्यवाद की प्रक्रिया को रोका जाना बहुत जरूरी है न सिर्फ इसलिए कि ये राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण है बल्कि आम सच्चाई है कि, कोई भी वर्ग बिना अपनी जड़ों के स्वस्थ जीवन नहीं गुजार सकता है। इसलिए विशेष संदर्भ वाले धार्मिक ज्ञान की इस समय आवश्यकता है, जिसका पूरी तरह अभाव है।

इतिहास और संस्कृति में किसी वर्ग के स्थान की खोज और सांस्कृतिक जागरूकता को फैलाने में शिक्षित मध्यम वर्ग की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। भारतीय मुसलमानों की विडंबना ये है कि उनके मध्य वर्ग ने इस किरदार को पूरी तरह दरकिनार कर दिया है। दुर्भाग्य से यही लोग टीवी पर नजर आने वाले ज़ाकिर नाइक के जैसे तीसरे दर्जे के भाषण करने वाले लोगों और विभिन्न जानकारी देने वाले नेटवर्क के द्वारा अरब साम्राज्यवाद की बहने वाली हवाओं के चपेट में रहे हैं।

अरशद आलम एक लेखक और स्तम्भकार हैं, फिलहाल जामिया मिल्लिया इस्लामिया, नई दिल्ली से संबद्ध हैं। वो न्यु एज इस्लाम के लिए कभी कभी कॉलम लिखते हैं।

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